एक जुमला आम हो गया है। वह यह कि देश में अघोषित इमरजेंसी चल रही है। यह नया है। इससे पहले दस साल तक कांग्रेस के नेताओं ने लगातार भ्रमजाल फैलाया कि इमरजेंसी जैसे हालात बना दिए गए हैं। आजकल कांग्रेस को नई बात नहीं सूझी है। पुरानी बात को ही वे नये ढ़ंग से कह रहे हैं। हालांकि उनके दोनों जुमले का अर्थ बहुत ही अलग-अलग है। जो इमरजेंसी को जानते हैं, उन्हें पुराने और नये जुमले का बहुत साफ-साफ फर्क मालूम है। इमरजेंसी जैसे हालात का अर्थ अलग होता है लेकिन अघोषित इमरजेंसी का अर्थ बिल्कुल पहले से भिन्न है। इन दोनों में विपक्ष की राजनीति तो है लेकिन उससे ज्यादा उसका राजनीतिक अज्ञान भी है। इसे समझने और समझाने का यही ठीक समय है। क्योंकि इमरजेंसी का 49वां साल पूरा हुआ है और यह 50वां साल है। ऐसे में वे लोग थोड़े ही बचे हैं जो इमरजेंसी के शिकार हुए। अगर वह समुदाय होता तो कांग्रेस के नेताओं को सही जवाब देता।
जो अघोषित इमरजेंसी थी!
इस लेख में यह बताने का प्रयास है कि अघोषित इमरजेंसी क्या होती है। वह किस तरह का कहर ढा सकती है। किस प्रकार गैरकानूनी गिरफ्तारियां शासन और पुलिस कर सकती हैं। अघोषित इमरजेंसी का एक काला इतिहास है। वह अवैध गिरफ्तारियों का है। नागरिकों के मौलिक अधिकारों के सरासर हनन का है। नागरिक को तो छोड़िए, अघोषित इमरजेंसी से बड़े-बड़े नेता और पत्रकार भी नहीं बच पाए। उन्हें पुलिस ने बिना किसी वारंट के थाने बुलाया और फिर जेल भेज दिया। यह बात है, 25 जून की आधी रात की। वह 1975 का साल था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। उनके प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रधान थे, प्रोफेसर पी.एन. धर। वे 1971 में प्रधानमंत्री कार्यालय आए और वहां 6 साल तक इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव थे। वे एक विख्यात अर्थशास्त्री थे। उनकी अर्थशास्त्र के एक विख्यात विद्वान के रूप में बड़ी पहचान थी। उनका यश ही था जिसने इंदिरा गांधी को आकर्षित किया। जिससे वे प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रधान बन सके। उन्हें इंदिरा गांधी का विरोधी तो नहीं माना जा सकता। हां, यह कह सकते हैं कि वे उनलोगों में नहीं थे जो कांग्रेस का झंड़ा अपने कंधे पर लिये चलते थे। उनकी किताब, ‘इंदिरा गांधी, द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी’ से अघोषित इमरजेंसी के अनेक स्पष्ट संकेत मिलते हैं।
प्रो. पी.एन. धर ने 25 जून की उस रात का बहुत विस्तार से उल्लेख नहीं किया है। सिर्फ एक से दूसरी कड़ी जोड़ने के लिए उन्होंने रामलीला मैदान की उस सभा का थोड़ा उल्लेख किया है जिसमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने मुख्य भाषण किया था। जिसकी अध्यक्षता मोरारजी देसाई ने की थी। वह सभा विशाल थी। क्या उस सभा से इंदिरा गांधी डर गई थी? क्या सचमुच उनके घर को लोग घेर लेते और इंदिरा गांधी से इस्तीफा लिखवाते? ये प्रश्न इसलिए हैं क्योंकि उस रात को पुलिस ने जो गैरकानूनी गिरफ्तारियां कीं उनके लिए यही बहाना बनाया गया। यह एक तथ्य है कि इमरजेंसी लगाने के आदेश पर राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के एक सहायक ने हस्ताक्षर करवा लिया था। लेकिन बड़ा तथ्य यह है कि इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री निवास से अघोषित इमरजेंसी में गिरफ्तारियों के लिए निर्देश वे स्वयं दे रही थीं।
