आजादी के बाद जमींदारी प्रथा का अंत हो चुका है। इसके बाद किसानों को जमीन का हक मिला। लेकिन यह हक काफी कुछ पन्नो पर ही है। उद्देश्य से काफी दूर। इसका उद्देश्य था जमीन पर किसानों का हक स्थापित करना। मतलब साफ है जमीन उसकी जो खेती करे, उससे अपनी आजीविका चलाए यानि उस जमीन पर ही आश्रित हो। उस पैमाने पर जमींदारी उन्मूलन अपने उद्देश्य से कोसों दूर है।
वैसे संविधान में भूमि सुधार राज्य का विषय है। इसलिए राज्य को सामंती शोषण को समाप्त करने के लिए कानून बनाने की जरूरत थी। ज्यादातर राज्यों को यह प्रक्रिया पूरी करने में चार-पांच साल लग गए। इस लेटलतीफी के कारण जमींदार गलत ढंग से दस्तावेजों को अपने पक्ष में करने में सफल रहे। इस हेराफेरी से बड़े पैमाने पर काश्तकार बेदखल हुए। जमींदार के नाम की जमीन उनके परिवार के अनेक सदस्यों व फर्जी नामों से तैयार की गई। जमींदारी उन्मूलन से भू-स्वामी द्वारा काश्तकारों से लगान वसूल करना तो गैर कानूनी हो गया। इस कदम से बिचौलियों की समाप्ति तो हो गई, लेकिन भू-जोतों की स्वामित्व पद्धति पर इसका कोई खास असर नहीं पड़ा। उदाहरण के लिये ‘सीर’ और ‘खुदकाश्त’ सरीखी भूमि, कानून के तहत सरकार नहीं ले सकती थी। क्योंकि ऐसी भूमि के मामले में जमींदार को बिचौलिया नहीं माना गया था। उसे श्रमिकों के जरिए ऐसी भूमि पर खेती करने की इजाजत थी। इसके अलावा कोई ऐसी सरकारी मशीनरी भी नहीं थी जो जमींदार द्वारा पट्टे पर कराई जा रही खेती पर नजर रख सके।
कुछ राज्यों में जहाँ काश्तकार को भू-स्वामित्व प्राप्त था, वहाँ जमींदार को मुआवजा देने की व्यवस्था थी। यह व्यवस्था विभिन्न राज्यों में अलग-अलग थी। लेकिन फिर भी काश्तकार की स्थिति में कोई प्रत्यक्ष सुधार नजर नहीं आया। जमींदारी उन्मूलन में निर्धन वर्ग विशेषकर सीमांत किसान, बटाईदार और कृषि श्रमिकों के बारे में कोई चिन्ता निहित नहीं थी।
पंचवर्षीय योजनाओं में लगातार भूमि सुधार की आवश्यकता पर बल दिया जाता रहा है। पहली तीन पंचवर्षीय योजनाओं में समानता पर जोर देने के बजाय कृषि उत्पादन में वृद्धि पर अधिक बल दिया गया। अतः भूमि के स्वामित्व पर किसी प्रकार की हदबंदी पर कोई विचार विमर्श नहीं हुआ। कुछ राज्यों ने इस सम्बन्ध में कानून बनाए लेकिन 1961 के जमींदारी उन्मूलन कानून के साथ ही भू-हदबंदी कानून सभी राज्यों में लागू किया गया। भू-हदबंदी का स्तर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग रहा। हालाँकि ये कानून व्यवहारिक दृष्टि से पूर्णतः अप्रभावी सिद्ध हुए क्योंकि भूमि का हस्तांतरण वैध और हेराफेरी दोनों तरीकों से बड़े पैमाने पर होता रहा। यह मानते हुए कि भूमि के समान वितरण में बहुत कम प्रगति हुई है। यह मुद्दा 1970 में फिर उठाया गया। वर्ष 1972 में राज्यों के साथ विचार-विमर्श के बाद भू-हदबंदी कानून को फिर से बनाने का निर्णय लिया गया। इसके तहत जोत के आकार को सीमित करने की व्यवस्था थी। कानून के स्वरूप और व्यवस्थाओं को देखते हुए भू-हदबंदी की धारा से बचने के पर्याप्त अवसर मौजूद थे।
