पहले विश्व युद्ध में उस्मानी सेनाओं की पराजय के बाद विश्व का लगभग 84 प्रतिशत भाग यूरोपीय शक्तियों की इच्छा के आधीन हो गया था। अपनी राजनैतिक शक्ति के इस विस्तार में उन्हें 400 वर्ष लगे थे। फिर भी यह कोई साधारण उपलब्धि नहीं थी। यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही है कि यूरोपीय शक्तियों को इतनी बड़ी सफलता कैसे मिल गई। पछली एक शताब्दी में यूरोपीय जाति के इतिहास का जो वृतांत रचा गया है, उसमें इसे केवल उनकी सामरिक सफलता के रूप में ही नहीं दिखाया गया। इस वृतांत के अनुसार यह उनकी सभ्यता की विजय थी। पिछली अनेक शताब्दियों में उन्होंने जो वैचारिक प्रगति की थी, जो तकनीकी कौशल विकसित किया था, आधुनिक संस्थाओं का जो ढांचा खड़ा कर दिया था, यह उसकी विजय थी। वे एक आधुनिक और श्रेष्ठ सभ्यता विकसित करने में सफल हुए थे, जिसने उनको विश्व की सबसे अग्रणी शक्ति बना दिया और यही उनकी विश्व विजय का कारण बना। लेकिन 1800 तक उनकी ख्याति एक सामरिक शक्ति के रूप में तो हो गई थी, पर उन्हें उस समय की प्रधान सभ्यताओं में से कोई एक सभ्य और अपने से श्रेष्ठ जाति नहीं मानता था। न भारतीय ऐसा मानते थे, न चीनी और न अरब। इसलिए उनके इतिहास का जो वृतांत पिछली शताब्दी में तैयार हुआ है, वह एक गढ़ा गया वृतांत है।
सत्रहवीं और 18वीं शताब्दी में यूरोप के बहुत से लोग विश्व की अन्य सभ्यताओं को समझने के लिए निकले थे। उनकी यात्राओं के विस्तृत वृतांत यूरोप में छपे और प्रचारित-प्रसारित हुए। इन वृतांतों से शेष विश्व की एक उन्नत छवि ही निकलकर आती है। विशेषकर भारत और चीन को यूरोप में एक उन्नत सभ्यता के रूप में ही देखा और समझा गया था। उन्नीसवीं शताब्दी में अपनी राजनैतिक और आर्थिक प्रणालियों को आधुनिक स्वरूप देते हुए यूरोप को भारत और चीन की बहुत सारी विधियां प्रभावकारी लगीं और उन्हें आत्मसात
करते हुए उन विधियों को उन्होंने अपने ढांचे में ढाल लिया। यूरोप को भारत से ही शिक्षा को व्यापक स्वरूप देने की प्रेरणा मिली। प्रतिनिधि शासन और शासन तंत्र के विस्तार की विधियां उसे भारत और चीन के संपर्क से ही उपलब्ध हुईं। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि यूरोप के प्रभाव का जो विस्तार बीसवीं सदी के आरंभ में दिखाई देता है, वह उनकी सभ्यतागत उपलब्धियों का परिण् ााम है। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ तक वह ज्ञान-विज्ञान में उस समय की अन्य सभी सभ्यताओं से पीछे ही है।
सामान्यतः यह माना जाता है कि यूरोप की विश्व विजय में उसके आग्नेयास्त्रों की मुख्य भूमिका रही है। उसकी बंदूकें और तोपें औरों की तुलना में अधिक उन्नत थीं और उनकी फौजें औरों की तुलना में अधिक प्रशिक्षित और अनुशासित बना दी गईं थीं। यह बातें काफी हद तक सही है। पर उसका कारण यह नहीं है कि वे युद्ध कला में औरों से आगे थे या उनमें तकनीकी कुशलता औरों से अधिक थी। उदाहरण के लिए यह याद रखना आवश्यक है कि वे आग्नेयास्त्रों के आविष्कारक नहीं थे। बारूद और उसके आधार पर बने आग्नेयास्त्रों का प्रचलन कब और कहां से आरंभ हुआ, इसके बारे में अभी हमारी जानकारी अधूरी है। भारत को अत्यंत प्राचीन काल से बारूद का ज्ञान था। लेकिन उसके आधार पर उसने आग्नेयास्त्र विकसित किए थे या नहीं हम नहीं जानते। लेकिन इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि चीन 800 ईस्वी के आसपास बारूद के आधार पर आग्नेयास्त्र बनाना सीख गया था। उससे यह विधि मंगोलो को मिली और मंगोलों से तुर्कों तथा अरबों को मिली। अरबों से यह विधि यूरोप को मिली थी। 1644 का एक चीनी मैन्यूअल बताता है कि उस समय चीनियों की दृष्टि में उस्मानी राज्य की मस्केट श्रेष्ठ थी और उसके बाद ही यूरोप की मस्केट का उल्लेख किया जाता था। बहरहाल चैदहवीं शताब्दी के मध्य तक बारूद पर आधारित आग्नेयास्त्रों का ज्ञान भारत से लगाकर यूरोप तक काफी विशाल क्षेत्र में हो गया था।
निश्चय ही यूरोप अठारहवीं शताब्दी आते-आते बेहतर आग्नेयास्त्र बनाने लगा था। सैनिक प्रशिक्षण और अनुशासन के मामले में भी वह दूसरों से आगे निकल गया था। लेकिन इसका कारण उसकी जातीय श्रेष्ठता नहीं थी। अपनी जातीय श्रेष्ठता का दावा उसने पहले अपने नस्लवादी पूर्वाग्रहों के कारण करना आरंभ किया था। बाद में अपनी जातीय श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए उसके शिक्षा तंत्र ने यूरोपीय इतिहास का एक मोहक वृतांत गढ़ लिया। इस वृतांत के अनुसार पिछली पांच-छह शताब्दियों में यूरोप के ज्ञान-विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति हुई। जिसने उसके लिए ही नहीं विश्व के सभी लोगों के लिए उन्नतजीवन का एक नया रास्ता खोल दिया। इस वृतांत को एक तरफ हटाकर देखें तो यूरोप हमेशा एक युद्धकामी तंत्र ही दिखाई देगा। पंद्रहवीं शताब्दी के बाद ऐतिहासिक शक्तियों की अनुकूलता ने उसे यूरोप के बाहर एक विशाल क्षेत्र का स्वामी बना दिया। यह अनुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियां क्या थी और उनका लाभ उठाने में वह कैसे समर्थ हुआ, यह जानना उसकी आज की सभ्यता को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
यूरोप की विश्व विजय को दो भागों में बांटकर समझा जाना चाहिए। उसका विजय अभियान अमेरिकी महाद्वीप पर उसके नियंत्रण से आरंभ हुआ था। यह सब जानते हैं कि यूरोपीय मध्य सागर के दूसरी ओर बसे हुए अरबों से आक्रांत थे। इतिहासकारों ने लिखा भी है कि मोहम्मद का जन्म न हुआ होता और उन्हें अरबों से चुनौती न मिली होती तो न यूरोप का जनक माने जाने वाले चाल्र्स महान का जन्म हुआ होता और न यूरोप में नई राजनैतिक शक्तियां उभर पाई होतीं। पंद्रहवीं शताब्दी तक वह उनके दबाव में थे। दसवीं शताब्दी के बाद अरब क्षेत्रों में भी राजनैतिक सत्ता तुर्कों के हाथ में जाने लगी थी और 1453 में तुर्कों ने कान्सटेनटिनोपल जीतकर यूरोपीय लोगों को वहां से खदेड़ दिया और उनके व्यापारिक रास्ते बंद कर दिए। उसके बाद ही वैकल्पिक रास्तों की खोज में वे समुद्री यात्रा पर उतरे थे। 