मानव इतिहास के तथ्यगत विवरण के अनुसार सभ्यता का उद्गम नदियों के किनारे हुआ है, परंतु यह भी सत्य है कि अपने उन्नयन के साथ यही सभ्यता नदियों की हंता भी बनी है. बिहार ने इस सत्य को प्रमाणित किया है.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट (2022) के अनुसार बिहार में पिछले चार वर्षों में प्रदूषित नदियों की संख्या में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है. वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार जहाँ राज्य की छह नदियाें प्रदूषित थीं, 2022 में उनकी संख्या बढ़कर 18 हो गयी है. राज्य के 40 से अधिक स्थानों पर की गई जाँच में इन 18 नदियों का पानी गुणवत्ता मानक के अनुरूप नहीं पाया गया. इसमें बागमती, बूढ़ी गंडक, दाहा, धौस, गंडक, गंगा, गांगी, घाघरा, हरबोरा, कमला, कोहरा, लखनदेई, मनुस्मार, परमार, पुनपुन, रामरेखा, सरसिया, सोन नदियाँ शामिल हैं। स्वास्थ्य अवसंरचना एवं कुपोषण से जूझते ‘बीमारू’ राज्य के लिए यह ख़तरनाक स्थिति है.
लेकिन यहाँ सरकारी शुचिता ही संदेह के घेरे में हैं.2018 की रिपोर्ट के पश्चात् ही बिहार सरकार को सचेत होकर अपनी नीतियों में सुधार करके नदियों के प्रदूषण की रोकथाम हेतु प्रभावी उपाय करने चाहिए थे. लेकिन इसके बजाय उसकी नीतियां एवं कार्यशैली पश्चगामी रहीं हैं. यहाँ समस्या धन-संसाधन की न्यूनता भी नहीं बल्कि राज्य सरकार की अकर्मणयता है. उदाहरणस्वरूप, राजधानी पटना में सीवरेज अवसंरचना को मजबूत करने के लिए पिछले चार वित्त वर्ष में 684 करोड़ रुपए आवंटित थे किंतु कैग (CAG) की रिपोर्ट के अनुसार बिहार स्टेट गंगा रिवर कंजर्वेशन एंड प्रोग्राम मैनेजमेंट सोसायटी (बीजीसीएमएस) इस धन का पूरी तरह इस्तेमाल ही नहीं कर सकी. सरकारी तंत्र की काहिलियत देखिये कि 2016-17 से 2019-20 के बीच केवल 16 से 50 फीसदी फंड का ही प्रयोग हुआ. परिणाम ये हुआ कि इन चार वर्षों में गंगा का पानी 1800 गुना अधिक प्रदूषित हुआ.
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जल से सम्बंधित प्रदूषण किस तरह से मानव जीवन को प्रभावित करता है, इसे समझना होगा. परिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) में खाद्य श्रृंखला (Food-chain) विद्यमान होती है जो विभिन्न प्रकार के जीवधारियों का वह क्रम है जिससे जीवधारी भोज्य तथा भक्षक के रूप में सम्बंधित होते हैं एवं इनमें होकर खाद्य ऊर्जा का एक दिशीय प्रवाह होता है. प्राथमिक उत्पादक (हरे पौधे), प्रथम, द्वितीय, तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता एवं अपघटनकर्ता (कवक तथा जीवाणु) आपस में मिलकर खाद्य-श्रृंखला बनाते हैं. खाद्य-श्रृंखला में ऊर्जा एवं रासायनिक पदार्थ उत्पादक, उपभोक्ता, अपघटनकर्ता व निर्जीव प्रकृति में क्रम से प्रवेश करते रहते हैं और इनमें होते हुए चक्र में घूमते रहते हैं.
