दलाईलामा की अंतर्दृष्टि

 

बनवारी

नया दलाई भारत में भी पैदा हो सकता है कहकर दलाई लामा ने ऐसा तूफान खड़ा किया है जिससे चीन को मिर्ची लगनी तय है। इससे भारत और चीन के बीच राजनैतिक तनातनी भी बढ़ सकती है। भारत को उसके लिए तैयार रहना चाहिए।

दलाईलामा के इस वक्तव्य पर कम ही लोगों ने ध्यान दिया होगा कि उनका पुनर्जन्म भारत में भी हो सकता है। यह बात उन्होंने एक साक्षात्कार के दौरान एक पत्रकार से कही और उसमें जोड़ा कि अगर चीन अपने चुने हुए किसी व्यक्ति को दलाईलामा के रूप में तिब्बत पर थोपता है तो तिब्बत के लोग उसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे। दलाईलामा एक आध्यात्मिक व्यक्ति हैं, वे अंर्तदृष्टि से संपन्न हैं इसलिए उनके इस कथन का बहुत महत्व है। एक बार उन्होंने कहा भी था कि यह उनका जीवन है और उन्हें तय करना है कि वे आगे दलाईलामा के रूप में पुनर्जन्म लेंगे या नहीं और लेंगे तो कहां लेंगे। दलाईलामा ने तिब्बतियों का शासक होने का राजनैतिक दायित्व कुछ समय पहले स्वेच्छा से ही छोड़ दिया था। पर उनका यह वक्तव्य काफी गंभीर है और उसके राजनैतिक परिणाम होने वाले हैं।
इसलिए इसके बारे में हमारे यहां गंभीरता से विचार होना चाहिए। चीन दलाईलामा को विभाजक नेता बताते हुए हमेशा उनके प्रति अपशब्दों का प्रयोग करता रहा है। उसने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अगले दलाईलामा के चुनाव का अधिकार केवल चीन सरकार को है। दलाईलामा का पुनर्जन्म भारत में होता है तो तिब्बत के दो दलाईलामा हो जाएंगे। एक वह जिसे चीन दलाईलामा कहकर तिब्बतियों पर थोपेगा और दूसरे वह जो परंपरागत विधि से भारत में रह रहे तिब्बतियों के धार्मिक प्रतिष्ठान द्वारा पूर्वोक्त संकेतों के आधार पर दलाईलामा के रूप में चिन्हित किए जाएंगे। चीन भारत पर दबाव डालेगा कि भारत केवल चीन द्वारा स्वीकृत दलाईलामा को मान्यता दे। निश्चय ही भारत को ऐसा नहीं करना चाहिए और संभवत: वह ऐसा करेगा भी नहीं। इससे भारत और चीन के बीच राजनैतिक तनातनी बढ़ेगी।

भारत को उसके लिए तैयार रहना चाहिए। अब तक हमने तिब्बत पर चीन का जबरन कब्जा होने देकर जो अपराध किया है, उसका प्रायश्चित यही है कि हम तब्बतियों के इस धार्मिक प्रतिष्ठान की रक्षा करें और उस समय की प्रतीक्षा करें जब तिब्बती अपने पुरुषार्थ से अपनी स्वतंत्रता फिर अर्जित कर लेंगे और दलाईलामा उनके धार्मिक गुरू के रूप में तिब्बतियों के बीच फिर वापस तिब्बत जा सकेंगे। चीन ने 1950 में तिब्बत पर आक्रमण किया था। चीन ने दलाईलामा को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अंग बनाने की कोशिश की। दलाईलामा उस समय केवल 15 वर्ष के थे। दो वर्ष की आयु में उनको 14वें दलाईलामा के रूप में चिन्हित किया गया था। उनकी विधिवत शिक्षा आदि शुरू हुई थी।
उस समय की अस्थिर परिस्थितियों को देखते हुए 22 फरवरी 1940 को उन्हें दलाईलामा के पद पर अवस्थित कर दिया गया था और 1950 में उन्हें तिब्बतियों के शासक के राजनैतिक दायित्व भी सौंप दिए गए थे। चीन के कम्युनिस्ट शासक अपने विस्तारवादी नीतियों के चलते उन सब क्षेत्रों को हड़पने में लगे थे जो विदेशी मंगोल या मांचू शासन के दौरान चीनी साम्राज्य का अंग रहे थे। इस सिलसिले में मंचूरिया मंगोलिया का एक बड़ा भाग और शिनजियांग पर कब्जा हुआ। मंगोल और मांचू शासन के दौरान भी तिब्बत की विशेष स्थिति थी। मंगोल और मांचू

