आठ जुलाई 1497, शनिवार का दिन, वो दिन जिसे पुर्तगाल के शाही ज्योतिषयों ने बड़ी सावधानी से चुना था.
राजधानी लिस्बन की गलियों में जश्न का सा माहौल है. लोग जुलूसों की शकल में समंदर किनारे का रुख कर रहे हैं जहां चार नए नकोर जहाज़ एक लंबा सफ़र शुरू करने के लिए तैयार खड़े हैं.
शहर के तमाम शीर्ष पादरी भी चमकीले लिबास पहलने आशीर्वाद देने पहुंच गए हैं और समूह गान कर रहे हैं भीड़ उनकी आवाज़ से आवाज़ मिला रही है.
बादशाह रोम मैनवल इस मुहिम में व्यक्तिगत दिलचस्पी ले रहे हैं. वास्को डी गामा के नेतृत्व में चारों जहाज़ लंबे समुद्री सफ़र के लिए ज़रूरी नए उपकरणों व ज़मीनी और आसमानी नक़्शों से लैस हैं. साथ ही साथ उन पर उस दौर के आधुनिक तोपें भी तैनात हैं.
जहाज़ के 170 के क़रीब नाविकों ने बिना आस्तीन वाली क़मीज़ें पहन रखी हैं. उनके हाथों में जलती हुईं मोमबत्तियां हैं और वो एक फ़ौजी दस्ते की तरह जहाज़ों की तरफ़ धीमे-धीमे मार्च कर रहे हैं.
ये लोग उस मंज़र की एक झलक देखने और मल्लाहों को विदा करने पहुंचे हैं. उन की आंखों में ग़म और ख़ुशी के मिले जुले आंसू हैं. वो जानते हैं कि सालों लंबे इस सफर पर जाने वालों में से बहुत से, या शायद सभी, वापस नहीं आ सकेंगे.
उससे बढ़कर उन्हें ये भी अहसास है कि अगर सफ़र कामयाब रहा तो यूरोप की एक खुरदुरेपन में बसा एक छोटा सा देश पुर्तगाल दुनिया के इतिहास का एक नया पन्ना उलटने में कामयाब हो जाएगा.
ये अहसास सही साबित हुआ. दस माह और बारह दिन बाद जब ये जहाज़ी बेड़ा हिंदुस्तान के साहिल पर उतरा तो उस की बदौलत यूरोप की समुद्री तन्हाई ख़त्म हो गई, दुनिया की विपरीत दिशाओं में बसे पूर्व और पश्चिम पहली बार समुद्री रास्ते से न सिर्फ़ एक दूसरे से जुड़े बल्कि टकरा गए.
अटलांटिक महासागर और हिंद महासागर आपस में जुड़कर एक जलमार्ग बन गए और दुनिया के इतिहास ने एक नई करवट बदली.
दूसरी तरफ़ ये किसी यूरोपीय देश की ओर से एशिया व अफ़्रीका में उपनिवेश स्थापित करने की पहल भी साबित हुआ जिसके कारण दर्जनों देश सदियों तक बदतरीन हालात की चक्की में पिसते रहे और जिससे निकलने की ख़ातिर वो आज भी हाथ-पैर मार रहे हैं.
इस वाक़ये ने दक्षिण एशिया के इतिहास को भी यूं झिंझोड़ दिया कि आज हम जो ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं, वास्को डि गामा के उस सफ़र के बग़ैर उसकी कल्पना भी मुमकिन नहीं थी. उस ऐतिहासिक सफ़र की बदौलत दक्षिण एशिया बल्कि तमाम एशिया पहली बार मक्का, आलू, टमाटर, लाल मिर्च और तम्बाकू जैसी फ़सलों से परिचित हुआ जिनके बग़ैर आज की ज़िंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती.
पुर्तगालियों ने दक्षिण एशिया की संस्कृति को किस तरह प्रभावित किया? उसकी मिसाल हासिल करने के लिए जब आप बाल्टी से पानी उडेल कर साबुन से हाथ धोकर तौलिए से सुखाते हैं और अपने बरामदे में फीते से नाप कर मिस्त्री से एक फालतू कमरा बनवाते हैं और फिर नीलाम घर जाकर उस कमरे के लिए अलमारी, मेज़ और सोफ़ा ख़रीद लाते हैं और फिर चाय पर्च में डाल कर पीते हैं तो एक ही वाक्य में पुर्तगाली के 15 शब्द आप इस्तेमाल कर चुके होते हैं.