प्रदूषक खाद्य श्रृंखला के भीतर अनिम्नीकरण (Non-degradable) प्रक्रिया के माध्यम से विभिन्न पोषण स्तरों से होते हुए उच्चतम उपभोक्ता में संग्रहित होते हैं. हानिकारक तत्वों के किसी जीव में एकत्रीकरण को जैव-संचयन(Bio-Accumulation) कहते हैं. अनिम्नीकरण (Non-degradable) प्रदुषकों जैसे- CHC, BHC, DDT, 2-4D जैसे विषैले पदार्थ खाद्य श्रृंखला के द्वारा पौधों एवं जंतुओं के माध्यम से मानव शरीर में पहुंचते हैं. वसा में घुलनशील होने के कारण ये शरीर में संचित हो जाते हैं एवं श्वसन क्रिया के समय रुधिर वाहिनीयों में प्रवेश करके विषैले प्रभाव दिखाते हैं और कैंसरकारक तक होते हैं. जैव-संचयन रसायनों के अंतर्ग्रहण, संग्रहण और निष्कासन का परिणाम होता है. इसे पार्ट्स प्रति मिलियन (PPM) में मापा जाता है.
ठोस प्रदूषकों से युक्त जल का सेवन कई प्राणघातक रोगों को आमंत्रित करता है, जैसे पारा से मिनामाटा, एस्बेस्टस से एस्बेस्टोसिस, सीसा से एनीमिया, नाइट्रेट की अधिकता से ब्लू बेबी सिंन्ड्रोम, फ्लोराइड की अधिकता से फ्लोरोसिस, आर्सेनिक की अधिकता से ब्लैक फुट, कैडमियम की अधिकता से इटाई-इटाई आदि. उद्योगों नगरीय क्षेत्रों द्वारा प्रवाहित प्रदूषित अपशिष्टों एवं सीवेज के कारण मिट्टीयों का अवनयन (Degradation) होता है. जैवनाशी रसायन यानि कीटनाशक, शाकनाशक, रोगनाशक आदि विषैले अवशिष्ट के रूप में आहार-श्रृंखला में प्रवेश तथा मिट्टी में प्रयोग करने से बैक्टिरिया सहित सूक्ष्म जीवों को नष्ट करके उसकी गुणवत्ता को कम करतें हैं. जैवनाशी रसायनों को रेंगती मृत्यु (Creeping Deaths) कहते हैं.
गंगा सफाई अभियान से जुड़े असि.प्रो. डॉ.आनंद प्रकाश (सरदार वल्लभभाई पटेल महाविद्यालय, भभुआ) रिपोर्ट पर अपनी चिंता व्यक्त करतें हैं, ‘जैविक एवं घरेलु कचरे को सीधे नदी में डालने से BOD और COD का स्तर बढ़ जाता है. इसका सीधा असर खाद्य श्रंखला पर पड़ता है और जैव विविधता की हानि होती है। इसका सीधा बुरा असर हम तक भी जैव-आवर्द्धन के कारण पड़ता है। बिहार की 18 नदियों के जल को प्रदूषित पाया गया जिसमे BOD का स्तर 30mg प्रति लीटर मापा गया है जो कतई अच्छा संकेत नहीं है.’
उपरोक्त तकनीकी शब्दों का अर्थ अग्रलिखित है.B.O.D.अर्थात् जैविक ऑक्सीजन मांग का परीक्षण जल में उपस्थित जैवऑक्सीकरणीय (Bioxidisable) कार्बनिक पदार्थों की मात्रा का आकलन करता है. जल प्रदूषण की स्थिति को जानने के लिए यह परीक्षण किया जाता है. बी.ओ.डी. में वृद्धि के फलस्वरूप जल में ऑक्सीजन की मात्रा न्यूनतम होती जाती है. इस कारण जल में CH4, H2S, और NH3 जैसे हानिकारक तत्वों की मात्रा बढ़ती है और जल में दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है. C.O.D. (रासायनिक ऑक्सीजन मांग) उस कुल ऑक्सीजन की मांग है जो जल में उपस्थित कुल कार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण के लिए आवश्यक है. तथा D.O. जल में घुलित ऑक्सीजन की वह मात्रा है जो जलीय जीवों के श्वसन के लिए आवश्यक होता है.