उनका निर्देश अघोषित इमरजेंसी का आधार बना। ऐसी कौन-सी आफत आ गई थी कि दिल्ली पुलिस ने उस रात को सोते हुए जयप्रकाश नारायण को जगाया और उस बूढ़े-युवा संत को गिरफ्तार कर लिया। क्या जयप्रकाश नारायण अगले
दिन उस भीड़ का नेतृत्व करने जा रहे थे। जिसकी कल्पना कर उन्हें गिरफ्तार किया गया। इसे आज इतने सालों बाद इसलिए जानना चाहिए क्योंकि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की तोप में बारूद स्वयं भरा और चलाया। वे अघोषित इमरजेंसी की अपराधी हैं। क्यों न उन पर हत्या, हिंसा, अत्याचार और निर्दोष लोगों का मनमाने तरीके से उत्पीड़न करने के अपराध में मुकदमा चलाया जाए! उस इंदिरा गांधी भक्तों ने आजकल अघोषित इरमजेंसी का अपना राग अलापना शुरू कर दिया है। इसलिए कि लोग भ्रमित हों और अभय की राजनीति में भय पैदा हो सके। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ जेपी ही गिरफ्तार किए गए। उस रात जो-जो लोग गिरफ्तार किए गए उनकी दास्तां ही अघोषित इमरजेंसी को समझने-समझाने के लिए काफी हैं। बहुत लोगों ने अपने संस्मरण लिखे हैं। लेकिन एक संस्मरण ऐसा है जो सबसे अलग है। वह है, ‘आधी रात कोई दस्तक दे रहा है’। यह नामी पत्रकार के.आर. मलकानी का संस्मरण है। वे प्रोफेसर से पत्रकार बने थे। उस समय अंग्रेजी दैनिक ‘मदरलैंड’ के संपादक थे।
उन्होंने लिखा है कि ‘अभी मैं सोया ही था कि ‘मल्कानी साहब! मल्कानी साहब!’ ‘आवाज सुनकर मैं अचंभित हुआ कि इस वक्त कौन पुकार रहा है? मैं उनींदा-सा उठा। रात गरम थी और मैं 25 जून वाले जे.पी. के ऐतिहासिक भाषण का देर रात तक संपादन करता रहा था। इसलिए जिस समय यह अटपटी दस्तक और अपने नाम की बेवक्त पुकार सुनी, मैं गहरी नींद में नहीं सोया था।
कौन हो सकता है इस वक्त? अर्जेंट तार? ऐसी किसी घटना से सामना करने के लिए मैं तैयार नहीं था। अक्सर इतनी रात में आने वाले तार मृत्यु या दुर्घटना के समाचार ही लाते हैं। कुछ ऐसी ही अनहोनी की स्थिति का सामना करने के लिए मैं उठा। तारवाला जैसे दस्तखत के लिए रसीद आगे बढ़ाता है, उससे बिल्कुल अलग तरह से दरवाजा खोलने को कहा गया और दरवाजा खुला तो मैंने देखा कि वहां कई लोग खड़े हैं। एक ने पूछा-
मलकानी साहब आप ही हैं।
मैंने कहा, जी हां।
उसने कहा, आपको थाने चलना पडेगा।
उस पल मुझे समझ में आ गया कि यह व्यक्ति की सिर पर खड़ी मृत्यु नहीं है, बल्कि यह सम्पूर्ण लोकतांत्रिक प्रणाली की भावी मृत्यु है। जो सामने खड़े हैं, वे तानाशाही के यमदूत हैं।’
के. आर. मल्कानी ने थाने चलने से पहले वारंट दिखाने को कहा। वह पुलिस अफसर के पास नहीं था। अपनी गिरफ्तारी का वर्णन करते हुए वे अपने संस्मरण में लिखते हैं कि ‘जिन लोगों के पास मुझे पकड़ कर ले जाने का कोई अधिकार नहीं था तो भला मैं उनके सामने आत्मसमर्पण कैसे कर सकता था? चूंकि कि इस समय जान दाव पर लगी हुई थी, इसलिए बिना वारंट उनके साथ जाने में मैंने असमर्थता जताई।’ तब क्या हुआ होगा, इसका आज वे लोग सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं जिन्होंने अघोषित इमरजेंसी की उस काली रात को नहीं देखा सुना है। के.आर. मल्कानी ने पुलिस वालों से सवाल पूछे। लेकिन वे परिस्थितियों से परिचित थे, इसलिए यह तो जानते थे कि पुलिस थाने जाना ही होगा। वे अपनी सुरक्षा के बारे में चिंतित थे। अनेक तरह की आशंकाएं थी। कारण यह था कि पुलिस जिसे कानून का रखवाला होना चाहिए वह कानून को तोड़ रही थी। वह वही कर रही थी जिसे न करने की अपील जेपी ने रामलीला मैदान के मंच से कुछ घंटे ही पहले की थी। यह देख के.आर. मल्कानी ने पुलिस वालों से कहा कि वे थाने चलेंगे, लेकिन किसी को साथ जरूर ले जाएंगे।
