जवाहरलाल नेहरू की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति से नरेंद्र मोदी की स्वतंत्र विदेश नीति कितनी अलग है, इसे अर्जेंटीना में हुई हाल की 20 देशों के समूह की बैठक के समय देखा जा सकता था। इस बैठक के दौरान उपस्थित हुए अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात होना स्वाभाविक ही था। लेकिन भारत ने इस अवसर का लाभ दो अन्य समूहों की बैठक में भाग लेकर उठाया। भारत ने एक तरफ हिंद प्रशांत क्षेत्र में निर्विरोध आवाजाही और इस क्षेत्र के देशों के बीच परस्पर सहयोग को बढ़ावा देने के लिए अमेरिका और जापान के साथ एक त्रिपक्षीय बैठक में भाग लिया। इस बैठक के कुछ ही घंटों के बाद एक दूसरी त्रिपक्षीय बैठक हुई, जिसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नियम आधारित व्यवस्था बनाए रखने के लिए सहयोग करना और अंतरराष्ट्रीय व्यापार को नियम आधारित प्रणाली पर चलाते रहने के लिए दबाव बनाना था। इस त्रिपक्षीय बैठक में भारत के अलावा चीन और रूस के राष्ट्राध्यक्ष थे।
अमेरिका और चीन दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ भारत का इस्तेमाल करना चाहते हैं। लेकिन भारत एक मामले में अमेरिका का साथ दे रहा है, तो दूसरे में चीन का। इसका कारण उसके अपने राष्ट्रीय हित और विश्व दृष्टि है। इसी आधार पर विदेश नीति खड़ी होनी चाहिए।
ये दोनों ही समूह विश्व राजनीति में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखे जाते हैं। अमेरिका और रूस की प्रतिद्वंद्विता तो दूसरे महायुद्ध के बाद ही आरंभ हो गई थी। अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंद्विता डोनाल्ड ट्रम्प के शासन काल में शुरू हुई है और गहरी होती जा रही है। अब तक दोनों देश एक-दूसरे के खिलाफ व्यापारिक युद्ध छेड़े हुए थे। हाल ही दोनों ने तीन महीने के लिए इस पर विराम लगाने का निर्णय किया है। लेकिन यह अस्थायी विराम ही है। दोनों के व्यापारिक हित आपस में टकरा रहे हैं और दोनों के बीच यह तनातनी बनी रहने वाली है। फिलहाल रूस चीन के साथ है। भारत का दोनों त्रिपक्षीय समूहों में शामिल होना महत्वपूर्ण है। इससे पता चलता है कि भारत की विदेश नीति स्वतंत्र धरातल पर खड़ी हुई है। जब भारत स्वतंत्र हुआ था तो दो महायुद्ध के बाद पश्चिमी जगत दो गुटों में बंटा हुआ था। एक तरफ अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिम के पूंजीवादी और लोकतंत्रीय देश थे, तो दूसरी तरफ सोवियत रूस के नेतृत्व में साम्यवादी और एकतंत्रीय देश। इन दोनों समूहों ने पूरी दुनिया को अपनी तरफ बांटने की कोशिश की थी
। भारत अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप स्वतंत्र विदेश नीति रखते हुए दोनों से सहयोग कर सकता था। लेकिन जवाहरलाल नेहरू महाशक्तियों के इस बंटवारे को विचारधारात्मक नजरिये से देख रहे थे। इसलिए उन्होंने एक तीसरा गुटनिरपेक्ष देशों का समूह बनाने की कोशिश की। उसमें इंडोनेशिया के सुकर्ण, मिस्र के नासर और यूगोस्लाविया के जोसिप ब्रॉज टीटो मुख्य थे। वह कोशिश अधिक नहीं चली। क्योंकि सभी देश अपने-अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार अपने नीतिगत फैसले करते हैं। उसके अनुसार उनके दोनों ही गुटों के देशों से सहयोग करने की नौबत आती रही। जवाहरलाल नेहरू गुटनिरपेक्ष विदेश नीति के पैरोकार अवश्य थे, पर वे विचार से वामपंथी थे और सोवियत रूस की साम्यवादी व्यवस्था से प्रभावित होने के कारण उसके प्रशंसक भी थे। इसने न केवल उन्हें अमेरिका विरोधी बनाया, बल्कि अमेरिका में भी भारत की छवि ऐसी ही बनी।
भारत की आजादी के समय अमेरिका ने भी ब्रिटेन पर भारत को स्वतंत्र करने के लिए दबाव डाला था। उसने भारत से निकट संबंधों की आशा ही नहीं, कोशिश भी की थी, लेकिन नेहरू से उन्हें निराशा हुई। पाकिस्तान ने इसी अवसर का लाभ उठाकर भारत विरोधी माहौल पैदा किया और अमेरिका से अपना संबंध जोड़ लिया। भारत को 1971 में विषम परिस्थितियों में सोवियत रूस से मैत्री संधि करनी पड़ी थी। अब की दुनिया तब की दुनिया से बहुत अलग है। अमेरिका और सोवियत रूस के बीच दूसरे महायुद्ध के बाद शुरू हुआ शीत युद्ध समाप्त हो चुका है। सोवियत संघ बिखर चुका है और उसका उत्तराधिकारी रूस अब दुनिया की दूसरी बड़ी महाशक्ति नहीं रहा। उस स्थान पर धीरे-धीरे चीन उभर रहा है और इसी से अमेरिका और चीन की नई प्रतिद्वंद्विता शुरू हुई है। भारत और चीन दोनों प्राचीन देश हैं। दोनों ही विदेशी आधिपत्य से बीसवीं सदी में मुक्त हुए। चीन मांचू शासन के अधीन था और भारत ब्रिटिश शासन के। इन दोनों प्राचीन सभ्यताओं में काफी निकटता रही है। लेकिन चीन में साम्यवादियों के सत्तारोहण के बाद चीन ने भारत विरोधी भूमिका अपनाई। चीन के साम्यवादी बहुत महत्वाकांक्षी होकर सत्ता में आए थे और उन्होंने मध्य एशिया से लगे शिनजियांग क्षेत्र और भारत के उत्तर में बसे तिब्बत पर जबरन आधिपत्य जमा लिया। चीन को भारत से विरोध की आशंका थी।
