गांधी जी ने 20 अक्टूबर 1920 को यंग इंडिया में एक लेख लिखा। इस लेख के जरिए गांधी जी ने प्रशिक्षित स्वंसेवकों की आवश्यकता को समझाया। उन्होंने इस लेख से समझाया कि आत्मसंयम, अनुशासन और बलिदान के बिना राहत या मुक्ति की आशा नहीं की जा सकती।
मद्रास में व्यवस्था और अनुशासन संबंधी अपने अनुभवों के विषय में, मैं लिख ही चुका हूं। रूहेलखंड के दौरे में, मैं भी व्यवस्था का वैसा ही अभाव देख रहा हूं। हर जगह अव्यवस्था और गड़बड़ी होती रहती है। इसका कारण आदमियों की कमी नहीं, प्रशिक्षित स्वयंसेवकों की कमी है। उन्हें अभूतपूर्व परिस्थिति में, अभूतपूर्व भीड़-भाड़ को व्यवस्थित रखना पड़ता है और फल होता है काम कम, हलचल और शोर अधिक।
मौलाना शौकत अली, संगठन के मामले में, कभी हार नहीं मानते। वे सभी दलों को संतुष्ट करना चाहते हैं और इसलिए जो भी कार्यक्रम बनाते हैं; वह जरूरत से ज्यादा ठसा हुआ बन जाता है। एक उदाहरण दे रहा हूं। उन्होंने एक ही दिन में अलीगढ़ से हाथरस, हाथरस से एटा और एटा से कासगंज मोटर से और इसके बाद कासगंज से कानपुर रात में रेल से जाना मंजूर किया। पहले मोटर में बैठकर हम लोग 90 मील तक गए और बहुत सुबह कार्यकर्त्ताओं के बीच बैठक हुई। वह बहुत थकाने वाली बैठक सिद्ध हुई। वहां से सवेरे 9:45 पर हम लोग मोटर में सवार हुए और 11 बजे हाथरस पहुंचे। तब तक धूप बहुत सख्त हो गई थी। हर जगह की तरह वहां भी जुलूस तैयार था और शोर मचा हुआ था। जुलूस के बाद जबरदस्त सभा हुई; उसमें इतनी जोर से बोलना पड़ा कि आवाज वाले वक्ताओं के कंठ भी हार मान गए। हमारे इस सब परिश्रम का फल कम-से-कम इतना अवश्य हुआ कि तीन अवैतनिक न्यायाधीशों ने अपने पदों से त्यागपत्र दे दिए।
हाथरस से मोटर द्वारा हम लोग एटा पहुंचे। हाथरस के मुकाबले यहां व्यवस्था कुछ अच्छी थी। एटा में काम समाप्त करके, हम लोग मोटर से कासगंज रवाना हुए। रास्ते में दुर्घटना हुई; गाड़ियां खराब हो गई और जैसे-तैसे हम लोग कासगंज पहुंचे। मौलाना शौकत अली और उनके साथ तो गाड़ी के वक्त तक आ ही नहीं पाए। एटा में अनेक लोगों ने त्यागपत्र दिए। कासगंज की सभा का आकार-प्रकार देखते हुए कहा जा सकता है कि उसकी व्यवस्था काफी ठीक थी; किंतु उस व्यवस्था को बनाए रखना सहज नहीं था। पांव छूने का तमाशा काबू से बाहर हो गया। उसमें बहुत वक्त खराब हुआ। कोई जबरदस्त भीड़ इस काम को शुरू कर दे तो उसमें खतरा पैदा हो जाता है।
लेकिन कासगंज से कानपुर तक की रात की यात्रा तो बहुत ही खराब रही। हर स्टेशन पर भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। इससे सारी यात्रा अत्यंत असुविधाजनक हो गई। भीड़ हर जगह आग्रह करके हम लोगों को देखना चाहती थी। मुझे जगाने के लिए जो शोर मचाया जाता था; वह कर्कश और हृदय-बेधक होता था। मैं थका हुआ था। मेरा सिर चकरा रहा था और मुझे आराम की बहुत जरूरत थी। श्रीमती गांधी और दूसरे लोग भीड़ से इल्तजा करते थे कि वे चुप रहें और संयम बरतें; मगर इसका कोई असर नहीं होता था।
श्रीमती गांधी और जनता में मानो रस्साकशी होती थी। वे रोशनी बंद करती या खिड़की बंद करती थीं तो लोग रोशनी करते थे औैर खिड़कियां खोलते थे। जब उनसे कहा जाता कि गांधीजी आराम कर रहे हैं, क्या आप लोग यह चाहते हैं कि उनकी अकाल मृत्यु हो जाए; तो जवाब मिलता था, हम दर्शन करने के लिए मीलों चलकर आए हैं और दर्शन करके ही जाएंगे। मैंने अपना दिल कड़ा कर लिया था और सुबह होने तक उठा ही नहीं। लेकिन पूरी रात एक क्षण भी सो नहीं पाया। प्यार बुद्धि खोकर पागलपन कर सकता है, इसका उदाहरण उस रात देखने को मिला। दारिद्रय और अपमान के बोझ से दबी, कराहती हुई जनता कुछ इतनी आशा और विश्वास लेकर आती थी कि मानो मेरे पास सुखद भविष्य का कोई संदेश पड़ा हुआ है। मुझे देखने के लिए वे चारों तरफ से पैदल चलकर आते थे।
विश्वास तो मुझे भी है कि मैं उन्हें कुछ संदेश दे सकता हूं और कुछ राहत भी, लेकिन…?