जैसे ही उनकी पत्नी दरवाजा खोलकर पड़ोसी को बुलाने जाने लगी कि देखा कि चारों ओर से पुलिस ने नाकेबंदी कर रखी है। उस रात दिल्ली में उनकी पहली गिरफ्तारी थी। एक संपादक से भारत सरकार तब क्यों भयभीत हो गई थी? यह प्रश्न आज भी उतना ही तरोताजा है जितना तब था। इसका उत्तर सीधा और साफ है। ‘मदरलैंड’ लोकतंत्र की आवाज था। उस मदरलैंड में रामलीला मैदान की पूरी रिपोर्ट छपी थी और वह बंटने के लिए तैयार थी। अपनी गिरफ्तारी पर के.आर. मल्कानी ने लिखा है कि ‘आधी रात में दरवाजों पर दस्तकों के बारे में पढ़ा था कि ये रूस में आम बात है, लेकिन मैंने इसे हमारे देश में भी सुना और अनुभव किया।’ वे रात डेढ़ बजे न्यू राजेन्द्र नगर पुलिस थाने ले जाए गए। उनके एक घंटे बाद भारतीय जनसंघ के उपाध्यक्ष डॉ. भाई महावीर गिरफ्तार कर वहां लाए गए। वे दोनों पहले से एक-दूसरे से परिचित थे। इस तरह के.आर. मल्कानी का मन शांत हुआ क्योंकि उनमें यह सहज भाव उभरा होगा कि वे अकेले नहीं हैं।
के.आर. मल्कानी हर मायने में असाधारण थे। उस समय के जितने बड़े नाम हम जानते हैं उनके समान थे। कई मायने में उनसे ऊंचे थे। ऐसा व्यक्ति अघोषित इमरजेंसी का जब अचानक शिकार होता है तो उसमें अपने जीवन की चिंता बहुत स्वाभाविक रूप से पैदा होती है। वही चिंता मन को भयग्रस्त करती है। इसका ही संकेत उनके इस वाक्य में है कि भाई महावीर के आ जाने से वे अनुभव कर सके कि असुरक्षा थोड़ी कम हुई। उन्हें न्यू राजेन्द्र नगर पुलिस थाने से वहां ले जाया गया जहां और बड़े-बड़े लोग लाये जाने थे। वह जगह थी, सिविल लाइंस पुलिस स्टेशन। तब सुबह नहीं हुई थी, ‘काफी अंधेरा था।’ वहां पकड़कर जो लाये गये, वे थे, बीजू पटनायक, पीलू मोदी, राजनारायण, चंद्रशेखर, समर गुहा, रामधन, मेजर जयपाल सिंह आदि। ये आज इतिहास पुरुष हैं। इनमें हर नाम से शायद ही कोई अपरिचित हो। लेकिन क्या हम जानते हैं कि चंद्रशेखर उस समय इंदिरा कांग्रेस के बड़े नेता तो थे ही, सबसे खास बात यह थी कि वे शिमला कांग्रेस में प्रधानमंत्री की मर्जी के खिलाफ कार्यसमिति सदस्य का चुनाव लड़े और जीते। यह वर्णन इसलिए यहां जरूरी है कि हम याद कर सकें कि अघोषित इमरजेंसी में वे भी पकड़े गए थे। उनको यह अनुमान था, लेकिन इसकी परवाह न कर वे गिरफ्तार जे.पी. से मिलने संसद मार्ग के थाने गए थे। के.आर. मल्कानी ने लिखा है, ‘हमें नहीं बताया गया कि हमें कहां ले जाया जा रहा है, आखिर हम रोहतक जेल पहुंचे, तब ही पता चला।
क्या हम जानते हैं कि चंद्रशेखर उस समय इंदिरा कांग्रेस के बड़े नेता तो थे ही, सबसे खास बात यह थी कि वे शिमला कांग्रेस में प्रधानमंत्री की मर्जी के खिलाफ कार्यसमिति सदस्य का चुनाव लड़े और जीते। यह वर्णन इसलिए यहां जरूरी है कि हम याद कर सकें कि अघोषित इमरजेंसी में वे भी पकड़े गए थे।