सम्राट दलाईलामा को अपना गुरू स्वीकार करते थे और बदले में वे तिब्बत की रक्षा के लिए वचनबद्ध थे।
तिब्बत की रक्षा का दायित्व का यह अर्थ नहीं था कि वे तिब्बत को एक स्वतंत्र राज्यसत्ता नहीं मानते थे। लेकिन चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने तिब्बत की स्वतंत्रता हड़प ली। दलाईलामा को एक बार माओ से मिलवाने के लिए चीन भी ले जाया गया था। लेकिन तिब्बतियों ने चीन के औपनिवेशिक शासन से 1959 में विद्रोह कर दिया। वह विद्रोह असफल होना ही था क्योंकि चीन की सामरिक शक्ति का मुकाबला करने का सामर्थ्य तिब्बत में नहीं था। भारत चीन के इस अतिक्रमण पर आपत्ति कर सकता था लेकिन जवाहर लाल नेहरू अपने वामपंथी आग्रहों के कारण तिब्बत पर चीनी हमले से आंखें मूंदे रहे। बाद में उन्होंने तिब्बत पर चीन का अधिपत्य स्वीकार करके भविष्य की भारतीय सरकारों के भी हाथ बांध दिए। दलाईलामा 1954 में अपनी भारत की यात्रा के दौरान जवाहर लाल नेहरू से मिले थे। तब उन्होंने जवाहर लाल नेहरू से पूछा था कि अगर वे भारत में राजनैतिक शरण लेना चाहे तो क्या भारत उन्हें राजनैतिक शरण देगा। जवाहर लाल नेहरू ने भारत और चीन के बीच हुए शांति समझौते का हवाला देते हुए उन्हें ऐसा करने से हतोत्साहित किया था। फिर भी 1959 में जब तिब्बतियों ने चीनी शासन से विद्रोह किया तो 30 मार्च को दलाईलामा अपने अनुयायियों के साथ ल्हासा छोड़कर भारत की ओर निकल पड़े।

भारत पहुंचने पर उन्हें शरण दी गई क्योंकि तिब्बत संबंधी नेहरू की नीतियों का देश में काफी विरोध हुआ था और नेहरू सीमा पार कर भारत में पहुंचे दलाईलामा को चीन को सौंपने का राजनैतिक खतरा नहीं उठा सकते थे। भारत में उसका बहुत विरोध हुआ होता। भारत सरकार ने दलाईलामा और उनके अनुयायियों के पुनर्वास का दायित्व स्वीकार किया। मुख्यत: इसी से चिढ़कर चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया था। तब से दलाईलामा भारत में रह रहे हैं। वे दुनियाभर में घूमकर बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रसार करते रहे हैं। अपने विचारों में वे अब तक के दलाईलामा से अलग हैं। वे काफी खुले और उदार हैं और उन्होंने चीन के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की भी काफी कोशिश की। उन्होंने 1988 में ही यह प्रस्ताव कर दिया था कि वे तिब्बत पर चीन का अधिकार स्वीकार कर लेंगे अगर चीन तिब्बतियों को स्वशासन का अधिकार दे दे। लेकिन अब तक चीन से उनकी मध्यस्थों के द्वारा चली सभी वार्ताएं निष्फल रही हैं। समय-समय पर तिब्बत में चीनी शासन के विरुद्ध हिंसक विद्रोह भड़कते रहते हैं, लेकिन उनके परिणामस्वरूप चीनी प्रशासन और भी निरंकुश होता रहा है।