ये पुर्तगाल की हिंदुस्तान तक पहुंचने की पहली कोशिश नहीं थी. पश्चिमी यूरोप का ये छोटा सा देश कई अर्सों से अफ़्रीका के पश्चिमी तटों की नक़्शाबंदी कर रहा था और उस दौरान सैकड़ों नाविकों की क़ुर्बानी भी दे चुका था.
आख़िर यूरोपी पुर्तगाल को हिंदुस्तान में इस क़दर दिलचस्पी क्यों थी कि वो उस पर अपने इतने संसाधन झोंकने के लिए तैयार था?
अभी कुछ ही साल पहले 1453 में उस्मानी सुल्तान मेहमद द्वितीय ने कांस्टेंटिनोपल (आज का इस्तांबुल) पर क़ब्ज़ा करके यूरोप की बुनियाद हिला दी थी. अब पूर्व से अधिकतर व्यापार उस्मानियों या फिर मिस्र के ज़रिए ही संभव था जो हिंदुस्तान और एशिया के दूसरे इलाक़ों में मिलने वाले उत्पादों ख़ासतौर पर मसालों पर भारी कर वसूल करते थे.
दूसरी ओर यूरोप के अंदर भी वेनिस और जेनेवा ने एशिया के साथ ज़मीनी रास्तों से सफ़र वाले व्यापार पर एकाधिकार क़ायम कर रखा था जिससे दूसरे यूरोपीय देशों ख़ास तौर पर स्पेन और पुर्तगाल को बड़ी परेशानी थी. यही वजह है कि वास्को डी गामा के सफ़र से पांच साल पहले स्पेन ने क्रिस्टोफ़र कोलंबस के नेतृत्व में पश्चिमी रास्ते से हिंद्स्तान तक पहुंचने के लिए एक अभियान रवाना किया था.
लेकिन पुर्तगालियों को मालूम था कि कोलंबस की मंसूबाबंदी कच्ची और उनकी जानकारी कम है और वो कभी भी हिंदुस्तान नहीं पहुंच पाएंगे. वाक़ई कोलंबस मरते दम तक समझते रहे कि वो हिंदुस्तान पहुंच गए हैं वो दुर्घटनावश एक नया महाद्वीप खोज बैठे.
अलबत्ता पुर्तगालियों को अपनी खोजों और पिछले समुद्री अभियानों से मालूम हुआ था कि अगर अटलांटिक सागर में दक्षिण की ओर सफ़र किया जाए तो अफ़्रीका के लटकते हुए दामन के नीचे से हो कर हिंद महासागर तक पहुंचा और एशिया से व्यापार में बाक़ी यूरोप का पत्ता काटा जा सकता है.
रास्ते में पेश आने वाली बेपनाह मुश्किलों के बाद वास्को डी गामा यूरोप के इतिहास में पहली बार अफ़्रीका के दक्षिणी साहिल को छूने में कामयाब हो गए. हालांकि हिंदुस्तान अभी भी हज़ारों मील दूर ता और उसका सही रास्ता पहचानना अंधेरे में सुई तलाशने जैसा था.
ख़ुशक़िस्मती से उन्हें केन्या के तटीय शहर मालिंदी से एक गुजराती मुसलमान व्यापारी मिल गया जो हिंद महासागर से ऐसे परिचित था जैसे अपनी हथेली की लकीरों से.
उस वाक़्ये के पांच सदियों बाद भी अरब के जाहज़ी उस गुजराती व्यापारी की नस्लों को कोसते हैं जिसने ‘फ़िरंगियों’ पर हिंद महासागर का राज खोल कर यहां स्थापित हज़ारों साल के व्यापारिक ताने-बाने को छिन-भिन्न कर दिया.
उसी नाख़ुदा की रहनुमाई में 20 मई सन 1498 को 12 हज़ार मील के सफ़र और दल के दर्जनों लोगों को गंवाने के बाद वास्को डी गामा आख़िरकार हिंदुस्तान में कालीकट के साहिल तक पहुंचने में कामयाब रहे.
