लोकतंत्र रक्षकों की ‘संविधान हत्या दिवस’ से वितृष्णा क्यों

शिवेंद्र सिंहलोकतान्त्रिक राष्ट्र की सम्पूर्ण जीवन-चर्या में संविधान आस्था का केन्द्र है. संविधान वो नियमावली है जिस पर राष्ट्र का सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक जीवन आधारित होता है. इसलिए संविधान का निरंतर राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में होना, वाजिब भी है और आवश्यक भी. लेकिन भारतीय राजनीति में स्थिति विषम है. यहाँ पिछले कुछ महीनों में देश के विपक्ष द्वारा संविधान ही चर्चा के केन्द्र में हैं जिसका आधार नकारात्मकता प्रसार है. ये नकारात्मकता भावनाओं की अस्थिरता से पैदा हुईं हैं. 
पिछले दो वर्षों विशेषकर लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान पूरे समय कांग्रेस नेतृत्व में विपक्ष संविधान  की सुरक्षा के नारे और भाजपा के द्वारा उसे परिवर्तित करने के षड़यंत्र के आरोप की राजनीति में उत्तेजित रहा. अब उसकी व्यग्रता ’25 जून’ क़ो ‘संविधान हत्या दिवस’ के घोषणा पर आधारित है. बताते चलें कि पिछले दिनों एनडीए सरकार ने आपातकाल के दौरान हुईं संविधान की अवमानना एवं अपमान के मद्देनज़र इस राष्ट्रीय दिवस की घोषणा की है लेकिन कल तक संविधान के सम्मान के लिए सड़क से संसद तक हंगामे क़ो आतुर विपक्ष अब इसके विरोध में उपद्रवी हो रहा है.
आपातकाल भारतीय संविधान की लोकतान्त्रिक यात्रा का सबसे दुःखद एवं क्षोभनाक पहलू है, इस तथ्य से  देश के किसी भी नागरिक क़ो कोई आपत्ति नहीं होगी. फिर उस दिवस के अशुभ पहलुओं से नई पीढ़ी क़ो सुपरिचित कराने से भी किसी कोई उज्र नहीं होना चाहिए लेकिन कांग्रेस क़ो है. आखिर क्यों?
इस देश की राजनीति वैचारिकी बड़ी अजीब है. जवाहरलाल नेहरू के ‘राष्ट्रीय चचा’ बनाकर उनके जन्मदिन (14 नवम्बर) क़ो बाल दिवस मनाया जा सकता है. गाँधी जी के जन्मदिन (2 अक्टूबर) क़ो अहिंसा दिवस घोषित किया जा सकता है. 26 नवम्बर क़ो संविधान दिवस मनाया जा सकता है फिर 25 जून क़ो लोकतंत्र हत्या दिवस घोषित करने में आखिर क्या आपत्ति हो सकती है, जिस तिथि क़ो इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने जम्हुरियत क़ो अपमानित करते हुए भारत में आपातकालीन तानाशाही थोप दिया था.
  ध्यात्वय है कि 25 जून, 1975 से 23 मार्च 1977 तक का कालखंड भारतीय जनतंत्र का संवैधानिक दृष्टि से अंधकार युग है जो कि मूलतः लोकतान्त्रिक मर्यादा के समक्ष वंशवाद क़ो तरजीह देकर सर्वसत्तावाद में परिवर्तित होने की व्यथा कथा है. इंदिरा गाँधी ने एक बार भारत के पूर्व राजा-महाराजाओं क़ो जन्म के बजाय कर्म आधारित प्रतिष्ठा पाने की नसीहत दे डाली थी लेकिन खुद उसी कुलीनतंत्रिय जन्मना सत्ता प्राप्ति के बूते आपातकाल में अधिनायकवादी व्यवस्था स्थापित करके अपने बेटे संजय क़ो लोकतान्त्रिक राजशाही सौंपने के फेर में पड़ी थीं. यानि ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे.’ वंश परंपरा के आधार पर कांग्रेस और सरकार पर कब्ज़ा करने वाली इंदिरा गाँधी अपने पिता जवाहरलाल नेहरू की भांति वामपंथी अधिनायकवाद की अवधारणा से प्रभावित थीं. आपातकाल के दौरान सिडनी मार्निंग हेराल्ड ने भी टिप्पणी की थी, ‘समाजवाद क़ो कामयाब बनाने के लिए नेहरू की बेटी ने सोवियत संघ की तरह राजनीतिक तानाशाही थोप दी है.
