क्षेत्रीय अख़बारों से आये लोगों ने प्रभाष जोशी की अंगुली पकड़कर जनसत्ता को बनाया। तब एक संरक्षक का भाव था। प्रभाष जोशी ने जब संपादकी छोड़ी तब जनसत्ता चार जगहों से निकल रहा था। प्रधान संपादक पद से हटने के उनके फैंसले की भनक एक दिन पहले लगी। 17 नवम्बर, 1995 को अपना विदाई संपादकीय वे लिख चुके थे।एक दिन पहले अख़बार के सहयोगियों ने प्रभाष जी से उनके घर पर बातचीत की। सबका आग्रह था कि आप अपने फैंसले पर फिर से सोचें। हम चाहते हैं कि आपका नेतृत्व हमें मिलता रहे। उस दिन कुछ ही लोग गए थे लेकिन जिन्हें भी मालूम हुआ वे सब पहुंचे। इस तरह अखबार के ज्यादातर सहयोगी वहां थे जब बात हो रही थी। प्रभाष जी ने लोगों को सुनने के बाद कहा कि याद रखिये हमारे और आपके बीच संस्थान भी है. अख़बार के सामने तीन तरह की चुनौतियाँ हैं।राजनैतिक परिवर्तन हो गया है . औसत परिवार टीवी पर ज्यादा वक़्त दे रहा है।बाज़ार की अर्थव्यवस्था छा रही है। नीति, नैतिकता और जीवन मूल्यों को वह किनारे करती जा रही है। इनके मद्देनज़र अख़बार को बदलना है। उसे लोग सुनें और उनपर असर हो इसलिए निकलना है।
उनसे मिलकर सब लोग अख़बार के दफ्तर आए। तब एक्सप्रेस बिल्डिंग में दफ्तर था। पहले कोशिश हुई कि एक्सप्रेस समूह के चेयरमैन विवेक गोयनका से फोन पर बात हो और उन्हें अपनी भावना बता दी जाये। जब यह संभव नहीं हुआ तो यह चिटठी उन्हें भेजी गई। – हम सभी इस सूचना से स्तब्ध और आहत हैं कि श्री प्रभाष जोशी ‘जनसत्ता’ छोड़ रहे हैं। आपसे हम सभी का अनुरोध है कि प्रभाष जोशी को ‘जनसत्ता’ नहीं छोड़ने के लिए मनाएं। यह ‘जनसत्ता’ ही नहीं, पूरे एक्सप्रेस समूह की साख और पत्रकारिता की जीवंतता के लिए अनिवार्य है। आपसे तत्काल हस्तक्षेप की प्रत्याशा में, सादर। इस पर अख़बार के 34 साथियों ने हस्ताक्षर किए। इसी आग्रह का एक लम्बा पत्र चंडीगढ़ से सबकी ओर से ओम थानवी ने भेजा। कलकत्ता से श्याम आचार्य ने भी भेजा। मुंबई के साथियों को पत्र देने की जरुरत नहीं थी क्योंकि चेयरमैन वही थे .इस पत्र को पढ़ने के बाद विवेक गोयनका ने दिल्ली में हमसे बात की और उन्होंने कहा कि ‘मैं प्रभाष जी का आप लोगों से ज्यादा सम्मान करता हूं।’
