मोदी चाहते हैं कि महात्मा गांधी के विचारों को समाज अपने जीवन में उतारे

रामबहादुर राय

महात्मा गांधी-150  एक महान अवसर हो सकता है। राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रीय आयोजन समिति की जो पहली बैठक हुई है, उससे भी सकारात्मक संकेत मिले हैं।

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, उप राष्ट्रपति एम वेंकैंया नायडू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी  और मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति यह बताती है कि राजनीतिक मतभेद को भुलाकर सभी महात्मा गांधी की 150वीं जयंती को नए संदर्भ में मनाने के लिए प्रस्तुत हैं।

महात्मा गांधी एक ऐसा नाम है, एक ऐसा महापुरुष है जिस पर आम सहमति है। इस समय यह दुर्लभ दिख रहा है। जो दुर्लभ हो, उसे सुलभ कराने का जिसमें पुरुषार्थ था, वे महात्मा गांधी थे।

महात्मा गांधी-150 का आयोजन सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में किया जाएगा।

लेकिन पहली बैठक में जो अनुपस्थित रहे, वे क्या महात्मा गांधी का इसलिए निरादर करना चाहते हैं क्योंकि पहल नरेंद्र मोदी की सरकार ने की है? सोनिया गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की अनुपस्थिति का अर्थ तो यही निकलता है।

पहली बैठक से दो बातें निकलीं। एक – प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में छोटी समिति हो। जो राष्ट्रीय समिति की कार्यसमिति होगी। दो -महात्मा गांधी-150 का आयोजन सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में किया जाएगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि महात्मा गांधी के विचारों को समाज अपने जीवन में उतारे। आयोजन के जरिए उनके विचारों को हर व्यक्ति तक पहुंचाया जाए।

इसके लिए विमर्श प्रारंभ हो गया है। राष्ट्रीय समिति में अनेक सुझाव आए। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का यह कहना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि महात्मा गांधी भारत में जन्मे और जीए।

लेकिन उनके विचारों की छाप विश्वव्यापी है। वे भारत के ही नहीं, पूरे विश्व के हो गए हैं। वे मानवता के पर्याय हैं। 20वीं सदी उनकी थी। हमारा दायित्व है कि 21वीं सदी को महात्मा गांधीमय बनाए।

महात्मा गांधी का 150वां साल 2 अक्टूबर, 2018 को प्रारंभ होगा। जो 2019 में पूरा हो जाता है। लेकिन भारत सरकार उसे एक साल अधिक समय देने जा रही है। इस तरह महात्मा  गांधी 150 का समापन 2020 में होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि महात्मा गांधी के विचारों को समाज अपने जीवन में उतारे। आयोजन के जरिए उनके विचारों को हर व्यक्ति तक पहुंचाया जाए।

इसे मनाने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर सोच-विचार प्रारंभ हो गया है। कई संस्थाएं एक साल पहले से ही विचार मंथन में लगी हैं। उनके आयोजन पर सरसरी निगाह दौड़ाए और देखें कि वे किन बातों को उभार रहे हैं।

किन बातों को गांधी से जोड़ रहे हैं। ऐसा करने से गांधी के विचार के विभिन्न आयामों को समझना आसान होगा। मूल प्रश्न यही है कि आज गांधी को किस रूप में अपनाएं। उनके विचारों को समग्रता में अपनाना है या टुकड़ों में।

इस समय गांधी किस रूप में  प्रासंगिक हैं।महात्मा गांधी को उनके जीवन में भी पूरी तरह नहीं समझा गया। उनके जाने के बाद यह बहस छिड़ी और चलती रही कि गांधी का कौन सा पक्ष ऐसा है जिसे आजादी के बाद सबसे पहले अपनाया जाना चाहिए।

डा. राममनोहर लोहिया ने इसे ही अपने ढंग से एक परिभाषा दी। जब यह कहा कि तीन तरह के गांधीवादी हैं। सरकारी, मठी और कुजात। खुद को वे कुजात मानते थे।

गांधी जी

नेहरू को सरकारी मानते थे। उनकी नजर में विनोबा मठी गांधीवादी थे। गांधी का यह चित्रण हमें समझाता है कि नेहरू ने गांधी को जितना समझा, उसे सरकारी कार्यक्रमों में अपनाया।

जहां गांधी उनके लिए उपयोगी थे वहां उन्होंने उन्हें अपनाने की व्यवस्था कराई। जैसे खादी। गांधी को समझने वाले यह भी कहते हैं कि नेहरू ने खादी ग्रामोद्योग बनवाकर उसकी परिवर्तनकारी भूमिका को सीमित कर दिया।

विनोबा ने भूदान में गांधी को देखा। उस अभियान ने देश में एक हवा बनाई। जिससे खिंचकर जेपी सरीखे नेता भी भूदान में कूदे।

लेकिन जो मूलगामी परिवर्तन अपेक्षित था वह नहीं हुआ। आजादी के बाद गांधी की संघर्ष-गाथा को  डा. लोहिया ने नई भाषा दी। उसे राजनीति में उतारा।

फावड़ा और जेल उस राजनीति के प्रतीक थे। गांधी जन्मशती के पचास साल बाद यह अवसर पुन: मिला है जिसमें गांधी को खोजने और जानने की जहां जरूरत है वहां अपनाने की भी है। क्या ऐसा हो सकेगा?

 

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