 आपातकाल के दौर में संविधान की धारा 19 को स्थगित करके धारा 14, 21 और 22 में प्राप्त आम भारतीयों के अधिकार को निरस्त कर दिया गया. सरकार के आलोचक एक लाख से अधिक नागरिकों क़ो मीसा एक्ट के तहत जेल बंदी बनाया गया और उनका पुलिसिया-प्रशासनिक उत्पीड़न हुआ. 25,000 हजार सरकारी कर्मचारियों क़ो जबरन सेवामुक्त किया गया. 4000 गरीब बस्तीयाँ नगरों के सौंदर्यीकरण के नाम पर उजाड़ दीं गईं. जनप्रतिनिधित्व क़ानून, 1951 क़ो  संविधान के 39 वें संशोधन के नाम पर बदल दिया गया. गुजरात एवं तमिलनाडु की गैरकांग्रेसी सरकारों क़ो बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशो के आधार पर 42वें संविधान संशोधन के जरिये 59 प्रावधानों क़ो परिवर्तित करने साथ ही इन्हें न्यायपालिका के समीक्षात्मक शक्ति के बाहर रखा गया.
प्रख्यात संविधानविद् आचार्य डी. डी. बसु कहते हैं, ”यहां 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा कांग्रेस सरकार ने संघ और राज्य के विधान मंडलों में अपने एकाधिकारी नियंत्रण का लाभ उठाकर संविधान में विस्तृत परिवर्तन किए जिनमें कुछ परिवर्तनों से उसकी नींव ही डगमगा गईं. इस संशोधन अधिनियम का प्रभाव इतना विस्तृत और प्रचण्ड था कि उसे संशोधन के स्थान पर पुनरीक्षण कहना अधिक सही होगा.” साथ ही न्यायपालिका की आतंरिक संरचना में राजनीतिक हस्ताक्षेप की कुत्सित परंपरा प्रारम्भ की गईं और ‘अपने अनुकूल’ न्यायधीशों क़ो आगे कर ‘कांग्रेस सत्ता के प्रति समर्पित’ न्यायपालिका की मांग की गईं. और ऐसे ना जाने कितने दुष्कर्म संविधान की मर्यादा के विरुद्ध किये गये.
ये सब हुआ और इसके एवज में एक प्रतीकात्मक दिवस की घोषणा किया जाना, जो कि इन कुकृत्यों  का प्रतीक बनकर वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों क़ो व्यक्ति पूजन की परम्परा, वंशवाद क़ो स्वीकारने जैसे अलोकतान्त्रिक तरीकों क़ो प्रश्रय देने के दुष्परिणामों से परिचित कराये, उससे सीख दे तो इससे पक्ष या विपक्ष, किसी क़ो भी क्यों समस्या होनी चाहिए?
ये दिन भारतीयों क़ो उनके संवैधानिक अधिकारों की महत्ता से परिचित करायेगा, ताकि भावी पीढ़ियां जान सकें कि उन्हें इस लोकतंत्र के स्वतंत्र-उन्मुक्त वातावरण में निर्द्वन्द जीने, श्वास लेने का अधिकार दिलाने के लिए उनके पूर्वजों ने कितनी तकलीफेँ सही हैं, कितनी यातनाएं झेली, कितना प्रताड़ित और अपमानित हुए हैं. संभवतः संविधान हत्या दिवस की प्रतिवर्ष प्रतीकात्मक बरसी भविष्य में संविधान संरक्षा का आधार बनेगी. इस दृष्टिकोण से तो यह दिवस बहुत पहले घोषित हो जाना चाहिए था.
