दुनिया के जिस भूभाग ने सर्वाधिक समय तक समृद्धि और संस्कृति का अखंड प्राहव देखा है, उसका नाम भारत है। इस भारत की तासीर भारतीयता या हिन्दुत्व के नाम से अभिव्यक्ति होती है। यहां ध्यान रखना होगा कि हिन्दुत्व का अर्थ गुणवाचक है। इसे यदि स्पष्ट करना हो तो हम इसकी पांच विशिष्टताएं गिना सकते हैं।
- सभी उपासना पद्धतियों प्रति आदर
- सर्वात्मैक्य का सिद्धांत अर्थात जड़ हो या चेतन, सभी में एक ही सत्य समाविष्ट हैं। यह समझ भारतीय मानस में गहरे अंकित है। अध्यात्म का उत्सव भी यही है।
- मनुष्य प्रकृति का विजेता नहीं बल्कि वह अंगांगी भाव से प्रकृति का हिस्सा है। इसलिए पारिस्थितिकी से मेल बिठाते हुई आर्थिक-सामाजिक-प्रौद्योगिकी युक्त संरचना ही समाज के सर्वांगीण विकास के लिए अभीष्ट है। सम्पूर्ण सृष्टि कुल मिलाकर एक सांगोंपांग व्यवस्था है। इसका आदर करना भारत के स्वभाव में रचबस गया है।
- मातृत्व के प्रकृति प्रदत्त गुण को धारण करने के कारण महिला को समाज में विशेष आदर का स्थान दिया गया है।
- खाओं पियो मौज करो और मर जाओ की जीवनशैली का भारत ने कभी समर्थन नहीं किया। चतुर्विध पुरूषार्थ की सिद्धि ही भारतीय समाज का अभीष्ट है। मुठ्ठी बांधे आए थे, हांथ पसारे जाएंगे का ज्ञान भारत को सहज ही प्राप्त है। इसे ही बहुविध तरीके से हिन्दुत्व में अभिव्यक्त किया गया है।
पिछले हजारों वर्षों में हिन्दुत्व का जीवन दर्शन विकसित हुआ उसमें नदियों की बड़ी भूमिका रही है। आज के बदले समय में हिन्दू जनमानस नदियों को कैसे देखता है और वह उसे लेकर कितना सजग है, इसे देखने समझने के लिए वर्ष 2020-21 में मैने गंगा यात्रा अध्ययन प्रवास, मां नर्मदा की परिक्रमा और यमुना मैया की दर्शन यात्रा संपन्न की। इसके पहले वर्ष 2007 में मैने गंगा सागर से गंगोत्री तक की यात्रा की थी। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से गंगाजी लगभग 40 करोड़ मनुष्यों के जीवन का आधार हैं। लेकिन उनका स्वयं का आधार गंगोत्री के 30 किमी के इलाके में फैले ग्लौशियर हैं। 1935 से 2022 के बीच ये ग्लेशियर पिघलकर 1700 मीटर पीछे जा चुके हैं। ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार जिस तेजी से बढ़ रही हैं, वह बहुत बड़ी चिंता का कारण है।
लेकिन लगता है कि लोग नदियों के समक्ष संकट के प्रति निरपेक्ष से हो चले हैं। अभी भी भावनात्मक लगाव है लेकिन व्यवहारिक धरातल पर नदियों के पक्ष में मनस के परिमार्जन की संभावना कम होती दिख रही है। चारों ओर भौतिकवाद, बाजारवाद से उत्पन्न शोरगुल में नदियों की आवाज दबती जा रही है। हर तरीके से बाजारवाद हावी होने की कोशिश कर रहा है। इन सभी बातों से यही निष्कर्ष निकलता है कि विकास के हमारे प्रचलित फार्मूले में गड़बड़ है। जो कुछ चल रहा है या चलाया जा रहा है, वह भारत की तासीर से बेमेल है।
भारत की तासीर का तकाजा है-सुखस्य मूलं धर्म:, धर्मस्य मूलं अर्थ: । अर्थस्य मूलं राज्य, राज्यस्य मूलं इंद्रिय जय।। हजारों वर्ष से भारत का समाज इस सूत्र पर चलता आया है। किंतु विगत कुछ वर्षों से बाजारवाद ने इसे बदल दिया है। अब धर्म का परित्याग करते हुए सुखस्य मूलं अर्थ: स्वीकार कर लिया गया है। अर्थ में ही सुख है, इस भ्रामक सोच के कारण परार्थ, परमार्थ, नैतिकता, परदुखकातरता आदि भावों को तिलांजलि दे दी गई है। वास्तव में ये अल्पकालिक सुख और दीर्घकालिक दुख का प्रस्ताव है। अगर कोई 20 वर्ष की समयसीमा के बदलाव और 50 वर्षों के मानक को आधार बनाकर सुख-दुख की बैलेन्स सीट तैयार करे तो यह प्रस्ताव घाटे का सौदा नजर आएगा।
