इमरजेंसी क्यों लगी?

पुपुल जयकर इंदिरा गांधी की मित्र थीं। अपनी विदेश यात्रा पर जाने से पहले जून, 1975 के पहले हफ्ते में उनसे मिली। उनमें बातचीत लंबी चली। जब वे चलने लगी, तो कहा कि अब भेंट मैक्सिको में होगी। वहां एक अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन था जिसमें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जाने वाली थी। इंदिरा गांधी ने पुपुल जयकर को यह कह कर अवाक कर दिया कि ‘देखो, इलाहाबाद का फैसला क्या आता है।’ वह फैसला आया। उसने इंदिरा गांधी के होश उड़ा दिए। यह करीब 50 साल पहले की बात है। 12 जून,1975 की तारीख थी। उस फैसले से इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री पद खतरे में पड़ गया, क्योंकि लोकसभा सदस्यता उनकी अवैध घोषित हो गई। 

प्रधानमंत्री कार्यालय में उस समय एक अफसर थे, बिशन टंडन। वे रोज डायरी लिखते थे। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है, ‘अगर मैं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को समझ सका हूं तो वे और चाहे कुछ करें, कुर्सी कभी नहीं छोड़ेंगी। अपने को सत्ता में बनाए रखने के लिए वे गलत से गलत काम करने से भी नहीं हिचकिचाएंगी।यह उन्होंने 12 जून, 1975 को अपनी डायरी में लिखा।

इतिहास गवाह है कि इंदिरा गांधी को  समझने में जरा सी भूल भी उनसे नहीं हुई। इतने सालों बाद यह सवाल नहीं रह जाता कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी क्यों लगाई। इंदिरा गांधी के लिए 12 जून, 1975 का दिन एक नहीं, तीन तरफ से मर्मांतक था। सुबह डी.पी.घर गुजर गए। दोपहर से पहले इलाहाबाद का फैसला आया। जिसके बारे में वे पहले से ही अंदर से डरी हुई थी। शाम होते-होते गुजरात विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस हारी और विपक्ष का मोर्चा जीता।

इन तीन चोटों को इंदिरा गांधी सह लेती और थोड़ी देर सहलाकर वे पहले की भांति राजकाज चलाने में व्यस्त हो जाती। पर वैसा नहीं हुआ। आज उस बड़े कारण को जानना आजाद भारत के लोकतांत्रिक जीवन के सबसे अधिक काले अध्याय को पढ़ने जैसा है। इस पर जिसे रूचि होगी उसे ढ़ेरों छपे शब्द पत्रपत्रिकाओं और पुस्तकों में मिल जाएंगे। इंदिरा गांधी उस दिन प्रधानमंत्री कार्यालय नहीं आई थीं। इसलिए कि वे प्रधानमंत्री निवास में इलाहाबाद से आने वाली खबर का इंतजार कर रही थीं। ठीक 10 बजकर 5 मिनट पर न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने अपना फैसला सुनाया। इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध ठहराया और उन्हें 6 साल के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य बताया।

वह फैसला इंदिरा गांधी के लिए लिटमस टेस्ट था। क्यों और कैसे? यही बात अगली घटनाओं से सिद्ध होती है। जैसे ही फैसला आया कि कांग्रेस ने इंदिरा गांधी के समर्थन में उनके निवास पर भीड़ जुटाने का सिलसिला शुरू किया। यह एक संकेत था। सड़क पर समर्थन में नारे लग रहे थे और प्रधानमंत्री के सफदरजंग निवास में उहापोह और कानून की किताब में उस तिनके की खोज जारी थी, जो इंदिरा गांधी को पद पर बने रहने का सहारा दे।

सन 2000 में मैंने चंद्रशेखर से पूछा कि ‘12 जून, 1975 को इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया। अगर वह फैसला आता तो भी क्या इंदिरा गांधी देश पर आपातकाल थोपतीं?’ चंद्रशेखर का उत्तर था, ‘मुझे अंदाजा हो गया था कि इंदिरा गांधी कठोर कदम उठाने का इरादा बना रही हैं। इसके संकेत मिलने लगे थे। जयप्रकाश नारायण आंदोलन के एक कार्यक्रम में हरियाणा जाने वाले थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल ने बयान दे डाला था कि जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार किया जा सकता है। इंदिरा गांधी की विचार दिशा का यह एक संकेत था। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने इसमें नया मोड़ ला दिया।उनके इस कथन में एक इतिहास समाया हुआ है।