उस ज़मानों के यूरोप की हिंदुस्तान से बेख़बरी का अंदाज़ा इस से लगाएं कि कालीकट में निवास के दौरान वास्को डी गामा हिंदुओं को कोई गुमराह ईसाई फिरक़ा समझते रहे. पुर्तगाली नाविक मंदिरों में जाकर हिंदू देवियों की मूर्तियों को बीवी मरियम और देवताओं को ईसाई औलिया समझकर उनके सामने झुकते रहे.
कालीकट के ‘समंदरी राजा’ कहलाए जाने वाले ने अपने महल में वास्को डी गामा का ज़बरदस्त स्वागत किया. बरसती बारिश में वास्को डी गामा को छतरी लगी पालकी में बिठाकर बंदरगाह से दरबार तक लाया गया. लेकिन ये ख़ुशगवारी उस वक़्त तल्ख़ी में बदल गई जब उस ज़माने की परंपरा के मुताबिक वास्को ने राजा को तोहफ़े पेश किए (लाल रंग की हैट, पीतल के बर्तन, चंद किलो चीनी और शहद) वो इस क़दर मामूली निकले की मेहमानदारी के वज़ीर ने उन्हें राजा को दिखाने से इनकार कर दिया.
इसका नतीजा ये निकला कि स्थानीय अधिकारी वास्को डी गामा को किसी अमीर देश के शाही यात्री के बजाए समुद्री लड़ाकू समझने लगे.
समुद्री राजा ने वास्को डी गामा की ओर से व्यापारिक कोठियां स्थापित करने और पुर्तगाली व्यापारियों का टैक्स माफ़ करने की अपील रद्द कर दी. हालात यहां तक पहुंच गए कि स्थानीय लोगों ने हल्ला बोल कर कई पुर्तगालियों को मार डाला.
वास्को डी गामा के गुस्से का कोई ठिकाना ना रहा. उसके जहाज़ों में जो तोपें तैनात थीं उसका समुद्री राजा के पास कोई जवाब नहीं था. उन्होंने कालीकट पर बम्बारी करके कई इमारतें और शाही महल तबाह कर दिए और समंदरी राजा को देश के भीतरी हिस्सों में भागने पर मजबूर कर दिया.
राजनयिक विफलता अपनी जगह, लेकिन कालीकट में तीन माह रहने के दौरान यहां की मंडियों से बेशक़ीमती मसाले इतनी तादाद में और इतने सस्ते मिले कि उसने जहाज़ के जहाज़ भरवा दिए.
वास्को डी गामा का वापसी का सफ़र बेहद मुश्किलों भरा रहा. आधा दल बीमारियों और एक जहाज़ तूफ़ान का शिकार हो गया. आख़िरकार लिस्बन से रवाना होने के ठीक दो साल बाद दस जुलाई 1499 को 28 हज़ार किलोमीटर का सफर तय करने के बाद जब पुर्तगाली बेड़ा वापस लिस्बन पहुंचा (वास्को डी गामा अपने बाई की बीमारी की वजह से एक द्वीप पर रुक गए थे) तो उसका ज़बरदस्त स्वागत किया गया. ये अलग बात है कि 170 के दल में से सिर्फ़ 54 लोग ही ज़िंदा लौट सके थे.
शाह मैनवल द्वितीय ने ये बात सुनिश्चित की कि तमाम यूरोप को उसकी कामयाबी की ख़बर तुरंत मिल जाए. उन्होंने स्पेन की महारानी इसाबेला और शाह फर्डीनांड को ख़त लिखते हुए धार्मिक कार्ड खेलना ज़रूरी समझा- “ख़ुदा के करम से वो व्यापार जो इस इलाक़े के मुसलमानों को मालदार बनाती है, अब हमारी सल्तनत के जहाज़ों के पास होगा और ये मसाले तमाम ईसाई दुनिया तक पहुंचाए जाएंगे.”
लेकिन सवाल ये था कि एक छोटा सा देश हज़ारों मील दूर से बड़े पैमाने पर स्थापित व्यापारिक नेटवर्क कैसे तोड़ पाने की उम्मीद रख सकता है?