1433 में चीन ने अपने व्यापारिक समुद्री बेड़े को समाप्त कर दिया था। इसलिए यूरोपीय व्यापारियों के लिए कुछ गुंजाइश पैदा हो गई थी। कोलंबस 1492 में पूर्व के सामुद्रिक मार्गों को खोजने निकला था, लेकिन भटककर अमेरिकी महाद्वीप पर पहुंच गया। उस समय विशाल अमेरिकी महाद्वीप की आबादी यूरोप से अधिक थी और वह यूरोप के मुकाबले चार गुना बड़ा था। लेकिन अमेरिकी महाद्वीप में बसे लोग आग्नेयास्त्रों से परिचित नहीं थे और उनका युद्ध कौशल कुछ नैतिक मर्यादाओं से बंधा था। यूरोपीय वहां दस्यु शक्तियों के रूप में गए थे और इस विशाल क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए उन्होंने जो पाशविक क्रूरता दिखाई, उसने मानव इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार को जन्म दिया। अमेरिकी महाद्वीप की लगभग दस करोड़ आबादी का नब्बे प्रतिशत एक शताब्दी के भीतर-भीतर काल-कवलित हो गया। इस अमेरिकी विजय ने उनकी आकांक्षा बढ़ा दी। इसके बाद अठारहवीं शताब्दी तक उन्होंने प्रशांत महासागर के अनेक क्षेत्रों पर कब्जा किया। आॅस्टंेलिया, न्यूजीलैंड और फिलीपींस की मूल आबादी को नष्ट करके उन्होंने विश्व के लगभग 36 प्रतिशत भाग को अपने नियंत्रण में कर लिया। मूल यूरोप विश्व का केवल 6.7 प्रतिशत भाग ही है। इन सभी क्षेत्रों पर विजय के लिए यूरोपीयों ने जो पाशविक क्रूरता बरती, वह उनको किसी उन्नत सभ्यता के रूप में नहीं, बल्कि एक बर्बर, असभ्य जाति के रूप में ही चित्रित कर सकती है। लेकिन इस विशाल क्षेत्र पर नियंत्रण ने उनकी समृद्धि का द्वार खोल दिया। विश्व में उनकी जनसंख्या का अनुपात दोगुना हो गया। अपनी आधी से अधिक जनसंख्या को वे यूरोप के बाहर के क्षेत्रों में स्थानांतरित करने में सफल हो गए। उनके आंतरिक व्यापार का तेजी से विकास हुआ। इस समृद्धि ने उनकी शासक जातियों को और महत्वाकांक्षी बना दिया। यूरोप के भीतर का उपनिवेशीकरण और कड़ा हो गया। यूरोप में शक्तिशाली और निरंकुश राजाओं का उदय हुआ। फ्रांस में लुई-14, रूस में पीटर महान, हाॅब्सबर्ग में मारिया थेरेसा और प्रशा में फ्रेडरिक महान इसी तरह के राजा थे। लेकिन विशेषकर अमेरिका के कारण जो समृद्धि बढ़ी उसने नई पूंजीप्रधान शक्तियों को पैदा किया। इनके कारण यूरोप का फ्यूडल ढांचा कमजोर होने लगा। फ्यूडल ढांचे और पूंजीवादी शक्तियों के बीच के तनाव ने उस तथाकथित उदारवाद को जन्म दिया, जिसे यूरोप के बाहर के लोग ठीक से समझ नहीं पाते। यह उदारवाद मनुष्य मात्र की गरिमा का पोषक नहीं था, वह केवल व्यक्तिवाद का पोषक था। अभिजात्य वर्ग को चुनौती देने वाली नई पूंजीवादी शक्तियां साधारण लोगों के प्रति उतनी ही उत्पीड़क थी। इसकी झलक औद्योगिक क्रांति के आरंभिक दौर में यूरोप के मजदूरों की जो दशा थी, उससे आसानी से पाई जा सकती है।
यूरोपीय इतिहासकार सत्रहवीं और अठारहवीं सदी के जिस वैचारिक आलोढ़न के गीत गाते नहीं थकते, वह अमेरिकी काॅलोनियों से मिली लूट का फल था। इन काॅलोनियों के लिए लोगों की आवश्यकता थी और उसके लिए फ्यूडल व्यवस्था को ढीला करना आवश्यक था। इसी कोशिश में क्रांतिकारी परिस्थितियों का जन्म हुआ। सबसे पहले अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी क्रांति हुई। अमेरिकी पूंजीवादी शक्तियों ने