भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत राजद्रोह एक अपराध है.जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति द्वारा सांकेतिक, वाचन, लेखन अथवा किसी अन्य माध्यम से संवैधानिक सरकार के विरुद्ध विद्रोह या अवमानना जाहिर करना या करने के प्रयास को अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है जिसके लिए तीन साल से लेकर अधिकतम सजा उम्रकैद एवं जुर्माना हो सकता है. पिछले दिनों विधि आयोग ने अपनी 279वीं रिपोर्ट में धारा-124ए के बने रहने की सिफारिश की. साथ ही इसके इस्तेमाल हेतु अधिक स्पष्टता के लिए कुछ संशोधन किए जाने सकते हैं.आयोग ने केंद्र सरकार से इसके दुरूपयोग को रोकने के लिए मॉडल गाइडलाइन्स जारी करने के साथ ही निर्धारित न्यूनतम सजा को तीन से बढ़ाकर सात वर्ष करने के सुझाव भी दिये.
आयोग के अनुसार प्रत्येक देश की क़ानूनी प्रणाली अलग-अलग तरह की वास्तविकताओं से जूझती है. 124ए को केवल इस आधार पर निरस्त करना कि कुछ देशों ने ऐसा किया है, निश्चित रूप से भारत की जमीनी हकीकत से आँखें मूंद लेना होगा. 22वें विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति ऋतुराज अवस्थी का कहना है कि किसी प्राविधान के दुरूपयोग का आरोप उसे वापस लेने का आधार नहीं हो सकता. और ना ही औपनिवेशिक विरासत होना भी इसे वापस लेने का वैध आधार है. इसके अतिरिक्त UAPA और NSA जैसे कानूनों के होते हुए 124A की प्रासंगिकता पर विधि आयोग की दलील है कि राजद्रोह क़ानून का प्रयोग उस दशा में होता है ज़ब आतंरिक हिंसा द्वारा देश को अस्थिर करने या निर्वाचित सरकार को असंवैधानिक तरीके से हटाने का प्रयास किया जा रहा है. और ऐसे मामलों में UAPA और NSA का प्रयोग नहीं होता.
प्रथम दृष्टतया आयोग के तर्क उचित प्रतीत हो रहें हैं. किसी भी क़ानून की उपादेयता का निर्धारण उसके प्रवर्तित कालखंड के आधार पर नहीं बल्कि उसकी वर्तमान प्रासंगिकता के आधार पर किया जाना चाहिए. यदि किसी निर्धारित अपराध के लिए ऐतिहासिक दंडविधान वर्तमान की कसौटी पर खरा उतर रहा हो तो उसे बनाये रखने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
साथ ही दुरूपयोग जैसे तर्क तो क़ानून ही क्यों बल्कि सत्ता, शक्ति, पद, धन-संपदा सभी के लिए उपयुक्त हैं. जैसे रिवाल्वर का अविष्कार साल 1836 में सैमुअल कोल्ट द्वारा फसलों को जानवरों से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए किया गया लेकिन फिर इससे इंसानों की हत्याओं का प्रयोजन सिद्ध होने लगा.यही क्यों, दहेज प्रतिषेध अधिनियम तथा 1961,दहेज प्रतिषेध (वर-वधु भेंट सूची) नियम, 1985 जैसे क़ानूनों का उदाहरण प्रत्यक्ष है, जिनके वधु पक्ष शत्रुतापूर्ण प्रयोग द्वारा कितने ही परिवारों को बर्बाद कर दिया गया. कितने ही निर्दोष युवक इसकी भेंट चढ़कर जेलों में सड़ते रहे.