 लेकिन संविधान हत्या दिवस की घोषणा के विरोध में विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस उत्तेजित है, क्रोधित है. उसकी आलोचना के कई आधार बिन्दु हो सकते हैं. जैसे कि विशेष दिवस मनाना पश्चिमी अवधारणा है. ठीक है, पर भारत का आधुनिक लोकतान्त्रिक स्वरुप तो वैसे भी ब्रिटिश के वेस्टमिंस्टर प्रणाली से प्रेरित वैदेशिक प्रतिरुप माना जाता है. और होने क़ो तो मदर्स डे, फादर डे, वैलेन्टाइन डे, विमेंस डे, ब्रेस्ट फीडिंग डे जैसे तमाम पश्चिमी विचार के अनुरूप दिवस मनाने क़ो देश के आवाम क़ो प्रोत्साहित किया ही जा रहा है जो भारतीय परंपरानुरूप नहीं है क्योंकि हमारी संस्कृति में प्रेम, आत्मीयता, माँ-पिता के प्रति सम्मान और माँ की ममता किसी दिवस विशेष की मान्यता के मोहताज नहीं हैं. फिर इसका विरोध करने वालों क़ो दकियानुसी और रूढ़िवादी कहकर कोसने वालों क़ो तो इन सनातन संस्कृति विरोधी और तथाकथित आधुनिकता के उपासक जमात क़ो संविधान हत्या दिवस का नैतिक रूप से स्वागत करना चाहिए.
साथ ही विपक्ष को इस पश्चिमी परंपरा से इसलिए भी परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि विपक्ष के वर्तमान सदन के नेता जैविक रूप से अर्ध विदेशी (आधे भारतीय और आधे इटैलियन ) और उनकी मुक्तिदात्री और कांग्रेसियों की ‘राजमाता’ तथा वामपंथी चाटुकारों की ‘जगतमाता’ सम्पूर्ण रूप से विदेशी (इटैलियन) हैं, फिर दिक्कत कहां है?
 वैसे हरिशंकर परसाई लिखते हैं, ‘दिवस कमजोर का मनाया जाता है, जैसे महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मजदूर दिवस. कभी थानेदार दिवस नहीं मनाया जाता.’ ये भी सही है. क्योंकि इंदिरा गाँधी के अधिनायकवादी कालखंड में संविधान भी तो कमजोर ही था, कमोबेश उसकी हत्या ना हुईं हो लेकिन नेहरू की बेटी ने उसे मरणासन्न अवस्था में तो पहुँचा ही दिया था.
इस विरोध के बनिस्बत कांग्रेस की और भी समस्याएं हैं. आजाद भारत के नागरिकों क़ो शिक्षण संस्थानों से लेकर राजनीतिक संस्थाओं के माध्यम से नेहरू महान, इंदिरा गाँधी देवी का अवतार, पूरा वंश देवतुल्य जैसे भ्रामक नारों के ‘यूटोपिया’ के बौद्धिक परिवेश का बन्दी बनाये रखा गया. इस भ्रम प्रसार की निकृष्टता इस स्तर की है कि नेहरू के कुंठित एवं खंडित व्यक्तित्व क़ो ‘लाइट ऑफ़ एशिया’ सिद्ध करने के लिए वामपंथ एवं छद्म गाँधीवाद, वैचारिक वेश्यावृत्ति के स्तर पर उतर आई ताकि परितोषिक के रूप में विश्वविद्यालयों, साहित्यिक संस्थानों, सरकारी फेलोशिप के माध्यम से विदेश प्रवास जैसे सुविधाएं प्राप्त की जा सकें. इन बिकाऊ बौद्धिक भाडों और चरण चाटुकारों की वैचारिक सुविधा बाद में इंदिरा से राहुल गाँधी तक वंशवादी भक्ति के रूप में प्राप्त रहीं हैं. इंदिरा गाँधी के आपातकालीन कुकृत्यों क़ो ‘अनुशासन पर्व’ एवं जेपी कि अव्यवस्था प्रसार के प्रयास का प्रतिकार बताने से लेकर एनटोनियो माईनो (परिवर्तित नाम सोनिया गाँधी) क़ो त्यागी नारी और राहुल गाँधी जैसे वैचारिक रूप से अपरिपक्व व्यक्ति में राष्ट्रीय नायक तलाशने के बौद्धिक षड़यंत्र इसी का उदाहरण है. 