परंपरागत रूप से भारत सर्वात्मैक्य के दर्शन से संचालित होता आया है। सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक धरातल पर भारत पूरे विश्व को एक परिवार मानता आया है। यहां भी संस्कृतिक का बोलबाला रहा है। सुखस्य मूलं अर्थ: की बाजारवादी सोच में विश्व केवल एक बाजार है। चूंकि मानव सुद्ध रूप से भौतिक प्राणी नही है, इसलिए सर्वात्मैक्य की भावना भी यदा कदा जोर मालती देखी जा सकती है। यह अपवाद है किंतु उपयोगी है। विगत 500 वर्षों से सुख की जो भ्रामक अवधारणा व्याप्त है, उस आधार पर सृष्टि में सुख, शांति, स्थिरता और आनंद का अखंड साम्राज्य स्थापित नहीं किया जा सकता है। 500 वर्षों की यात्रा के बाद आज मनुष्यता चौराहे पर हक्की बक्की खड़ी नजर आती है। यात्रा में भटकाव का हल्का हल्का एहसास लोगों को हो रहा है। इसलिए धीरे-धीरे अधिष्ठान बदल रहा है। मानव केन्द्रित सुखोद्देश्य को विकास का पर्याय मानने की मानसिकता सवालों के घेरे में आ रही है।
अब समय आ गया है जब मानव केन्द्रित विकास की अवधारणा को विकारग्रस्त घोषित करते हुए उसे कालबाह्य मान लिया जाए। उसके स्थान पर प्रकृति और संस्कृति की ओर प्रयाण किया जाए। सुखोद्देश्य से किए जा रहे धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक पहलुओं का अधिष्ठान बदलना चाहिए। इस संदर्भ में भारत को पहल करनी चाहिए। क्योंकि अभी भी सर्वतोन्मुखी समृद्धि के मामले में भारत अन्य देशों से आगे है।
अगर भारत का जन अपने मूल अधिष्ठान को पहचान ले तो वह सहज ही मानव केन्दित विकास के स्थान पर प्रकृति केन्द्रित विकास को अपनाकर आगे बढ़ जाएगा। भारत ही वह भूमि है जहां जल, जांगल, जमीन, जीव सहित पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं से तालमेल बिठाते हुए एक युगानुकूल जीवन पद्धति का सूत्रपात हो सकता है। इसके लिए धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता आदि में आत्म परिष्कार की जरूरत है। संक्षेप में कहें तो यही व्यवस्था परिवर्तन की यात्रा है।
नदियों का मुद्दा समाज की सोच से जुड़ा है। इसलिए केवल सरकार पर ध्यान केन्द्रित करने से बात नहीं बनेगी। यदि नदियों का दीर्घकालिक हित साधना है तो समाज की सोच में परिमार्जन आवश्यक होगा। इसके लिए समानांतर रूप से काम करना पड़ेगा। यह कार्य दुरूह है, किंतु असंभव नहीं। जब सरकार और समाज दोनों को ध्यान में रखकर देश के कोने-कोने में लोगों से संवाद होगा, तब हम समस्या का दीर्घकालिक समाधान ढूंढ पाएंगे। नरौरा से बिठूर तक मेरी गंगा संवाद यात्रा को इसी प्रक्रीया की एक छोटी सी कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए।
हम चाहतें हैं कि-
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नदियों में हर मौसम में न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित रहे
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सिंचाई, पेयजल आदि के लिए नदियों से निकाले जाने वाले जल की अधिकतम सीमा निश्चित करने का कानून बने
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नदियों को स्वयं सक्षम ईकाई legal personality मानते हुए उनके अधिकार को व्याख्यायित करते हुए कानून बने
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नदियों की अपनी जमीन तय की जाए और उसे सरकारी राजस्व अभिलेख में दर्ज किया जाए। तदनुसार अतिक्रमण की परिभाषा तय की जाए
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नदियों के दोनो तरफ बफर जोन यानि हलित क्षेत्र बनाया जाए।
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गंदे पानी की निकासी के लिए नदियों के दोनो तरफ निकासी का रास्ता बने
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एसटीपी की भूमिका की समीक्षा हो और शोधित जल के उपयोग का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाए
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