नारीवाद के नाम पर क़ानूनों के मार्फ़त पुरुषों की प्रताड़ना सामान्य सी बात हो चुकी है. हाल ही में दिल्ली तीस हजारी कोर्ट ने सामूहिक दुष्कर्म का फर्जी मुकदमा दर्ज कराने के लिए एक महिला अधिवक्ता के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कराने का आदेश दिया. इसी प्रकार मनीष बनाम महाराष्ट्र राज्य तथा अन्य मामले बंबई उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी रुचिरा मेहरा पर बलात्कार का झूठा मुकदमा दर्ज कराने के आरोप आई.पी.सी. की धारा 195(1) के तहत शिकायत दर्ज कराई. 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘कैनी राजन बनाम केरल राज्य’ मामले में इसपर चिंता जताई थी. बल्कि अगस्त 2021 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसे फर्जी मामलों के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की कि, ‘दुष्कर्म के झूठे मामलों में ख़तरनाक वृद्धि हो रही है. केवल अभियुक्त पर दबाव डालने और उन्हें शिकायतकर्ता की मांगों के आगे झुकने के लिए ये मामले दर्ज किए जा रहे हैं.’ अतः दांडिक क़ानूनों के सटीक एवं निरपेक्ष प्रयोग की प्रत्याभूति (गारन्टी) देना संभव नहीं है.लेकिन ऐसे प्रमाणिक उदाहरणों के बावजूद भी इन क़ानूनों के निरसन की माँग तो नहीं की गई.
अजीब विडंबना है कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस 124ए क़ानून के विरोध में आरोप लगा रही है कि सरकार इस कदम से अपनी औपनिवेशिक मानसिकता का परिचय दे रही है तथा इसका गलत इस्तेमाल विरोधियों के खिलाफ किया जाएगा. लेकिन इससे पूर्व कांग्रेस को इतिहास के उस दौर के पुनरावलोकन की जरुरत है ज़ब महात्मा गाँधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी पं.जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत में इस विषबीज का आरोपण किया था.
ऐतिहासिक रूप से इस कानून को 17वीं शताब्दी में ब्रिटेन में अधिनियमित किया गया था ताकि राजशाही के विरुद्ध नकारात्मक विचार रखने वालों के सार्वजनिक अभिव्यक्ति को सीमित किया जा सके. ब्रिटिश भारत में मूलतः इसका मसौदा 1837 में लार्ड मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, किंतु धारा 124A को 1870 में जेम्स स्टीफन द्वारा पेश किये गए एक संशोधन द्वारा जोड़ा गया था.
इस क़ानून के तहत ब्रिटिश काल में राजद्रोही भाषणों, लेखन और गतिविधियों के लिये लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी से लेकर भगत सिंह तक को दोषी ठहराया गया था. अतः ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति की ओर अग्रसर भारत इस पर सजग था. संविधान सभा में इस क़ानून की प्रासंगिकता पर लंबी बहस हुई. जिन मौलिक अधिकारों के लिए उसने 1985 से संघर्ष शुरू किया था. जिसके लिए मोतीलाल नेहरू ने 1925 में केंद्रीय असेंबली में विधेयक प्रस्तुत किया था, नेहरू रिपोर्ट (1928) प्रकाश में आई और 1929 में रावी के तट पर संकल्प लिया गया, उसके लिए हर रुकावट का शमन करने के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व तत्पर था. प्रारूप समिति के सदस्य के.एम.मुंशी का कहना था, ‘लोकतांत्रिक भारत में जनता की आलोचना और असहमति का सम्मान होना चाहिए.’ इस तरह राजद्रोह क़ानून निरसित कर दिया गया.
परंतु इसे पुनः जीवित किया गया. वरिष्ठ पत्रकार श्री रामबहादुर राय की सुप्रसिद्ध किताब ‘भारतीय संविधान:अनकही कहानी’ इसका प्रमाणिक विवरण प्रस्तुत करती है कि कैसे स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं.नेहरू की शह पर औपनिवेशिक क़ानूनों की पुनरावृति हुई. असल में तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में पं.नेहरू के सर्वाधिकारवादी मानसिकता के विरुद्ध संविधान दीवार बन रहा था. नेहरू प्रेस एवं विरोधियों की आलोचना को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री डॉ. विधानचंद्र राय को लिखे पत्र में उन्होंने स्वीकार किया कि यदि संविधान कांग्रेस की नीतियों के विपरीत जाता है तो उसे बदलकर और अनुकूल बनाया जाना चाहिए. इसी अनुरूप 12 मई 1951 को नेहरू स्वयं संविधान संशोधन का प्रस्ताव लेकर आए. अपने अधिनायकवादी रवैया को उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा विदेशों से संबंध और जनहित जैसे परिष्कृत एवं गूढ़ शब्दों के आवरण में रखा.
