हेमंत शर्मा की किताब ‘युद्ध में अयोध्या’ छप गई है। इसके हर शब्द और हर पन्ने पर सच का सम्मोहन है। तथ्यों और प्रमाणों में किताब बेजोड़ है। इस दौर के अयोध्या आंदोलन के बाद से हिंदी और अंग्रेजी में बहुत किताबें आई।
इसलिए यह सवाल उठेगा कि हेमंत शर्मा की किताब में नया क्या है? किताब को पूरा पढ़ने के बाद कह सकता हूं कि इस किताब में जो है वह दूसरी किताबों में नहीं है। यह पहली किताब है जो अयोध्या आंदोलन को साक्षी-भाव से देखती-दिखाती है।
लेखक उसका जरिया बना है। आंदोलन को उसके हर खास पहलू से यह किताब समझाती है। हर संदर्भ सही परिपे्रक्ष्य में है। अयोध्या के इतिहास पर नाहक विवाद बनाया गया है। इतिहासकारों के एक वर्ग ने बनाया है।
यह किताब अयोध्या के इतिहास को दो सिद्धांतों पर प्रस्तुत करती है। वे सिद्धांत हैं- इतिहास अयोध्या का है। अयोध्या राम की है।
क्या इससे कोई इनकार कर सकता है? इस किताब को पढ़ने के बाद मुस्लिम विद्वान और नेता भी मानेंगे कि वे अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या का मामला विचाराधीन है।
पिछले दिनों अयोध्या में संत सम्मेलन हुआ। जहां योगी आदित्यनाथ ने कहा कि ‘अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए संतों को अभी कुछ और दिन धैर्य रखना होगा।’ वे राज्य के मुख्यमंत्री हैं। इस समय अयोध्या आंदोलन के नेता की भूमिका में नहीं हैं।
लेकिन उन्होंने जो कहा, उसका संबंध सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई से है। पूरे देश की नजर और कान सुप्रीम कोर्ट की ओर उस समय सजग हो जाते हैं जब सुनवाई की तारीख पड़ती है। रोज-रोज सुनवाई होगी, इसकी उम्मीद थी। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कहा भी।
“अयोध्या के इतिहास पर नाहक विवाद खड़ा हो गया है। यह किताब अयोध्या के इतिहास को दो सिद्धांतों पर प्रस्तुत करती है। वे सिद्धांत हैं- इतिहास अयोध्या का है।”
जो सवाल 1986 में ताला खुलने के बाद उठा, वह आज भी बना हुआ है। वह सवाल क्या है? किताब का एक अध्याय- ‘जमीन के नीचे अयोध्या’ इसी सवाल को हल करता है।
हेमंत शर्मा ने शुरू में अध्याय के सार को इस तरह लिखा है-‘अयोध्या विवाद तो पुराना है। खूनी-लड़ाइयां बहुत हुईं। बहुत से आंदोलन हुए। सबका मूल सवाल एक ही था- क्या बाबरी मस्जिद से पहले वहा कोई राम मंदिर था।
क्या राम जन्मभूमि मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनी है? दो सौ बरस से जनमानस को मथता यह सवाल इलाहाबाद हाई कोर्ट के सामने भी था। लगा-जमीन की खुदाई से इस समस्या का समाधान निकलेगा। अदालत ने इसी रास्ते समाधान ढूंढ़ने की कोशिश भी की।’
उन्होंने इस सवाल का इतिहास भी बताया है कि ‘ताला खोलने के अदालती फैसले के विरोध में जब बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनी थी, तभी से कमेटी और उसके नेता सैयद शहाबुद्दीन (दिवंगत) कई दफा यह सर्वाजनिक घोषणा कर रहे थे कि अगर यह सिद्ध हो जाए कि बाबरी ढांचे से पहले वहां कोई मंदिर था और मौजूदा मस्जिद उसे तोड़कर कर बनाई गई है तो हम शरीयत के मुताबिक उसे मस्जिद नहीं मानेंगे। मुस्लिम नेता स्वयं वहां जाकर उस ढांचे गिरा देंगे।’
हेमंत शर्मा ने लिखा है-‘अब इतिहास और पुरातत्व अयोध्या विवाद के केंद्रीय बिंदु बन गए थे।’ संभवत: इसीलिए उन्होंने ‘इतिहास और पुरातत्व’ के साक्ष्य वाले हिस्से को ‘जमीन के नीचे अयोध्या’ शीर्षक दिया। इस अध्याय में अकाट्य प्रमाण हैं।
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“अयोध्या राम की है। क्या इससे कोई इनकार कर सकता है? इस किताब को पढ़ने के बाद मुस्लिम विद्वान और नेता भी मानेंगे कि वे अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं।”
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वे अब सर्वमान्य हो गए हैं। खुदाइयों से निकले प्रमाणों की वे दुर्लभ तस्वीरें भी इसमें हैं जिन्हें अब तक किसी किताब में उसके लेखक को मिलना संभव नहीं था। क्या ये प्रमाण उस सवाल को हल करते हैं?
