रामनाथ गोयनका के निधन से इंडियन एक्सप्रेस समूह पर ग्रहण लग गया। ऐसा हो ही नहीं सकता था कि जनसत्ता उससे अछूता रहे। उनके जीते जी उत्तराधिकार का फैंसला हो गया था। विवेक खेतान को विवेक गोयनका बना दिया गया था। क़ानूनी उत्तराधिकार तय हो जाने के बावजूद गोयनका परिवार में झगड़ा जायदाद पर छिड़ा। वह छह साल चला। जिस समय इंडियन एक्सप्रेस समूह को नई राजनीतिक सामाजिक चुनौतियों के मुकाबले लोगों की आवाज़ बनना चाहिए था, तब वह इस तरह के झगड़े में पड़ गया।
उस समय दो तरह के सवाल थे। पी.वी. नरसिंहराव की सरकार सर्दी-जुकाम का ईलाज करने के लिए कैंसर की दवा अपना रही थी। उसी के तहत अमेरिकी दबाव में कांग्रेसी सरकार ने उदारीकरण की राह ली। जिसे भूमंडलीकरण का जामा पहनाया गया। यह समझाने के लिए कि यह नवसाम्राज्यवाद नहीं है। यह पहला सवाल था। दूसरा सवाल था अयोध्या आंदोलन। विश्वनाथ प्रताप सिंह के समय में आरक्षण का आंदोलन तेज हुआ था, लेकिन वह शांत हो गया था। अयोध्या आंदोलन अपनी गति से चल रहा था, जो पी. वी. नरसिंहराव के समय में अधिक वेगवान हुआ। उसी दौरान पारिवारिक विवाद में उलझा इंडियन एक्सप्रेस अपनी चमक खोने लगा। वह नेतृत्व हीनता का शिकार था। इसे सबसे पहले भांपा अशोक जैन ने जो तब टाइम्स ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन थे। उन्होंने पहले चेन्नई में और फिर बहुत दिनों बाद दिल्ली में प्रभाष जोशी से बात की।
उनका आग्रह था कि रामनाथ गोयनका चले गए। इंडियन एक्सप्रेस उनके ज़माने जैसा नहीं चलेगा। आप हमारे साथ आ जाइये। इस पर प्रभाष जोशी ने उनसे कहा कि मैं अपना फ़र्ज़ जानता हूं। यह नहीं जानता कि रामनाथ गोयनका के वारिस इसे समझेंगे या नहीं। वे जो भी करें इससे मुझ पर ज्यदा फर्क नहीं पड़ता। मैं पत्रकारिता में लोकहित के लिए आया। इंडियन एक्सप्रेस को रामनाथ गोयनका ने लोकहित के लिए हस्तक्षेप का औजार बनाया था। उसका मुझे निर्वाह करते रहना है। यह प्रभाष जोशी की अपनी प्रतिबद्धता है। लेकिन देखते ही देखते इंडियन एक्सप्रेस एक उसी तरह का कॉरपोरेट घराना हो गया जैसे दूसरे हैं।
वहां जो पुरस्कार का चलन शुरू हुआ उसे कॉर्पोरेट घराने ही तय करवाते हैं और समारोह उन्ही की संस्कृति में बड़े होटलों में होते हैं। जो अखबारी घराना लोकहित के लिए जाना जाता था वह नवसाम्राज्यवाद का वाहक बन गया। उसमें ख़बरें जरुर लोकलाज के कारण समय-समय पर कुछ कौतुहल पैदा करने वाली आती हैं। पारिवारिक झगड़े के कारण भी जनसत्ता के लिए जो योजनायें बनी वे धरी रह गईं। जनसत्ता के दस साल होने पर उसके कायाकल्प की योजना प्रभाष जोशी ने बनाई। ’अपने सभी वरिष्ठ साथियों को लेकर हम हरियाणा के नए पर्यटक स्थल दमदमा साहिब गए।
दो दिन साथ रहकर खूब सोच-विचार किया। फिर दूसरे भी कई लोगों के साथ सोचा। ’उसके बाद 2 दिसंबर, 1993 को जनसत्ता के सभी साथियों से उन्होंने लंबी बात की। बताया कि संकट क्या है और क्या उपाय हो सकते हैं। समस्या यह थी कि राष्ट्रीय अख़बारों की क्षेत्रीय अख़बारों ने घेरेबंदी कर ली थी। इसे समझकर योजना बनाने की बात चल रही थी। इस बारे में उन्होंने विवेक गोयनका से भी बात की। उन्ही दिनों कलकत्ता का संस्करण निकला इस तरह जनसत्ता दस सालों में चंडीगढ़, मुंबई और कलकत्ता से निकलने लगा था।
कलकत्ता संस्करण के पहले दिन उन्होंने “चालां वाही देस” शीर्षक से पाठकों को बताया कि जनसत्ता का वहां से निकलने से का प्रयोजन क्या है। ‘बनारस में गंगा जहां उत्तर की तरफ मुड़कर बहने लगती है। वहां वह सबसे पवित्र मानी जाती है। क्योंकि वहां वह अपने उद्गम की ओर देखती हुई अपने मूल को टेरती है। कलकत्ता हिंदी पत्रकारिता का उद्गम है। इसलिए जनसत्ता का यहां आना अपने मूल से टेरना है, यह एक आदिम हूक है। किसी अख़बार घराने की विस्तारवादी महत्वाकांक्षा नहीं। मीरा ने जब ‘चालां वाही देस’ गाया तो वह अपने राणा के राज में नहीं गिरधर गोपाल के देस में जाना चाहती थी।
हिंदी पत्रकारिता कलकत्ते में शुरू होकर कोई एक सदी से ज्यादा समय तक स्वाधीनता आंदोलन की तलवार बनी रही। अपने नव संस्कार के लिए हिंदी पत्रकारिता अगर अपने उद्गम और अपनी बंगीय परंपरा को अपनाये तो यह उसके लिए शुभ ही है। जनसत्ता के इस उपक्रम से किसी को भी चिंतित होने की जरुरत नहीं है। हिंदी पत्रकारिता के उद्गम और साधना क्षेत्र में सबके लिए जगह है। पत्रकारिता की जो भी धारा अपने उद्गम से अपने को जोड़ने की कोशिश करेगी वह स्मृद्ध ही होगी। नए संस्कार और नई जिम्मेदारी के लिए जनसत्ता कलकत्ता आया है, किसी का स्थान लेने या किसी का हक़ छीनने के लिए नही। उसकी आकांक्षा सेवा की है और उसके होंठों पर प्रार्थना है…..जारी
कृपया धीरूभाई अंबानी पर प्रभाष जोशी द्वारा लिखे गए आलेखों की प्रति यदि संभव हो तो उपलब्ध करने का कष्ट करें।
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