 यही कारण है कि देश के सार्वजनिक वैचारिक वातावरण में नेहरू-गाँधी परिवार की आलोचना क़ो बौद्धिक पाप समझा जाता रहा. लेकिन 2014 में जनता के राजनीतिक नवोन्मेष ने इस बौद्धिक अन्याय का भ्रम भी तोड़ दिया और इस अधिनायकवादी अर्बुद से ग्रस्त एवं सनातन धर्म विरोधी, छद्म पंथनिरपेक्ष एवं राजनीतिक षड़यंत्रकारी परिवार के कुकर्मों की ना सिर्फ कलई खुलने लगी बल्कि जनता की लानत-मलानत भी मिलने लगी. पिछले एक दशक में महानता के इस छद्म आभामण्डल के ढहने के पश्चात् अब यह परिवार अपने प्रतिभाहीन पीढ़ी के राहुल गाँधी, प्रियंका वाड्रा के माध्यम से अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता क़ो कायम रखने की अनवरत कोशिशों में लगे हैं. जातिगत जनगणना, पीडीए फार्मूला, संविधान की रक्षा जैसी नारेबाजी उसी त्वरा का परिणाम है.
प्रेमचंद लिखते हैं, ‘कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परंपरा से सहते आये हैं.’ इसी अनुरूप पिछले सात दशकों में नेहरू वंश की महानता पर केवल इसलिए प्रश्नचिन्ह नहीं लगाना चाहिए कि इनके पास परम्परागत या यूँ कहें की जन्मजात विशिष्टता का आवरण है. इस तथ्य का निर्धारण अब आम जन की विश्लेषण क्षमता के हवाले कर देना चाहिए ताकि वह इतिहास के तर्क के बूते अपना दृष्टिकोण सुनिश्चित कर सके. और सुखद है कि वर्तमान में ऐसा हो भी रहा है.
अब कांग्रेस के अन्य आरोपों की भी सुध ले लेते हैं. जैसे कि सरकार का यह निर्णय राजनीति से प्रेरित है. तब तो कहना पड़ेगा कि राजनीति तो सर्वत्र है. कांग्रेस का संविधान की रक्षा और भाजपा द्वारा संविधान को बदलने और मिटाने का आरोप भी तो राजनीति से ही प्रेरित है. तब यदि आप भाजपा सरकार पर अनर्गल आरोपों के साथ राजनीतिक घात कर सकते हैं तो फिर वे भी आपके आरोपों पर प्रतिघात कर सकते है. यानि पिछले दो सालों से लेकर चुनाव तक आप जो विपक्ष की भूमिका में कर रहे थे अब वो सत्ता पक्ष वाले कर रहे हैं. फिर राजनीतिक प्रतिउत्तर पर कांग्रेस क़ो इतनी व्यग्रता क्यों हो?
अन्यत्र, कांग्रेस भाजपा सरकार के इस निर्णय क़ो ‘हिपोक्रेसी’ कह रही है. उसका आक्षेप है कि आज भाजपा सरकार में तानाशाही है, वगैरह-वगैरह. वैसे इस आरोप को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि उसके आरोप में ही इसका उत्तर भी है. यदि वर्तमान भाजपा और संघ की विचारधारा से प्रेरित सरकार इंदिरा गाँधी की भांति सर्वसत्तावादी होती तो ये सारे विपक्षी अब तक जेलों में टंगे होते या पुलिस थानों में कूट रहे होते, ना कि अपने वातानुकूलित घर-दफ़्तरों से बैठकर सरकार क़ो गलियां देते हुए कोस रहें होते.