हेमंत शर्मा ने स्वयं नहीं, इसका जवाब इलाहाबाद हाई कोर्ट के हवाले से दिया है। यही इस किताब की प्रामाणिकता है। उन्होंने बताया है कि ‘इस विवाद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 30 सितंबर, 2010 को जो फैसला सुनाया, उसमें हाई कोर्ट ने इस सवाल का जवाब ढूंढ लिया।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ‘आर्कलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ (एएसआई) की उस रिपोर्ट को मंजूर कर लिया जिसमें कहा गया था कि बाबरी ढांचे के नीचे खुदाई में दसवीं शताब्दी के हिंदू मंदिर के कई सबूत मिले हैं। तीन जजों की इस बेंच ने अपने फैसले में एएसआई की रिपोर्ट को ही आधार माना।
एएसआई ने 574 पेज की जो रिपोर्ट हाई कोर्ट को सौंपी, उसमें कहा गया कि विवादित ढांचे के नीचे खुदाई में नक्काशीदार पत्थर, कसौटी पत्थरों के खंभे, देवी-देवताओं की खंडित प्रतिमाएं, मंदिर में इस्तेमाल होने वाली नक्काशीदार सामग्री, आमलक, काले पत्थर के खंभों के ऊपर लगने वाली अष्टभुजीय आकृति मिली है।
इसके अलावा वहां मिले 50 खंभों की नींव, उस जगह पर विशालकाय हिंदू ढांचे की मौजूदगी के सबूत हैं। जो साफ तौर पर मस्जिद से पहले वहां मंदिर होने के संकेत देते हैं। ये पुरातात्विक सबूत उत्तर भारत में बने मंदिरों की विशिष्टताओं से पूरी तरह मेल खाते हैं।’
हाई कोर्ट के फैसले को सब जानते हैं। थोड़े लोग जानते हैं कि इलाहाबाद हाई कोर्ट को जब सबूतों की जरूरत महसूस हुई तो उसे एएसआई का ध्यान आया।
इस तरह कब हाई कोर्ट ने एएसआई को क्या निर्देश दिए और किस तरह लंबी पड़ताल करवाई, इसका वर्णन किताब के इस अध्याय में आ गया है। इस पढ़ते हुए ही वह सवाल परत-दर-परत हल होता जाता है जिसे मुस्लिम नेता उठाते रहे हैं।
हाई कोर्ट का 2010 का फैसला खुदाई के प्रमाणों पर आधारित था। इस समय राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक बीआर मणि तब एएसआई में थे। उनके नेतृत्व में 14 सदस्यों के दल ने खुदाई की थी।
उस रिपोर्ट का कवर पेज किताब के इस अध्याय में है। उसका सार यह है-‘खुदाई में 11वीं से 12वीं शताब्दी की शुरुआती अवधि का एक विशालकाय ढांचा भी मिला। यह उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 50 मीटर लंबा था।
यहीं ईट के चूरे से बना हुआ एक मोटा फर्श भी मिला। जो उत्तर दक्षिण दिशा की ओर एक चौड़ी और बड़ी ईट की दीवार से सटा हुआ था। पूराविदों ने इसे 11वीं शताब्दी का बताया।’
इस अध्याय को पढ़ते हुए पाठक को लगेगा कि हेमंत शर्मा ने एएसआई की रिपोर्ट को खूब बारीकी से गहरे उतरकर समझा है। इसमें ईशा पूर्व 13 सौ से लेकर 16वीं शताब्दी का इतिहास समाया हुआ है।
वे लिखते हैं कि ‘साधारण भाषा में कहें तो एएसआई की रिपोर्ट ने अपने नतीजे में यह स्थापित कर दिया कि बाबरी मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनाई गई। इस जगह पर जो अवशेष पाए गए, वे एक पुराने धार्मिक ढांचे के थे।
बाबरी मस्जिद के उत्तरी कक्ष की दीवार संख्या पांच सीधे तौर पर मंदिर की पश्चिमी दीवार (दीवार संख्या 16) पर खड़ी थी। दीवार संख्या पांच की नींव को भरने के लिए जो ईटें इस्तेमाल की गई थी वे ध्वस्त मंदिर से जुटाई गई ईटें थी।’
एएसआई की खुदाई से एक ऐतिहासिक सबूत ऐसा मिला जो हिंदू मान्यता की पुष्टि करता है। ‘इस जगह पर बड़ी संख्या में मिले काली पॉलिश वाले मिट्टी के बरतनों ने इस हिंदू मान्यता को और भी पुख्ता किया कि राम और अयोध्या की कहानी कृष्ण और हस्तिनापुर से पुरानी है।’
किताब का यह अध्याय सुप्रीम कोर्ट की हिचक को दूर कर सकता है। उसे गजब का साहस साहित्य के शिखर पुरुष नामवर सिंह के लिखे ये वाक्य दे सकेंगे। ‘राम और उनकी जन्मभूमि पर ऐसी प्रामाणिक पुस्तक पहले कभी नहीं आई। मेरा जीवन सार्थक हुआ।’
जिस भी दिन किताब पाठकों के हाथों में पहुंचेगी, उस दिन से प्रभात प्रकाशन विश्वस्तरीय स्थान प्राप्त करेगा। ‘युद्ध में अयोध्या’ पढ़ते हुए शिव प्रसाद मिश्र ‘रूद्र’ की ‘बहती गंगा’ याद आई।
सिर्फ एक कारण से। पहली किताब में अयोध्या और दूसरी किताब में काशी के दो सौ साल के युद्ध की कहानी है। एक फर्क भी है। ‘युद्ध में अयोध्या’ में पांच से ज्यादा ‘बहती गंगा’ समा जाएगी।
इलाहाबाद हाई कोर्ट को जब सबूतों की जरूरत महसूस हुई तो उसे एएसआई का ध्यान आया। कब हाई कोर्ट ने एएसआई को क्या निर्देश दिए और किस तरह लंबी पड़ताल करवाई, इसका वर्णन किताब में आ गया है।
इस पढ़ते हुए ही वह सवाल परत-दर-परत हल होता जाता है जिसे मुस्लिम नेता उठाते रहे हैं। हाई कोर्ट का 2010 का फैसला खुदाई के प्रमाणों पर आधारित था।