हर लेते हैं जीवन का तमस…..
धार्मिक यात्राएं भी अपने आप में अनोखी और स्फूर्ती देने वाली होती है। मेरे कई सालों के अनुभव से मैं कह रही हूं। क्योंकि एक मिडिल क्लास परिवार से ताल्लुक रखती हूं और यात्राओं का तार्किक अर्थ से भी खूब वाकिफ हूं… फिर चाहे वैष्णों माता, नैना देवी, मनसा देवी की चढाई हो या फिर तिरूपति देव के दर्शन की यात्रा हो। शादी के बाद तो इस तरह की यात्राओं की प्लानिंग ही जैसे बंद हो गई हो। भला हो गर्मियों की छुट्टियों का….इसी के कारण पूरा परिवार कई सालों बाद इक्कठा हुआ, फिर क्या था मां ने बोला चलों बेटा हरिद्वार। हरिद्वार कई बार जाना हुआ…लेकिन इस बार कुछ अलग अहसास हुआ क्योंकि इस बार हमने अपनी धार्मिक यात्रा पूरी की। माना जाता है कि हरिद्वार, ऋषिकेश स्नान के बाद बाबा भोले नाथ यानि नीलकंठ के दर्शन भी जरूरी हैं….इसके बिना यात्रा हमेशा अधूरी ही है…..शायद यही वजह रही कि इस बार हरिद्वार की यात्रा पूरी हुई।
इससे पहले कई बार हरिद्वार रुके भी लेकिन किसी से नीलकंठ के बारे में नहीं सुना था….लेकिन इस बार टैक्सी ड्राइवर और मेरी सहेली निर्मला के कारण यह संभव हो पाया। खैर टैक्सी बुक की गई और चल पड़े दिल्ली से बाबा भोले नाथ की नगरी हरिद्वार। रास्ते में कई लोगों गाड़ियों में देखा तो लगा कि सभी लोग हरिद्वार जा रहे हैं…खासकर पेट्रोल पंप और सीएनजी पंप पर रूके लोगों को रिफ्रेश होते देख। मन में सवाल भी जाग रहे थे सो पूछ बैठ रहे थे ड्राइवर से … जैसे भई इस समय काफी ट्रैफिक नजर आ रहा है क्या सभी हरिद्वार ही जा रहे हैं । ड्राइवर बोला नहीं मैडम चार धाम की यात्रा भी शुरू हो चुकी है ज्यादातर लोग उसी यात्रा पर निकले हैं। फिर चार धाम के बारे में उत्सुक्ता हुई तो वो सवाल काटते हुए नीलकंठ बाबा के बारे में बताने लगा, फिर उसके टेढ़े-मेढ़े रास्ते के बारे में बताने लगा, जंगल से निकलने वाले जानवरों के बारे में और फिर वहां सैलानियों के लिए रिवर राफटिंग और दूसरे साहसिक खेल जिससे मेरा खासतौर पर दूर दूर का बैर है। डर लगता है और दर्जन भर स्प्राइट पीने के बाद भी वो डर नहीं जाता। खैर…रास्ते में रूकते रूकाते दिल्ली से करीब 6-7 घंटे में सुबह सात बजे हरिद्वार पहुंचे। गर्मी की तपिश वहां भी पीछे नहीं छोड़ रही थी, लेकिन गंगा माई के दर्शनों और स्पर्श से गर्मी छूमंतर हो गई। शीतल पानी इतना कि शिमला के बर्फ जैसा लेकिन एक बार जो पानी में डुबकी लगाई फिर तो मानों गंगा मां के गोद में ही रम लिए। कई मिनटों के बाद वहां से निकले और राम जी पूरी वाले के पास गए और तृप्त हो कर खूब खाया और चल पड़े अगले गंतव्य की ओर। ऋषिकेश का राम झूला और लक्ष्मण झूला से होते हुए चढ़ाई शुरू हुई 35 किलोमीटर ऊपर की यात्रा यानि नीलकंठ बाबा की। नीलकंठ बाबा पौड़ी गढ़वाल क्षेत्र में आते हैं…जंगल और टेढ़े मेढे भरे रास्ते में गंगा नदी ऊंचाई भी अच्छी लगती है लेकिन कभी कभी डराती भी है।