इस बातचीत से उम्मीद बनी कि प्रभाष जोशी अख़बार में बने रहेंगें। हालांकि अपने वायदे के मुताबिक विवेक गोयनका को दिल्ली आना चाहिए था, लेकिन वे आए नहीं। उन्होंने प्रभाष जी को मुंबई बुलाया और वहीं इस बात के लिए मनाया कि वे संपादकीय सलाहकार हो जाएं। इस फैंसले की औपचारिक सूचना 29 नवंबर को उन्होंने दी। किसी अख़बार में ऐसा पहली बार हुआ। जब सहयोगियों के आग्रह को संपादक ने माना और चेयरमैन ने रास्ता निकाला। जिस तरह की बैचैनी उस समय खबर के बड़े लोगों में थी, वैसी ही उस समय भी महसूस की गई थी। जब प्रभाष जी 1981 में चंडीगढ़ से दिल्ली बुलाये गए थे। यहां यह बताना जरुरी है कि 1995 के नवंबर महीने में जनसत्ता के साथियों ने जो चार पत्र चेयरमैन को लिखे उन्हें प्रभाष जी ने आज तक देखा नहीं है। इसमें उनकी कोई रूचि नहीं थी। वह हमारा निर्णय था। संपादकीय सलाहकार का पद अख़बार में ऋषि का स्थान है। उस पर वे 12 साल रहे। 2007 की जुलाई में एक दिन विवेक गोयनका ने उनसे कहा कि बदलाव करना चाहता हूं। जवाब में उन्हें कहा कि जो करना हो करें। इसी साल यानि 16 अगस्त, 2009 को अशोक वाजपेयी ने प्रभाष जोशी को लोकनीति का सार्वजनिक बुद्धिजीवी बताया। ऐसे व्यक्ति का यही जवाब ठीक था।
प्रधान संपादक पद से हटने के बाद जनसत्ता में जो नई व्यवस्था बनी, उसमें विवेक गोयनका ने उनसे सलाह ली। उनके बाद राहुल देव, अच्युतानंद मिश्र और उनके बाद ओम थानवी कार्यकारी संपादक बनाए गए। राहुल देव, दो साल अपने पद पर थे। उस दौरान उनसे विवेक गोयनका ने एक बार भी बात नहीं की। उनके बाद किसी कार्यकारी संपादक से उनकी बात कभी नहीं हुई। प्रबंधन के लोग ही इनसे बात करते हैं। बनवारी जी ने नई व्यवस्था में सबसे पहले अपना रास्ता चुना। वे वरिष्ठ संपादक बनाए गए थे। उन्होंने अख़बार छोड़ना बेहतर समझा।
पारिवारिक विवाद का निपटारा सितम्बर 1997 में हुआ। एक समझौता हुआ जिसमें एक्सप्रेस समूह का दो हिस्से में बंटवारा किया गया और जायदाद का एक हिस्सा सरोज गोयनका को मिला। अखबार समूह उत्तर और दक्षिण में विवेक गोयनका और मनोज संथालिया के बीच बंट गया। इस समझौते से विवेक गोयनका पर देनदारी का भारी बोझ आया।उससे जब उनको थोड़ी फुर्सत मिली तो एक दिन यानि 17 अगस्त 1998 को उन्होंने प्रभाष जी से बात की। कहा कि जनसत्ता आपका बनाया हुआ है. उसे आप ही संभाल सकते हैं। मेरी बात मानिये। वे नई शुरुआत करना चाहते थे। उस समय प्रभाष जोशी ने सोचा और बातचीत शुरू हुई। उसका पहला दौर 23 अगस्त से शुरू हुआ। एक्सप्रेस समूह के चेयरमैन विवेक गोयनका से एक छोटी टीम प्रभाष जोशी के साथ बात कर रही थी। जिस तरह का संकट जनसत्ता के सामने था। वैसा ही 1997 में प्रभात खबर भी झेल रहा था। प्रभात खबर के मालिकों ने संपादक हरिवंश को बता दिया था कि वे पूंजी लगाने में असमर्थ हैं। इससे सवाल पैदा हुआ कि क्या संपादकीय टीम उस अख़बार को चला सकती है ?