हां, बहुत बड़ा ‘लेकिन’ इसके साथ जुड़ा हुआ है। आत्मसंयम, अनुशासन और बलिदान के बिना राहत या मुक्ति की आशा नहीं की जा सकती। अनुशासहीन बलिदान से भी काम नहीं चलेगा। सवाल है, खून में समाई हुई उस अनुशासनहीन को अनुशासन में कैसे परिवर्तित करें। अंग्रेजी संगीनों का डर या उनका पाखंड हम में अनुशासन उत्पन्न नहीं कर सकता। ब्रिटिश अधिकारियों को शांत और शांतिप्रिय, हमारी जनता के स्नेह और स्नेह-प्रदर्शन के प्रति कोई प्रेम नहीं है। अगर उनसे बने तो इस ‘जंगली’ ढंग के प्रदर्शन को, वे उसी शस्त्र-बल से दबा दें, जिस तरह सर माइकेल ओ’डायर ने दबाने की कोशिश की थी और जिसमें उन्हें लज्जाजनक असफलता प्राप्त हुई थी।
यह प्रदर्शन शस्त्र-बल से नहीं दबाया जा सकता; किंतु यदि राष्ट्र के कल्याण की दृष्टि से, इसका नियमन और नियंत्रण नहीं किया जा सका तो यह स्वराज-प्राप्ति में भी सहायक नहीं हो सकता। इसमें सफलता और आत्मनाश, दोनों ही बातों के तमाम तत्व निहित हैं यदि राष्ट्र उस समय जब कि उसके सेवकों को आराम की आवश्यकता हो, अत्यधिक प्रेम-दर्शन द्वारा उसमें व्याघात उत्पन्न करे तो इससे उनकी शक्ति का अपव्यय होगा और हमने जिस उद्देश्य की प्राप्ति का वचन दिया है, उसे भी नहीं पा सकेंगे। इसलिए हमें रात को किए जाने वाले प्रदर्शन समाप्त कर देने चाहिए।
हमारे लिए अपने छोटे-से-छोटे साथ की भावना का ध्यान रखना भी आवश्यक है। हमें यात्रियों से भरी हुई पूरी गाड़ी के लोगों के आराम में बाधा नहीं डालनी चाहिए। हमें अपने प्रिय नेताओं के प्रति स्नेह प्रकट करना चाहिए, सार्थक कार्यों और अथक शक्ति के द्वारा। जो प्यार अपने प्रिय के चरण छूने और उसके पास पहुंचकर शोर मचाने से संतुष्ट हो जाता है, भय है कि वह धीरे-धीरे उसके लिए जानलेवा भी हो सकता है। ऐसे प्यार में गुण नहीं बचा रहता, बल्कि कुछ समय के बाद वह एक व्यसन ही बन जाता है और इसलिए दुर्गुण बन बैठता है।
यदि प्रदर्शनों को, सार्थक उद्देश्यों की पूर्ति करने का, साधन बनाना हो तो देश को चाहिए कि वह उन्हें अनुशासित करे। यह एक बहुत बड़ा काम राष्ट्र के सामने है। असहयोग की मंशा घृणा उत्पन्न करना नहीं है, बल्कि राष्ट्र को इस हद तक पवित्र बनाना है कि वह किसी भी बाहरी या भीतरी हमले के आगे झुकने न पाए। असहयोग आंदोलन प्रभावशाली तभी हो सकता है कि जब हमारी इस प्राचीन और महान देश की जनता के विभिन्न वर्गों में सहयोग स्थापित हो जाए। सहयोग का यह कार्यक्रम हम अपने प्रियजनों से प्रारंभ करें।