जंगल के बीच कुछ झरने भी हैं लेकिन चूंकि यहां जंगली जानवर भी हैं तो संभल कर जाएं और दूर से ही इसकी खूबसूरती का आनंद लें। करीब एक डेढ़ घंटे के ड्राइव के बाद मंदिर आता है। एक किलोमीटर पहले ही टैक्सी रूक जाती है। पहाड़ी की तरफ से पैदल फिर शुरू होता है महादेव के दर्शनों का सफर। रास्ते में प्रसाद के लिए काफी दुकानें भी आतीं है। यहां आपका विवेक काम करना बंद कर देगा….ऐसा इसलिए कहा क्योंकि प्रसाद तो 51 रूपये का भी लिया जा सकता है औऱ 501 का भी । लेकिन दुकानदारों के कहे अनुसार आपकी श्रद्धा ज्यादा नजर तभी आएगी जब आप 501 रूपये का प्रसाद लेंगे। इसमें आपकों पंचतत्व से बनी भगवान शिव की मूर्ति मिलेगी, रुद्राक्ष की माला, गुलाब जल, फूल, खील, चंदन आदि। इसके अलावा घर में सुख शांति बनाए रखने, व्यापार को समृद्ध करने, दांपत्य जीवन को सुखदायक बनाने वाले श्री यंत्र की थाली भी होगी। हमने तो सारे सुखों की कामना करते हुए संपूर्ण श्रीयंत्र की थाली ली औऱ चल पड़े। सोच रहे थे कि इतनी दूर जब बाबा के दर्शन के लिए आएं हैं तो पूरा प्रताप ले कर जाएं। सो थाली ली और चल पड़े । मंदिर के अंदर का हाल जानने से पहले आपको बता दें कि नीलकंठ मंदिर का बहुत पुराना इतिहास। इसके बनावट और मिजाज साउथ इंडियन मंदिरों जैसा है, लेकिन सिर्फ बाहर से अंदर से एक दम उत्तर भारतीय मंदिरों जैसा। जब यहां साउथ इंडियन और नार्थ इंडियन मंदिरों का जिक्र हो ही चला है तो मैं बता दूं कि दोनों के पूजा पद्धति में काफी अंतर है…लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही है परमात्मा के दर्शन और उनकी अनुभूति कराना।
माना जाता है कि समुद्रमंथन से निकले विष को बाबा भोले नाथ ने इसी जगह ग्रहण किया और फिर वे कैलाश की तरफ निकले। उनका शिवलिंग सदियों पुराना है।
मंदिर के अंदर भीड़ थी सो मन में कुचले जाने का भय भी था लेकिन वहां बरगद के पेड़ की शाखाएं हैं, जिनके छूने भर से मन का डर छू मंतर हो जाता है। मानों बाबा ने खुद हाथ थाम लिया हो। वो अनुभूति एकदम अभिभूत करने वाली थी। आगे ही बाबा के शिव लिंग के दर्शन हुए, प्रसाद चढ़ाया और फिर से एक बार उन दरखतों को स्पर्श किया । आज भी वो स्पर्श मेरे जहन में है जैसे किसी बच्चे के हाथ को किसी अपने ने थामा हो। मंदिर में पूजा के बाद बाहर उन्हें शहद और गुलाब जल से अर्पित किया, मंिदर के छज्जे पर बंदरों ने बाबा के चढ़ावे को ले लिया औऱ मजे से खाया। फोटों खींची गई और फिर वहां उनके मंदिर प्रांगण में शांति से कुछ वक्त बिताया। मंदिर प्रांगण में उसी जगह के एक फौजी की याद में तख्ती भी लगाई गई जिन्होंने कर्गिल युद्द में शहादत दी।
मंदिर का बाहरी आवरण दक्षिणी भारतीय जैसा क्यों है यह सवाल कई लोगों से पूछा…लेकिन लोगों को ज्यादा पता नहीं था। अनुमान से लगता है कि किसी दक्षिण भारतीय श्रद्धालु ने इसे बनवाया होगा। मंदिर से बाहर आकर वहां के समोसे और जलेबी खाई यह भी एक खूबसूरत ऱित है। मां के मुताबिक दर्शनों के बाद वहीं के खाना खाने से आत्मा तृप्पत हो जाती है। खैर, बाबा के सुंदर दर्शनों के बाद भारी मन से लौटे लेकिन फिर से आने के वायदे के साथ।