इस विवेचना का अर्थ यह है कि जीवनदायिनी-मोक्षदायिनी नदियां एक तरह से मानव सभ्यता के लिए के लिए घातक जहर ढ़ो रही है जो जल और भोजन के माध्यम से उनको लीलने को तत्पर है. हालांकि इसके लिए भी उत्तरदायी आधुनिक सभ्यता की खुदगर्जी और सरकार की काहिलियत ही है. औद्योगिक इकाईयों द्वारा पिछले कई वर्षों से निर्बाध रूप से प्रसारित कचरे ने स्थिति भयावह करने में योगदान दिया जिसकी जानकारी राज्य सरकार को पहले से रही है. 2018 में बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 177 औद्योगिक इकाईयों को कारण बताओ नोटिस जारी करने के साथ ही 3 चीनी मिलों से 20-20 लाख की बैंक गारंटी जमा करवाई. लेकिन नतीजा सिफ़त रहा. वास्तव में यह शुचिता का प्रदर्शन मात्र ही था, ठोस-ईमानदार कार्यवाही नहीं, क्योंकि परिस्थितियां और बदतर हुई हैं.
स्वच्छ पेयजल एवं प्रदूषण मुक्त जीवन प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है. रणजीत सिंह ब्रह्मजीत सिंह शर्मा बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में उच्चतम न्यायालय ने पर्यावरणीय अपकर्ष को को मानवाधिकार उल्लंघन के समतुल्य माना था. वही मेनका गाँधी बनाम भारत संघ मामले (1978) में उच्चतम न्यायलय ने स्वच्छ पर्यावरण- प्रदूषण रहित जल एवं वायु में जीने का अधिकार एवं हानिकारक उद्योगों के विरुद्ध सुरक्षा को मौलिक अधिकार माना था. इसी संबंध में संविधान समीक्षा हेतु गठित राष्ट्रीय आयोग (2002) ने भी हर व्यक्ति के लिए स्वच्छ, पीने योग्य पानी की उपलब्धता, पर्यावरण की रक्षा तथा प्रदूषण पर रोक को मूल अधिकार मानने की सिफारिश की थी.
संयुक्त राष्ट्र द्वारा संधारणीय विकास हेतु निर्धारित सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के 17 लक्ष्यों में 6वां लक्ष्य सभी के लिए स्वच्छ जल और स्वच्छता से संबंधित है. जिसका ध्येय सभी के लिए जल और स्वच्छता की उपलब्धता और सतत प्रबंधन सुनिश्चित करना है. एसडीजी रिपोर्ट (2020-21) के अनुसार राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों की सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय स्थिति पर प्रदर्शन के आकलन में भी बिहार का प्रदर्शन सर्वाधिक निम्न रहा था.
जल प्रदूषण एवं बाढ़ जैसी विकट समस्याएं बिहार के लिए हमेशा ही कष्टकारक रही हैं. लेकिन संविधान के प्रति सम्मान और सुशासन का दंभ भरने वाली महागठबंधन सरकार को ना संवैधानिक मूल्यों की चिंता है और ना जनता के मूलभूत अधिकारों की.पिछले 17 वर्षों में माननीय मुख्यमंत्री जी अगर जन-समस्याओं का समाधान नहीं कर पा रहे हैं तो ना सिर्फ उनकी नीति बल्कि नीयत में ही खोट है. बिहार की लगभग 15 करोड़ आबादी (2021 में भारत निर्वाचन आयोग द्वारा अनुमानित) का जीवन दांव पर लगाकर सरकार के मुखिया समाधान यात्रा में व्यस्त है. जरूरी है कि वे सत्ता की उठापटक से थोड़ा विश्राम लेकर जल-प्रदूषण संबंधी मूलभूत समस्याओं के निस्तारण पर ध्यान दें. ‘सुशासन एवं समाधान’ शब्दों और नारों में नहीं यथार्थ में भी दिखना चाहिए.