एक अनुमान के अनुसार जमींदारी उन्मूलन से लगभग दो करोड़ काश्तकारों को फायदा पहुँचा। फिर भी, यह समस्या अब भी मौजूद है। विशेषकर उन राज्यों में जहाँ अनुपस्थित भू-स्वामित्व फल-फूल रहा है। उदाहरण के लिये साल भर सिंचाई की व्यवस्था और दो फसलों का उत्पादन कर सकने वाली जमीन के लिये 10 से 18 एकड़ तक ही सीमा निर्धारित थी, इस वर्गीकरण में पर्याप्त सिंचाई और भूमि की गुणवत्ता दोनों मामलों में गलत तथ्य दिखाने की गुंजाइश थी। एक फसल वाली जमीन के मामले में भू-हदबंदी की सीमा 27 एकड़ थी, कोई भी व्यक्ति बता सकता था कि वह एक ही फसल उगाता है। राजनीतिक और सामाजिक दोनों दृष्टि से शक्तिशाली होने के कारण जमींदार भूमि के अवैध हस्तांतरण और पट्टे पर देना जारी रख सकते थे। पाँच लोगों से अधिक के परिवार में 18 से अधिक उम्र वाले प्रत्येक अतिरिक्त व्यक्ति को अतिरिक्त भूमि रखने की अनुमति थी। जन्म के पंजीकृत न होने की स्थिति में छोटी उम्र का बच्चा भी अपने को 18 वर्ष का होने का दावा करके अधिक जमीन रख सकता था। मुआवजा अदा करना जरूरी था। मुआवजा अदा करने के लिये गरीब को जमींदार अथवा महाजन से पैसा लेना पड़ता था और पैसा अदा न करने की स्थिति में जमीन फिर से जमींदार अथवा महाजन के कब्जे में चली जाती थी। भू-हदबंदी कानून में इन त्रुटियों के कारण भू-स्वामित्व की व्यवस्था में असमानता बनी रही। आज भी, भूमि सुधार राष्ट्रीय स्तर पर चिन्ता का गम्भीर विषय बना हुआ है। कृषिगत सुधार और कृषि के विकास के लिये व्यापक भूमि सुधार नीति एक अनिवार्य शर्त है।
काश्तकारी सुधार संबंधी कानून नागालैंड, मेघालय और मिजोरम को छोड़कर सभी राज्यों में लागू है। ये कानून राज्य द्वार काश्तकारों को मालिकाना हक दिलाने, यथोचित मुआवजे की भरपाई करके काश्तकारों को स्वामित्व दिलाने में, काश्तकारों की सुरक्षा और लगान निर्धारित करने की व्यवस्था करते हैं। फिर भी इन क़ानूनों का क्रियान्वयन समान ढंग से नहीं किया गया है।
प. बंगाल, कर्नाटक और केरल ने इस दिशा में अधिक सफलता अर्जित की है। प. बंगाल में 14 लाख बटाईदारों को ‘ऑपरेशन बर्गा’ के तहत दर्ज किया गया है। कर्नाटक में विशेष रूप से गठित ‘भूमि न्यायाधिकारण’ के जरिए तीन लाख काश्तकारों को 11 लाख एकड़ भूमि उपलब्ध कराई गई। केरल में 24 लाख काश्तकारों को काश्तकार संघ के आवेदनों के जरिए मालिकाना हक प्रदान किया गया। कुल मिलाकर काश्तकारी सुधार-सम्बन्धी अनुभव काफी सीमित हैं जबकि मौखिक या गुप्त काश्तकारी के उदाहरण काफी अधिक हैं। यह तथ्य व्यावहारिक जोतों के वितरण सन्बन्धी आंकड़ों से उजागर होता है।