चंद्रशेखर पूर्व प्रधानमंत्री थे। इससे भी महत्वपूर्ण बात दूसरी है। इमरजेंसी जब थोपी गई तब वे कांग्रेस कार्यसमिति के निर्वाचित सदस्य थे। उनके निर्वाचन का इंदिरा गांधी ने भरपूर विरोध किया था। ऐसा राजनेता जब यह कहे कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से नया मोड़ आ गया, तो उस नए मोड़ से पहले इंदिरा गांधी की सोच क्या थी, यह जानना जरूरी हो जाता है। वह इतिहास है जो इंदिरा गांधी की सोच के उतार-चढ़ाव को बताता है। उतार वह खाईं है तो चढ़ाव उचाई है।

कहानी गुजरात से जुड़ी हुई है। चिमन भाई पटेल मुख्यमंत्री थे। वे इंदिरा गांधी की मर्जी के वगैर बने थे। जब वहां नवनिर्माण आंदोलन बढ़ने लगा, तो उसे आग और हवा मिली इंदिरा गांधी के इशारे से। जो दावानल बन गया। उसमें 103 लोग मारे गए। 300 से ज्यादा घायल हुए। 8 हजार लोग बंदी बनाए गए। इसे देख विधानसभा को भंग कराने के लिए मोरारजी देसाई ने दिल्ली में आमरण अनशन किया। उनका मत था कि वह विधानसभा लोगों का भरोसा खो चुकी है। चंद्रशेखर ने इंदिरा गांधी पर दबाव बनाया कि वे उनकी मांग मान लें। प्रधानमंत्री ने मांग मानी और जो चुनाव हुए उसमें कांग्रेस पराजित हो गई।

इस तरह 12 जून, 1975 तीन बातों के लिए इतिहास में दर्ज है। उनमें इलाहाबाद का फैसला ही ऐसा था, जो नया मोड़ साबित हुआ। उससे पहले इंदिरा गांधी यह मानती थीं कि राज्य की शक्ति और संविधान का उपयोग-दुरूपयोग करके वे अपने खिलाफ मचल रहे अंसतोष और विरोध को कुचल देंगी।

याद करना जरूरी है कि जेपी आंदोलन तब उभार पर था। रेल हड़ताल जोरो पर थी। ऐसे लोकतांत्रिक विरोध को कुचलने की उनकी मानसिकता उनके असुरक्षा भाव से पैदा हुई थी। इलाहाबाद का फैसला आते ही प्रधानमंत्री निवास अर्थात एक सफदरजंग कोठी में सबसे पहले देवकांत बरूआ पहुंचे। वे कांग्रेस अध्यक्ष थे। सिद्धार्थ शंकर रे और एच.आर. गोखले उनके बाद पहुंचे। सिद्धार्थ शंकर रे तब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे। कानूनी सलाह के लिए वे पहले से ही दिल्ली में बुला लिए गए थे। एच.आर. गोखले तब कानून मंत्री थे। 

इंदिरा गांधी क्या सोच रही थीं? इस बारे में अनेक कहानियां हैं। जो हुआ वह अनहोनी घटना थी। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने एक विचित्र फैसला सुनाया। उससे इंदिरा गांधी को कोई राहत नहीं मिली। प्रधानमंत्री पद खतरे में पड़ गया। अगले दिन उन्होंने निरंकुश शासन-सत्ता कायम करने के लिए रास्ता खोजने लगी। सिद्धार्थ शंकर रे ने उन्हें राह दिखाई।

रात करीब 12 बजे अनिच्छापूर्वक राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने इमरजेंसी लगाने के आदेश पर हस्ताक्षर किया। लेकिन मंत्रिमंडल की मंजूरी के वगैर उसे घोषित नहीं किया जा सकता था। संविधान में यही व्यवस्था है। इसलिए 26 जून की अलसुबह मंत्रियों को जगाया गया। उन्हें  प्रधानमंत्री निवास से सटे एक अकबर रोड पहुंचने के लिए निर्देश मिला। वहां दोहरे दबाव में मंत्रियों ने इमरजेंसी लगाने पर हां की। लेकिन सरदार स्वर्ण सिंह ने पूछ ही लिया, मैडम इसकी जरूरत क्या थी! उस पर मौन रही इंदिरा गांधी। उन्हें तो रेडियो पर इमरजेंसी की जल्दी घोषणा जो करनी थी। 

 

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