अगर ऐसा है तो उसका जिम्मा लें। हरिवंश ने यह चुनौती स्वीकार की। इसके लिए अपने सहयोगियों को तैयार किया। गैर जरुरी खर्चे में कटौती की .अख़बार में सुधार किया। जिससे वह प्रतिस्पर्धा में टिका रह सके। समाचार और विज्ञापन का एक तंत्र विकसित किया गया जिसमें यह ध्यान रखा गया कि पत्रकारिता के मानदंडों से कोई समझौता न हो। विशेष परिशिष्ट निकालने की योजना बनाई जो बहुत उपयोगी सिद्ध हुई। ऐसे प्रयोग जहां जहां हुए थे उनकी जानकारी इकट्ठी की गई। विचार था कि जनसत्ता के लिए तीन साल का खाका बनाकर काम शुरू हो। इसके लिए कई पर्चे भी बनाए गए जो जनसत्ता की ‘रीलांचिंग’ में जो – जो करना है उसका एक खाका हर पर्चे में था।
करीब आठ महीने की कवायद से निर्णय हुआ था कि 1999 की जनवरी में जनसत्ता को स्वायत्त कर दिया जायेगा। इसके लिए एक नई कंपनी बनाई जाएगी। इंडियन एक्सप्रेस नियंत्रक कंपनी होगी नई कंपनी में पत्रकारों का भी शेयर होगा। एक्सप्रेस समूह की ओर से जनसत्ता के लिए मशीन, कागज और फर्नीचर आदि के साथ 10 करोड़ रूपये की स्थायी संपत्ति हस्तांतरित कर दी जाएगी। इसके आधार पर वित्तीय संसाधन जुटाए जाएंगे। 1 करोड़ रुपये के शेयर जारी किए जाएंगे। जिनमें से 51 % मालिकाना हक़ के बतौर जनसत्ता के समस्त स्टाफ के पास रहेंगे और 49 % शेयर नियंत्रक कंपनी इंडियन एक्सप्रेस न्यूज़ पेपर्स मुंबई के पास होंगे। जनसत्ता के स्टाफ को शेयर रियायती दर पर दिए जाएंगे. उस समय जनसत्ता के सभी संस्करणों में स्टाफ की संख्या 500 थी। इससे पहले विशेषज्ञों से सलाह ली गई थी। यह सब चल ही रहा था कि पता चला कि विवेक गोयनका ईलाज के लिए विदेश जा रहे हैं। उसके बाद यह योजना धरी की धरी रह गई।
तब बातचीत में विवेक गोयनका कहते थे कि चाहे जो हो जाये जनसत्ता को बंद नहीं करूंगा। उन दिनों यह अफवाह थी कि जनसत्ता कभी भी बंद हो सकता है। उन्होंने अपना यह वचन निभाया और जनसत्ता को बंद नहीं किया। लेकिन उसे सिर्फ जिंदा रखा। जिन दिनों यह बातचीत हो रही थी तब जनसत्ता के प्रकाशन को 15 वर्ष हो गए थे। उसके चारों संस्करण की प्रसार संख्या घटकर एक लाख रह गई थी। एक्सप्रेस समूह के चेयरमैन विवेक गोयनका जनसत्ता के प्रबंध संपादक भी थे। वे 1995 से यह जिम्मा संभाल रहे थे। यह विवेक गोयनका ही बता सकते हैं कि वह योजना क्यों नहीं अमल में लाई गई। क्या इसलिए कि प्रबंधकों ने अडंगा लगाया। उस बातचीत में प्रबंधकों में से कोई नही रहता था। एक मिथक हर अंग्रेजी समूह के प्रबंधकों ने हिंदी अख़बारों के बारे में बना रखा है कि उनके कारण घाटा बढता है .लेकिन जब यह सवाल उठता है कि उस समूह के हर अख़बार पर ओवरहेड खर्च कितना है तो इसे कोई प्रबन्धक खोलना नहीं चाहता जैसे उस रहस्य पर उसका एकाधिकार हो। जनसत्ता की ‘रीलांचिंग’ के सिलसिले में यह अनुभव ज्यादा खुलकर सामने आया। नतीजा यह भी उस समय निकला कि जनसत्ता दावे के विपरीत घाटे में नहीं है अगर है तो कम से कम उतना घाटा नहीं है जिसका दावा किया जा रहा है। इसीलिए इस गुत्थी को चेयरमैन से नीचे कोई सुलझा नहीं सकता। और चेयरमैन विवेक गोयनका इसमें पड़ना नहीं चाहते थे वे चाहते थे कि अख़बार को सी.ई.ओ. के हवाले कर दें। वही जो चाहे करे। जनसत्ता का सीईओ वे प्रभाष जोशी को बनाना चाहते थे। जिसके लिए वे उन्हें राजी नहीं कर सके, लेकिन शेखर गुप्त इसके लिए फटाफट तैयार हो गए।