उस समय ह्रदयनाथ कुंजरू ने सेंसरशिप के क्रूर-काले इतिहास का उल्लेख करते हुए कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती देकर स्वतंत्र भारत में आईपीसी की धाराओं 124(क) तथा 153(क) को पुनः लागू करने का औचित्य पूछा. भारतीय प्रेस ने भी इसे अलोकतांत्रिक बताकर कड़ी निंदा की. तत्कालीन जनसंघ अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 16 मई 1951 को अपने भाषण में कहा, ‘नेहरू सरकार ने संविधान के मौलिक सिद्धांतों को पलट दिया है जिससे नागरिक स्वतंत्रता में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ेगा.’ ये आशंका सही साबित हुई.
ज़ब अंग्रेज़ी साप्ताहिकों ‘क्रास रोड्स’ द्वारा सेलम (तमिलनाडु) जेल गोली कांड के विरुद्ध तथा ‘ऑर्गेनाइजर’ द्वारा 1948 के भारत-पाक समझौता एवं 1950 के नेहरू-लियाकत समझौते की विफलता के खिलाफ जबरदस्त अभियान चलाने के कारण तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा इनके विरुद्ध सेंसरशिप लागू करने का प्रयास हुआ, जिसमें प्रतियाँ जब्त करने और उनके वितरण पर रोक लगाने, हर अंक के प्रकाशन से पूर्व सरकार से अनुमति लेने का आदेश देने, प्रतियाँ जब्त करने, वितरण पर रोक लगाने का प्रयास हुआ. जिसके बाद इन्हें सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ी. इस तरह स्वतंत्रता भारत में संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के हनन की सत्ता समर्थित प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जो बदस्तूर जारी रही.
होना तो यह चाहिए था कि ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति के पश्चात् भारत को हर औपनिवेशिक विरासत से भी मुक्ति की दिशा में बढ़ना था किंतु विडंबना यह है कि राष्ट्र इसे गौरवान्वित रूप से ढ़ोता रहा, चाहे वह ब्रिटिश नौकरशाही, उनकी संसदीय व्यवस्था हो या अंग्रेजी क़ानून हो. स्वतंत्र भारत में सत्ताधारी वर्ग की औपनिवेशवादी मानसिकता बनी रही. किंतु फिर भी प्रश्न मौजूँ है, ऐतिहासिकता के सन्दर्भ क्या वर्तमान की पूर्ण व्याख्या में सक्षम हैं? यदि इन ऐतिहासिक निर्णयों को ना स्वीकारें तब क्या सहभागी लोकतंत्र में ऐसे क़ानूनों की आवश्यकता है? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कठोर क़ानूनी कार्यवाही का भय उसे कुंठित करने का प्रयास नहीं माना जाना चाहिए?
भारत में राजनीतिक सत्ता का विरोधियों की प्रताड़ना में किये जाने का लंबा इतिहास रहा है. 1950 के दशक से राजनीतिक प्रतिशोध की परंपरा अब तक जारी है.ज़ब दांडिक क़ानूनों का प्रयोग राजनीतिक-सामाजिक विरोध को दबाने के लिए भी किया गया.इसका सर्वप्रमुख उदाहरण आपातकाल है ज़ब बाकी विरोधियों के अलावा लोकनायक जेपी तक नहीं बक्शे गए. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या वृहद रूप में मौलिक अधिकार प्रत्यक्षतः 124ए जैसे क़ानूनों का कोप भाजन बनते रहे. अतः तस्वीर का दूसरा पहलू अधिक बदरंग है.लेकिन न्यायपालिका ने मौलिक अधिकारों के संरक्षण का अपना दायित्व बखूबी निभाया.
मई,1953 में बेगूसराय में एक रैली को सम्बोधित करते हुए कम्युनिस्ट नेता केदारनाथ सिंह ने अमर्यादित भाषा का प्रयोग करते हुए सुरक्षाकर्मियों एवं कांग्रेस नेतृत्व को ‘कुत्ता एवं गुंडा’ कहा. बिहार सरकार द्वारा दर्ज मुक़दमे में उन्होंने न्यायालय की शरण की जिस पर केदारनाथ सिंह को राहत देते हुए मुख्य न्यायाधीश बीपी सिन्हा की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ (1962) ने निर्णय दिया कि, ‘राजद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा या असंतोष या फिर सामाजिक आक्रोश बढ़े.’ अर्थात् सरकार की आलोचना राजद्रोह नहीं है.