 हालांकि कांग्रेस विरोध कर रही है क्योंकि संविधान हत्या दिवस की उद्घोषणा उसकी छद्म संविधान संरक्षा के दावों के नग्न यथार्थ के प्रकटीकरण का माध्यम बनने के साथ ही उनके झूठे और भ्रामक प्रचार की भित्ति के ढह रहे महानता के आवरण पर एक करारी चोट होगी, तो उसका विरोध समझा जा सकता है. लेकिन सपा, राजद जैसे अन्य दलों के विरोध क़ो समझना कठिन है क्योंकि उनका राजनीतिक अस्तित्व ही आपातकालीन संघर्ष की विभीषिकापूर्ण वेदी पर निर्मित है. इनकी वैचारिकी का धरातल गैर-कांग्रेसवाद रहा है जिसका ध्येय लोकतंत्र क़ो कांग्रेस के एकाधिकार से संरक्षित करना रहा था.
परन्तु इस देश की राजनीति में वैचारिकी हीनता एक बड़ा संकट है जहाँ समर्थन और विरोध की मर्यादा ही निर्धारित नहीं है. इतिहास के प्रवाह को व्यक्ति या घटना केंद्रित रूप से मूल्यांकन करने का प्रयास एक सामान्य प्रवृत्ति है. लेकिन इसके बीच जिस मूल तर्क को केन्द्र में रखना चाहिए वह अकसर दोयम दर्जे का मसला हो जाता है जबकि उसे पार्श्व में स्थित इस वैचारिक प्रवाह को अनदेखा कर दिया जाता है. अगर आपातकाल विरोधी दिवस की घोषणा अराजकतावाद है, जैसा कि विपक्ष का आरोप है, तो अखिलेश, तेजस्वी यादव जैसे राजनीतिक वंशवाद की उपज वाले नेताओं को बताना चाहिए कि क्या मुलायम सिंह और लालू यादव अराजकतावादी रहे हैं?
 ख़ैर, जनसाधारण इतिहास क़ो ग्रंथों से जाने ये जरुरी नहीं होता. अतीत के संबंध में आम जनता के मस्तिष्क में एक अवधारणा निरुपित रहती है और यह अवधारणा सत्य हो अथवा मिथ्या, उसके राजनीतिक-सामाजिक विचारों को निर्धारित करती है. असल में संविधान हत्या दिवस की घोषणा भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास द्वारा इस राजनीतिक परजीवी परिवार के वास्तविक चरित्र से परिचित करायेगा और नई पीढ़ियों को ये शिक्षा देगा कि व्यक्ति पूजन की मानसिक विकृति किस प्रकार उनके स्वतंत्रता, नैसर्गिक अधिकारों एवं मानवीय गरिमा को आघात पहुँचा सकता है.
 डेवि के अनुसार, ‘अतीत पर निष्ठा अतीत के लिए नहीं, अपितु सुरक्षित एवं सुसम्पन्न वर्तमान के लिए इस उद्देश्य से की जाती है कि सुखद एवं सुन्दर भविष्य का निर्माण करेगा.’ आपातकाल के दौर में उभरी तानाशाही प्रवृत्ति के अनुभव क़ो राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक अवसाद एवं संवैधानिकअस्तित्व के संकटपूर्ण कालखंड के रूप में उसे प्रतिवर्ष याद करने, उससे नई पीढ़ी क़ो शिक्षित एवं जागरूक करने के प्रयास के रूप में संविधान हत्या दिवस के राष्ट्रीय तिथि के रूप घोषित किया जाने का निर्णय अभिनन्दनीय है. विपक्ष क़ो इसका स्वागत कर आम आवाम क़ो अपनी सकारात्मक राजनीति का सन्देश देना चाहिए.

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