नेहरू ने तिब्बत पर उसका अधिकार मानकर उसकी आशंका समाप्त करने की कोशिश की। लेकिन चीन की आशंकाएं समाप्त नहीं हुईं और भारत को उसके साथ 1962 के युद्ध में उतरना पड़ा। तब से स्थिति बदली है। दोनों देश प्रकटत: मैत्री की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन दोनों को ही एक-दूसरे से गहरी आशंकाएं हैं। अमेरिका से चीन की तनातनी ने भारत की विदेश नीति के सामने कुछ गहरी चुनौतियां पैदा की हैं। भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आवाजाही की स्वतंत्रता का पक्षधर है और इस मामले में वह दक्षिण चीन सागर की चीन द्वारा की जा रही घेरेबंदी का विरोध करता रहा है। इस उद्देश्य ने उसे अमेरिका और जापान के साथ खड़ा होने को प्रोत्साहित किया है। दूसरी तरफ अमेरिका अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के लिए एक चुनौती बनता जा रहा है।
डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी प्रशासन अमेरिकी हितों को दुनिया के हितों से ऊपर रखने की घोषणा करता रहा है। इस आधार पर उसने पर्यावरण की सुरक्षा के लिए बनाई गई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाओं को तो अंगूठा दिखाया ही है, वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार को नियमाधीन रखने के लिए भी तैयार नहीं दिखता। इन सब मंचों पर भारत और चीन एकदूसरे के साथ खड़े दिखाई देते हैं। डोनाल्ड ट्रम्प ने शुरू में रूस को अपने साथ लेने की कोशिश की, लेकिन वे अपने इस प्रयत्न में अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान को सहमत नहीं कर पाए। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान अभी भी शीत युद्ध के समय के आग्रह- पूर्वाग्रह लिए हुए हैं और वह विश्व राजनीति में अमेरिका-रूस की प्रतिस्पर्द्धी भूमिका ही देखता है। इसलिए अमेरिका रूस अभी भी दो भिन्न छोरों पर खड़े हैं। पिछले दिनों रूस और चीन के बीच सहयोग बढ़ा है और दोनों अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में ही नहीं, उसके बाहर भी अनेक नए समूह बना रहे हैं।
भारत भी उनके कुछ समूहों में साझीदार हुआ है। डोनाल्ड ट्रम्प की आक्रामक विदेश नीति के कारण वैसे भी विश्व स्तर पर राजनीतिक समीकरण तेजी से बन और बिगड़ रहे हैं। उनकी आने वाले समय में क्या दशा होगी, ये कोई नहीं जानता। चीन भी आक्रामक तरीके से अपने प्रभाव को बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। उसकी वन वेल्ट-वन रोड योजना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अलबत्ता भारत उसकी इस योजना को एक नव-उपनिवेशवादी कोशिश ही मानता है और भारत ने इस मामले में चीन से सहयोग करने से इनकार कर दिया है। पिछले लगभग तीन दशकों में भारत ने भी तेजी से आर्थिक प्रगति की है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भारत अपनी सामरिक शक्ति बढ़ाने की ओर भी विशेष ध्यान दे रहा है। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी साख बढ़ी है और उसको भी एक उभरती हुई बड़ी महाशक्ति के रूप में देखा जा रहा है। यही कारण है कि एक तरफ अमेरिका उसका चीन विरोधी ध्रुवीकरण में इस्तेमाल करना चाहता है, दूसरी तरफ चीन उसका अमेरिका द्वारा की जा रही नियमाधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की अवमानना रोकने के लिए सहयोग चाहता है। भारत एक मामले में अमेरिका का सहयोगी है तो दूसरे मामले में चीन का। उसका कारण उसके अपने राष्ट्रीय हित और विश्व दृष्टि है। इसी आधार पर विदेश नीति खड़ी होनी चाहिए।
भारत को इसीलिए न अमेरिका और जापान के साथ त्रिपक्षीय वार्ता करने और उसे ऐतिहासिक बताने में कोई संकोच हुआ, न चीन और रूस के साथ त्रिपक्षीय वार्ता करते हुए उसे अत्यंत महत्वपूर्ण बताने में। यही भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की पहचान है, जो पुरानी गुट-निरपेक्ष नीति को सिर के बल खड़ा करने जैसा है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और जापान से सहयोग चीन के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए ही किया जा रहा है। इस क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण समूह आसियान है। भारत उसे अपनी रणनीति के केंद्र में रखना चाहता है। तीनों देशों ने चीन की वन वेल्ट-वन रोड परियोजना के समानांतर परस्पर सहयोग से इस पूरे क्षेत्र के विकास की रणनीति बनाने का निर्णय लिया है। हिंद-प्रशांत के समूचे क्षेत्र में भारत और जापान की साख चीन से बेहतर है। इसी को भारत ने आधार बनाने का फैसला किया है। लेकिन यह चीन से प्रतिस्पर्द्धा है, शत्रुता नहीं। यह हमारी स्वतंत्र विदेश नीति का परिचायक है। आशा है चीन इसे समझेगा और स्वीकारेगा।