रूस का कजान शहर इस समय चर्चा में है। इसके दो कारण हैं। एक, वहां ब्रिक्स शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ। दो, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग में पांच साल बाद सार्थक वार्ता हुई। यह वार्ता और भेंट इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि चीन भारत से संबंध सुधारने के लिए मजबूर हुआ है। चीन को अपनी भूल समझ में आ गई है। जो संवाद दोनों देशों में था, वह तनाव को कम करने के लिए एक अस्थाई व्यवस्था थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसी परिस्थिति निर्मित की कि चीन की अकड़ ढीली पड़ी है। भारत-चीन के संबंधों में तनाव पुराना है। उसका एक इतिहास है। जो परस्पर भरोसे का वातावरण नहीं बनाता है। चीन की अपनी हरकतों के कारण समय-समय पर तनाव उत्पन्न होते हैं। इसका ताजा सिलसिला पांच साल पहले शुरू हुआ।
अप्रैल, 2020 की याद किसे नहीं होगी! चीन की सैनिक टुकड़ियों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा को लांघा। भारतीय जमीन पर अतिक्रमण किया। जिससे गहरा तनाव पैदा हुआ। इस कारण भारत और चीन के संबंधों में जो गर्मजोशी का महौल उससे पहले बन रहा था वह टूट गया। इसी कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग से न मिलने का निश्चय कर लिया था। एक ही शर्त थी और वह साधारण शर्त नहीं थी कि जब तक चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा की वैधता को स्वीकार नहीं करता और अपनी सैनिक टुकड़ियां 2020 की स्थिति में वापस नहीं लौटाता तब तक कोई बातचीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति से नहीं करेंगे।
आखिरकार जो असंभव था वह संभव हुआ। चीन झुका। उसे भारत की शर्त माननी पड़ी। अब चीन सहमत हो गया है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा को मानेगा। उसकी सेना वहां लौटेगी जहां 2020 में होती थीं। इसलिए कजान भविष्य में भी हर भारतीय की जुबान पर होगा। रूस के दो शहर से हर भारतीय परिचित है, मास्को और पीट्सबर्ग। इसमें तीसरा नाम कजान का जुड़ा है। वहां भारत को जो सफलता मिली है वह अचानक नहीं है। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नेतृत्व कौशल दांव पर लगा था। विपक्ष अनेक प्रश्न समय-समय पर अपनी तोप से गोले की तरह दाग रहा था। उसे कहां पता था कि जहां जवाहरलाल नेहरू विफल हुए वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सफलता का परचम लहराएंगे। यह संभव हो सका क्योंकि नेतृत्व ने धैर्य को अडिग रखा। हर कदम आत्मविश्वास से उठाया। राजनयिक और सामरिक संवाद बनाए रखा। लेकिन कहीं भी दीनता नहीं दिखाई।
यह याद रखना चाहिए कि जून, 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए। एक शुरूआत हुई। उम्मीदें थी। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मई, 2015 में चीन यात्रा हुई। उससे पहले सीमा विवाद पर दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू हो गई थी। उस समय दोनों देशों में परस्परता का भाव था। मित्रता का महौल बन रहा था। ऐसा लग रहा था कि इतिहास करवट ले रहा है। इसलिए संबंधों में सुधार की आशा बन रही थी। उसे बड़ा झटका लगा जब अप्रैल, 2020 में चीन की सैनिक टुकड़ियों ने पूर्वी लद्दाख के कई क्षेत्रों में घुसपैठ की। वे क्षेत्र हैं, गलवान, पैंगोंग, गोगरा-हॉटस्प्रिंग। भारत की सेना ने चीनी सैनिक जत्थों को मुंहतोड़ जवाब तो दिया, लेकिन आमना-सामना बना रहा। उससे पहले 2017 में चीनी सैनिकों ने भूटान के क्षेत्र डोकलाम में घुसपैठ की। वहां 73 दिनों तक तनातनी बनी रही। चीन ने जब देखा कि उसकी किरकरी हो रही है तो सैनिक वापस बुलाए।
भारत ने अपनी ओर से संबंधों को सुधारने के किसी अवसर को गंवाया नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2018 में चीनी यात्रा को इसी नजर से देखना चाहिए। वहां चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से उनकी अनौपचारिक शिखर वार्ता शुरू हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस यात्रा में चीनी राष्ट्रपति को भारत आने का निमंत्रण दिया। यह सब चल ही रहा था कि शी जिनपिंग ने अपनी सेना को पूर्वी लद्दाख के सीमांत इलाकों में भेजा। वह घटना भरोसे को तोड़ने वाली घटना थी। चीन का यह इतिहास रहा है जो उस समय फिर दोहराया गया। वह पहली घटना नहीं थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल से पहले चार बार चीन ने जगह-जगह घुसपैठ की थी।
लेकिन 2020 की गलवान घाटी की घटना कई मायने में नई थी। चीन ने उकसावे की हरकतें जारी रखी। उस क्षेत्र में जो सहमति परस्पर बनी थी, उसे चीन ने तोड़ा। परस्पर सहमति से एक अस्थाई बफर जोन बनाया गया था। पांच सालों की दृढ़ता और नीतिपरकता रंग लाई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति की भेंट से पहले चीन के नरम रुख का स्पष्ट संकेत मिल गया था। भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने 21 अक्टूबर को एक बयान जारी किया कि ‘पिछले कई सप्ताह से भारत और चीन में राजनयिक और सैन्य संपर्क बना हुआ है। वार्ता चल रही थी। इसके परिणाम स्वरूप भारत-चीन सीमा क्षेत्रों में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गश्त पर सहमति बनी है। इस सहमति से सैनिकों की वापसी होगी और वे मुद्दे हल किए जाएंगे जो 2020 से बने हुए हैं।’ इससे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग में वार्ता संभव हुई। यह नई शुरुआत आशाजनक है।