इसके अतिरिक्त ऐसे कई मामलों में विभिन्न न्यायालयों द्वारा इस क़ानून की संवैधानिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाये गये एवं इसके स्पष्टीकरण पर जोर दिया. यथा तारासिंह गोपीचंद बनाम राज्य (1951) मामले में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय, रामनंदन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1959) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय, बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य (1995) मामले में सर्वोच्च न्यायालय. जून 2021 में दो तेलुगू भाषी समाचार चैनलों टीवी 5 और एबीएन आंध्र ज्योति के विरुद्ध आंध्र प्रदेश सरकार की कार्रवाई से बचाते हुए उच्चतम न्यायालय ने देशद्रोह की सीमा को परिभाषित करने की बात की.इसी सन्दर्भ में जुलाई,2021 को उच्चतम न्यायालय ने ब्रिटिशकालीन दमनकारी क़ानून को अब तक जारी रखने के औचित्य पर प्रश्न उठाया. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा ने इस कानून के गलत इस्तेमाल की चिंता जाहिर करते हुए इसे बनाये रखने को दुर्भाग्यपूर्ण माना. पुनः मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की कि, धारा 124ए को तब तक प्रभावी रूप से स्थगित रखा जाना चाहिए जब तक कि केंद्र सरकार इस प्रावधान पर पुनर्विचार नहीं करती. अतः सरकारें भले असमंजस में रही हों परन्तु न्यायपालिका की दृष्टि सदैव इस विषय पर स्पष्ट एवं जनभावना के साथ थीं कि इस क़ानून के दोष इसके गुणों से अधिक स्थूल है.
अब प्रश्न है कि जहाँ एक तरफ देश के विभाजन की माँग करने वाले विखंडनवादी हैं उनके सरपरस्त विदेशी आका हैं तो दूसरी तरफ आतंरिक उपद्रव का प्रसार करने में संलग्न माओवादी और उनके बौद्धिक साथ एवं आंतकी गतिविधियों के संचालक एवं उनके समर्थक मौजूद हैं और ये सभी प्रभावी भी हैं, तब क्या ऐसे समय में ज़ब देश विखंडवादी नकारात्मकता से जूझ रहा हो तब व्यक्तिवादी स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्रीय हित दांव पर लगा दिये जाने चाहिए? नहीं बिलकुल भी नहीं. ‘स्वतंत्रता’ को सामाजिक आत्मसंयम से संयुक्त और सामान्य प्रसन्नता के लिए सर्वाधिक लोगों की स्वतंत्रता के अधीन होना चाहिए (एस.एस.बोला बनाम बी.डी.सरदाना, 1997, 8 एस.सी.सी.522 ).संविधान प्रदत्त एवं संरक्षित नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ ये नहीं कि उसकी अभिव्यक्ति राष्ट्रविरोधी एवं सामाजिक रूप से विघटनकारी हो. तब विकल्प क्या है?
जैसा कि संविधानविद् श्री रामबहादुर राय सुझाव देते हैं, ‘विधि आयोग क्या कहता है ये उतना महत्वपूर्ण नहीं है. विधि आयोग ने जो सिफारिश की है वह गलत है, पहली बात. विधि आयोग ने ऐसी सलाह क्यों दी, ये वही जाने. लेकिन न्याय यही है कि राजद्रोह से सम्बंधित आईपीसी और सीआरपीसी की जो-जो औपनिवेशिक कालीन धाराएं हैं, उनको समाप्त किया जाना चाहिए. रही बात राजद्रोह जैसी कोई गतिविधि में संलिप्तता की तो उसके लिए उचित है कि सरकार संसद में अलग से क़ानून ले आये. उसमें तो कोई समस्या नहीं है.’ राय साहब की सलाह महत्वपूर्ण है. एक उदयीमान राष्ट्र के स्वर्णिम भविष्य के लिए क़ानूनों का निर्धारण राष्ट्रीय आवश्यकताओं एवं भविष्योन्मुख चुनौतियों पर आधारित होना चाहिए औपनिवेशिक तर्कों पर नहीं.