भारत में किसान आंदोलनों की एक लंबी और सतत श्रृंखला है। किसान संघर्ष इतिहास में अपना अलग महत्तव रखते हैं। इन आंदोलनों ने कई ऐतिहासिक अवसरों पर निर्णायक भूमिका निभाई। आजादी के आंदोलन में किसान आंदोलनों का अपना अलग स्थान है। ऐसे कई किसान आंदोलन हुए जिससे अंग्रेजी हुकूमत के पैर उखड़ गए। इस तरह के आंदोलन भारत के हर हिस्से में हुए। कुछ ने तो इतिहास के पन्नों पर जगह बनाई और कुछ नहीं बना सके। प्रज्ञा संस्थान का लोकनीति केन्द्र ऐसे किसान आंदोलनों के बारे में जानकारियां आपसे साझा करने जा रहा है। अगर किसी किसान आंदोलन के बारे में आपको और कुछ पता हो तो आप उस बारे में हमें बताएं। हम उन जानकारियों को लोगों तक पहुंचाने का काम करेंगे। हम इस श्रृंखला की शुरूआत सन्यासी विद्रोह से करेंगें। नाम तो सन्यासी विद्रोह था लेकिन था वह किसान आंदोलन ही….आनंद मठ उपन्यास इसी आंदोलन पर आधारित है। राष्ट्रीय गीत वंदेमातरम्…इसी का हिस्सा है..
बंगाल में अंग्रेजों का शासन साल 1757 में स्थापित हो चुका था। बंगाल में अंग्रेजों के शासन स्थापित होने के बाद औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का बोझ वहां की जनता के ऊपर बहुत तेजी से महसूस होने लगा। अंग्रेजों ने राज्य की प्रमुख आमदनी के स्रोत भू-राजस्व की दर बढ़ा दी। भू-राजस्व की वसूली बहुत कठोरता से करने लगे। शिल्पकारों, जमींदारों और किसानों की हालत बिगड़ने लगी। साल 1970 में बंगाल में अकाल पड़ा। अंग्रेजों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। करों की वसूली बदस्तूर और निर्मम तरीके से जारी रही। उस दौर मे बंगाल में वर्तमान पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश, बिहार और उड़ीसा भी शामिल थे।
इसी समय में अंग्रेजो ने तीर्थस्थानों पर आने-जाने पर भी कर लगा दिया। हालांकि इस विद्रोह को संन्यासी विद्रोह का नाम दिया गया, लेकिन विलियम हंटर की माने तो इस विद्रोह की प्रमुख शक्ति बर्बाद हो चुके किसान थे। देशी राज्यों के बेकार हो चुके पूर्व सैनिक भी संन्यासियों के साथ मिलकर आंदोलन की भूमिका तैयार की।
स्थानीय ग्रामीणों ने इन आंदोलनकारियों जिन्हें उस दौर में विद्रोही कहा जाता था उन्हें पूरा समर्थन और शरण दी। इन लोगों ने अंग्रेजों की व्यापारिक कोठियों को निशाना बनाया। उनपर अनेक सफल हमलों को अंजाम दिया। पूर्णिया में 1770-71ई. में हुई एक लड़ाई में अंग्रेजों ने संन्यासी आंदोलनकारियों को पराजित करने और उनको बड़ी संख्या में कैद करने में सफलता पाई। मुर्शिदाबाद के रेवेन्यू बोर्ड के पास भेजे गए पत्रों से साफ पता चलता है कि इनमें से ज्यादातर किसान ही हैं। अंग्रेजों के संगठित हमलों के बावजूद यह आंदोलन बढ़ता ही गया और उत्तरी बंगाल से अन्य इलाकों में भी फैलने लगा। कई अंग्रेज अधिकारियों ने अपने उच्च अधिकारियों को पत्रों के माध्यम से सूचना भेजी कि स्थानीय किसान आंदोलनकारियों को रसद का इंतजाम कर रहे हैं। साथ ही यह भी सूचना पहुंचाई गई कि लगान चुकाने से किसान इंकार करते हैं। 1773 ई. में आंदोलन का प्रमुख केंद्र रंगपुर था। अगले साल वह मैममनसिंह जिले को अपना केंद्र बना चुके थे।
इससे बाध्य होकर बंगाल के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने ऐलान किया कि जो भी किसान आंदोलनकारियों की मदद करेंगे और अंग्रेज प्रशासन की मदद नहीं करेंगे उनको गुलाम बनाकर बाजार में बेच दिया जाएगा। भय उत्पन्न करने के लिए विद्रोहियों को सार्वजनिक रूप से फांसी देने का तरीका अपनाया गया। इस आंदोलन में भवानी ठाकुर और देवी चौधरानी की प्रमुख भूमिका थी। अंग्रेजों ने एक लंबी और निर्मम कार्यवाई के बाद इस आंदोलन को दबाया। बंकिमचंद्र चटर्जी ने ही इस विद्रोह की पृष्ठभूमि पर ही अपने प्रसिद्ध उपन्यास आनंदमठ की रचना की है। हमारा राष्ट्रगीत वंदे मातरम भी इसी उपन्यास का एक हिस्सा है।
वंदे मातरम,वंदे मातरम
सुजला सुफला मलयज-शीतलाम
शश्य-शामलाम मातरम
वंदे मातरम
शुभ्र-ज्योत्स्ना-पुलकित यामिनी
फुललकुसुमित-द्रुमदल शोभिनी
सुहासिनीं सुमधुर भाषिनीं
सुखदां वरदां मातरम
वंदे मातरम