चीन तिब्बत के विकास के नाम पर उसे एक सामरिक अड्डा बना रहा है। इस नाते वह भारत के लिए भी बहुत बड़ी चुनौती है। चीन ने तिब्बत के जनभूगोल को बदलने की भी काफी कोशिश की है। चीन से बड़ी संख्या में हान चीनियों को तिब्बत में लाकर बसाया जा रहा है। पर इससे समस्या सुलझने के बजाय उलझ रही है। चीनी स्थानीय तिब्बती आबादी से मेल नहीं बैठा पाते इसलिए एक स्थायी तनाव बना रहता है। दलाईलामा ने तिब्बत की आजादी के लिए विश्व जनमत जगाने की काफी कोशिश की, लेकिन अभी चीन एक उभरती हुई विश्व शक्ति है और उसकी आक्रामक नीतियों को देखते हुए कोई चीन से उलझना नहीं चाहता। हालांकि तिब्बतियों के अधिकारों को लेकर अब दुनियाभर में कहीं अधिक जागरूकता है। कुछ समय पहले दलाईलामा ने अपने शासकीय दायित्व स्वेच्छा से छोड़ दिए थे। एक साक्षात्कार में उन्होंने यह भी कहा कि दलाईलामा का संस्थान उनके बाद रहे या न रहे, यह तिब्बतियों को तय करना है। ऐसा उन्होंने इस आशंका के चलते कहा था कि उनके बाद

तिब्बतियों पर चीन अपने चुने हुए दलाईलामा को थोपने की कोशिश करेगा। वे यह घोषित कर चुके हैं कि अभी वे काफी स्वस्थ हैं।
इस समय वे 83 वर्ष की आयु के हैं और अपनी अनुशासित जीवनशैली के कारण वे काफी स्वस्थ और स्फूर्तिमय सक्रिय जीवन जी रहे हैं। इसीलिए उन्होंने घोषित किया है कि जब वे 90 वर्ष के हो जाएंगे तो तिब्बत के धार्मिक प्रतिष्ठान से विचार-विमर्श करेंगे कि इस परंपरा को जारी रखा जाए या उनके साथ ही दलाईलामा का पद भी समाप्त कर दिया जाए। अगर सबकी राय इस परंपरा को बनाए रखने की होती है तो वे अपने पुर्नजन्म के बारे में लिखित संकेत छोड़कर जाएंगे और अब तक की परंपरा तथा विधि-विधान के अनुसार ही उनके उत्तराधिकारी का चयन होगा। भारत को तिब्बत और दलाईलामा से जुड़े इन सभी प्रश्नों पर अब अधिक गंभीरता से और एक दीर्घकालिक नीति बनाने के लिए विचार करना आरंभ करना चाहिए। दलाईलामा ने कुछ समय पहले कहा था कि वे बाहरी रूप से तिब्बती हैं, लेकिन आंतरिक रूप से भारतीय हैं। इस पर चीन में काफी हल्ला मचा था। उसका स्पष्टीकरण देते हुए चीन को यह याद दिलाया गया था कि तिब्बती संस्कृति का चीनी संस्कृति से कोई मेल नहीं है।

जवाहर लाल नेहरू अपने वामपंथी आग्रहों के कारण तिब्बत पर चीनी हमले से आंखें मूंदे रहे। बाद में उन्होंने तिब्बत पर चीन का अधिपत्य स्वीकार करके भविष्य की भारतीय सरकारों के भी हाथ बांध दिए।

तिब्बत का बौद्ध धर्म मध्यकाल में नालंदा बिहार की बज्रयान की शिक्षाओं के आधार पर ही पनपा और फलाफूला था। इसलिए भारत से तिब्बतियों का आत्मीय संबंध है। वैसा संबंध उनका न कभी चीन से रहा है और न बनने की संभावना है। भारत में यह मांग अनेक बार उठाई गई है कि दलाईलामा को भारत रत्न दिया जाना चाहिए। अगली सरकार को इस पर कुछ निर्णय लेना चाहिए। हमें यह मानकर चलना चाहिए कि तिब्बत और तिब्बतियों के प्रति हमारे विशेष दायित्व हैं, उन्हें पूरा करने के लिए हमें चीन का विरोध भी सहना पड़े तो इसके लिए तैयार रहना चाहिए।

 

 

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