1972 के राष्ट्रीय मार्ग दर्शन के अनुसार गोवा और उत्तर-पूर्वी राज्यों को छोड़कर शेष सभी राज्यों में भू-हदबंदी कानून बनाया गया। हदबंदी कानून के तहत सिर्फ 72.2 लाख एकड़ भूमि को अतिरिक्त घोषित किया गया। इसमें से 46.5 लाख एकड़ भूमि को सातवीं योजना के अंत तक वितरित किया जा चुका था। जहाँ एक तरफ शेष बची हुई भूमि का वितरण किए जाने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी तरफ यह महसूस किया गया है मौजूदा हदबंदी कानून के तहत और अधिक अतिरिक्त भूमि प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा, यह हकीकत है कि मौजूदा तकनीकी स्तर में छोटी जोत अधिक व्यावहारिक हैं। अतः ऐसी स्थिति में भू-हदबंदी सीमा को कम करना सम्भव है ताकि भूमि का और अधिक समानता पर आधारित पुनर्वितरण किया जा सके यह सत्य है कि भूमि पर जनसंख्या वृद्धि के बढ़ते दबाव की वजह से जोतों का औसत आकार कम होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में हदबंदी सीमा को और अधिक कम करना वांछनीय नहीं है।
जमींदारी प्रथा का उन्मूलन तो किया गया मगर वास्तविक किसानों को वापस अपनी भूमि मिल जाय इस दिशा में ईमानदारीपूर्वक बहुत ठोस काम नहीं हुए। अगर ऎसी नीति बनती कि हर किसान को ज़रूरत भर खेती योग्य भूमि मिल जाए, तो किसान खुशहाल होते, गाँव में गरीबी कम होती और गाँव की स्थिति इतनी खराब नहीं होती। इस तरह भूमि पर किसानों को अधिकार दिलाने और भूमि सुधार नीति को लागू कर किसानों को भूमि देने की कवायद अधूरी रह गई।
गैर मजरुआ आम और गैर मजरुआ मालिक जमीनों को लेकर तो स्थिति और भी बुरी है। 1905-06 के सर्वे के अनुसार जमीन तीन भागों में विभक्त की गई थी, रैयत जमीन, गैर मजरुआ आम और गैर मजरुआ मालिक। रैयत जमीन तो किसानों के नाम हो गई, मगर गैर मजरुआ मालिक जमीन पर जमींदारों का कब्जा बना रहा, जबकि रास्ते, पोखरे, खत्ते, नदी, तालाब, नहर, पाइन, तटबंध आदि जमीनें, जिनका सार्वजनिक इस्तेमाल होता था, वे जमीनें गैर मजरुआ आम थीं। आजादी के बाद इन जमीनों का सबसे बुरा हाल हुआ। सरकार की अस्पष्ट नीति और गाँव की तरफ सरकार की लापरवाही भरे दृष्टिकोण की वजह से गैरमजरुआ आम जमीनों पर जिसको जहाँ मौका मिला, आम-ओ-खास सबने कब्जा कर लिया। इन जमीनों को लेकर चूँकि मालिकाना हक स्पष्ट नहीं है, इसलिए अक्सर गाँव के लोग जमीनों की खरीद-बिक्री करते समय ठगे जाते हैं और झगड़े होते हैं।
नदी, तालाब, पोखरा, नहर, पाइन आदि जो पानी के स्रोत थे, ज्यादातर उन्हीं जमीनों पर अराजक कब्जा हुआ है, इसलिए गाँवों में पानी की समस्या बढ़ी है। बरसात में बाढ़ की स्थिति रहती है और बरसात समाप्त होते ही, सूखे की स्थिति बन जाती है। बरसात का पानी बेकार बह जाता है। जलाशयों के समाप्त हो जाने की वजह से पशुओं को पीने का पानी मिलना, खेतों के लिए पटवन का काम आदि के लिए जमीन के नीचे के जल पर निर्भर रहना एकमात्र विकल्प रह गया है। नतीजा है जलस्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है।