ब्रिटिश शासन का जुआ अपने कंधे से उतार फेंका। उसके बाद फ्रांसीसी क्रांति हुई। उसने पहले अभिजात्य वर्ग और फिर राजा की शक्ति को चुनौती दी। ब्रिटेन में राजा और अभिजात्य वर्ग के बीच जो शक्ति संघर्ष छिड़ा हुआ था, उसने राज परिषद के विस्तार का रास्ता खोला। उसने धीरे-धीरे संसद का स्वरूप लिया। पूंजीवाद की विजय के बाद शासन में कुलीन वर्ग की आवश्यकता नहीं रह गई थी। इसने आधुनिक राज्य को जन्म दिया, जिसके पास राजा से भी अधिक शक्तियां हैं और आम नागरिकों के जीवन पर उसका कहीं अधिक नियंत्रण है। इस मध्यवर्ती काल में यूरोप तीन तरह की प्रतिस्पर्धाओं में फंसा रहा था। एक तरफ यूरोप के विभिन्न राज्य निरंतर संघर्षरत थे, दूसरी तरफ
राजा-अभिजात्य वर्ग और नई पूंजीवादी शक्तियों के बीच संघर्ष चल रहा था और तीसरी तरफ राज्य और चर्च के बीच तथा कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच मारकाट मची हुई थी। इन सभी संघर्षों ने यूरोपीय शक्ति तंत्र को गतिशील, आक्रामक और कल्पनाशील बना दिया था। इन प्रतिस्पर्धाओं ने यूरोपीय साम्राज्य के और अधिक विस्तार की आकांक्षा पैदा की। इस आकांक्षा ने ही यूरोपीय जाति को अपना सामरिक तंत्र उन्नत बनाने की प्रेरणा दी। इसी प्रक्रिया से उन्नत बंदूकें और तोपें पैदा हुईं और एक पेशेवर फौज की आवश्यकता उभर आई। यूरोप का यह नया साम्राज्य व्यापारिक शक्तियां खड़ा कर रही थीं। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि अठारहवीं शताब्दी में भी यूरोप के पास भारत, चीन, जापान या दक्षिण-पूर्व एशिया के उन्नत समाजों को बेचने लायक कोई सामग्री नहीं थी। वह दूसरों के उत्पादन पर या नशीले पदार्थों और सामरिक सामग्री की बिक्री पर ही अपना व्यापारिक साम्राज्य खड़ा कर रहा था।
अपने साम्राज्यवादी विस्तार के दूसरे दौरे में भी यूरोप का अपना सामथ्र्य कोई बहुत नहीं था। उस समय विश्व की सभी उन्नत सभ्यताएं अपने से हीन जातियों के राजनैतिक नियंत्रण में थीं। यूरोप का सामना जापान और दक्षिण-पूर्व एशिया को छोड़कर कहीं स्वतंत्र शक्तियों से नहीं हुआ। चीनी 907 में ही उत्तरवर्ती कबीलों की विजय के बाद पराधीनता में चले गए थे। बीच की 1368 से 1644 की मिंग शासन की अवधि को छोड़कर वह 1912 तक पराधीन ही रहे। जब यूरोपीय चीन पहुंचे तो वहां विदेशी मान्चू शासन था। अरब दसवीं शताब्दी में तुर्कों के आधीन हो गए थे। भारत में 1206 में दिल्ली राज्य गुलाम वंश की अधीनता में चला गया था। लेकिन 1350 तक भारत के बड़े हिस्से पर तुर्को का शासन स्थापित हो चुका था। अठारहवीं शताब्दी में मराठा प्रधान शक्ति बन गए थे। लेकिन भीतर और बाहर के मुस्लिम योद्धाओं से लड़ने में उनकी शक्ति छीज गई और अंग्रेजों को पैर जमाने का मौका मिल गया। इस तरह यह कोई यूरोप की विजय नहीं थी, सिर्फ बिल्ली के भाग छींका फूटा था। इस राजनैतिक व्यापारिक साम्राज्य को खड़ा करने में यूरोप के भीतर की सभी प्रतिस्पर्धी शक्तियां एकजुट थीं। यूरोप के विभिन्न राज्य, चर्च और व्यापारिक कंपनियों की एकजुटता चीन पर उनके द्वारा डाले गए दबाव के समय देखी जा सकती है।