खेती किसानी को लेकर बातें बहुत सारी हो रही। किसानों की समस्याओं के नाम पर आंदोलन हो रहे। या यूं कहें कि इन आंदोलनों के जरिए कुछ संगठन अपनी विचारधारा को बचाए रखने की मशक्कत कर रहे। पिछले दिनों दिल्ली की सड़कों पर लाल झंडा लिए भीड़ को देखकर देशभर के कम्युनिस्ट काफी उत्साहित हैं। उसके समर्थक कुछ ज्यादा ही। उन लोगों ने इसे मोदी सरकार के खिलाफ किसानों का आक्रोश कहा। लेकिन कम्युनिस्यों के पुरखे किसानों के बारे में क्या राय रखते थे? कार्ल मार्क्स और उनके सहयोगियों ने किसानों की तुलना तो उसके बैलों से की। इनका मानना था कि जिस प्रकार हमेसा एक ही काम करने के कारण बैल स्थितमान(static) तथा अनुपयुक्त है किसान भी वैसा ही है।
हो सकता है ये विचार जहां जन्मा वहां किसान निष्क्रिय रहा हो। लेकिन भारत का किसान दुनिया का सबसे समृद्ध किसान रहा। जैव विविधता के मामले में दुनिया का कोई और देश भारत की बराबरी नही कर सकता। हम क्षेत्रफल के मामले मे भले ही किसी और से बहुत कम हो लेकिन हमारे पास सबसे ज्यादा कृषि उपजाऊ क्षेत्र है। हमारे देश की संस्कृति सदा से कृषि संस्कृति रही। भारत के सभी सात लाख गांव तालाब युक्त थे। बड़े जलाशयों की जैसी श्रृंखला भारत में थी किसी और देश में नही। लेकिन समय के साथ हमारी गांव और कृषि आधारित सामाजिक व्यवस्था बर्बाद होती गई। और यह सब एक दिन में नही हुआ। इसके बर्बाद होने में काफी समय लगा। हां शुरूआत 11 वीं शताब्दी में बाहरी आक्रमणकारियों से हुई। खासकर तुर्कों के आने के बाद। रही सही कसर तो अंग्रेजों ने पूरी कर दी।
जो लोग भारतीय कृषि की बात करते हैं उन्हें पता होना चाहिए कि 11 वीं शताब्दी में हमारे पुरखे चार टन प्रति हेक्टेअर अनाज पैदा करते थे। भारतीय गांव उद्योग धंधों से संपन्न थे। भारत की 25 प्रतिशत आबादी उद्योगधंधो में लगी थी। यहां तक की अठारहवीं शताब्दी तक दुनिया का कोई और देश इस औद्योगिक स्तर का दावा नही कर सकता। ब्रिटिश नीतियों के कारण हमारी खेती किसानी कैसे बर्बाद हुई इसकी गवाही तो ब्रिटिश दस्तावेज देते हैं। ब्रिटेन की सरकार ने एक अकाल कमीशन बनाया था। इस कमीशन ने 1901 में अपनी रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट के मुताबिक 1765 से 1858 के दौरान ब्रिटिश नीतियों के कारण 11 भीषण अकाल पड़े। हर बार एक तिहाई आबादी नष्ट हो गई। इसका नतीजा ये हुआ कि भारत जब आजाद हुआ तो गांव उद्योग शून्य और खेती किसानी दीन हीन हो चुकी थी।
दुर्भाग्य यह कि आजाद भारत के पुर्ननिर्माण की योजना बनाते समय भी इस इतिहास को ध्यान में नहीं रखा गया। किसी भी चीज का पुनरूद्धार उसके समृद्धशाली और गौरवशाली इतिहास को ध्यान में रखे बिना नही किया जा सकता। हमें अपने किसानों और गांवों की क्षमता पर भरोसा होना चाहिए था। वे फिर से अक्षय उर्जा से भर सकते थे। हमारी सभ्यता जो कल तक दुनियाभर के आकर्षण का केन्द्र बनी रही थी, वह इन्ही किसानो के स्वभाव, कुशलता परिश्रम विवेक से उपजी थी। लेकिन आजादी के बाद सत्ता जिनके हाथ आई उनके दिमाग में अंग्रेजी शिक्षा के पूर्वाग्रह के कारण गांव और किसान के बारे में बड़ी ओछी धारणा थी। इनमें जवाहर लाल नेहरू प्रमुख थे। उनके ऊपर सोवियत रूस का प्रभाव था। मतलब उन्हें साम्यवाद में सफलता के सूत्र दिख रहे थे। क्योंकि वो भारत की कृषि परंपरा से अनजान थे। या फिर जानने की कोशिश ही नही की। पहली पंचवर्षीय योजना बनाते हुए फोर्ड फाउंडेशन को ज्यादा तरजीह दी गई।
आजादी के इतने सालों बाद भी वह सोच गई नहीं। किसान दीन हीन बना रहा। उसे दीन हीन बनाने में नेहरू की सोच वाले ही ज्यादा जिम्मेदार थे। लाल झंडे वाले उनके वैचारिक लठैत के रूप में काम कर रहे थे। किसान इनके लिए एक औजार हैं। क्योंकि यह भारत है, यहां किसान समाज के केन्द्र में है। यह सिर्फ एक पेशा नही बल्कि समाज की धुरी है।
आज वही साम्यवादी किसानों कि चिंता में डूबे जा रहे। जिनके सहयोग से इन्होंने सरकारें चलाई, और उस सरकार को स्वामीनाथन आयोग की सुध तक नहीं आई। वही आज स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट पर चर्चा कर रहे हैं। जबकि भाजपा का कामकाज यह बताता है कि उसके नेता भारत की कृषि परंपरा को अच्छे से समझते हैं। उसकी जड़ों से जुड़े हैं। इसका कारण भी है। क्योंकि पहली बार जब अटल विहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तो किसान आयोग बना।
इस आयोग के जिम्मे देश के किसानों की मूल समस्या और उसका हल निकालना था। अटल जी ने आयोग का जिम्मा भी ग्रामीण पृष्ठिभूमि के और भारतीय कृषि की बेहतर समझ रखने वाले सोमपाल शास्त्री को सौंपी। यही आयोग बाद में चलकर स्वामीनाथन आयोग के नाम से जाना गया। लेकिन इस रिपोर्ट पर ज्यादातर काम सोमपाल शास्त्री ने ही किया था। अटल सरकार ने ही किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड की व्यवस्था की। एमएसपी में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी भी अटल विहारी वाजपेयी की सरकार मे हुई थी। यही नहीं भारत के गांवों को प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना का तोहफा भी अटल जी ने ही देश को दिया।
मोदी सरकार के कामकाज भाजपा के उसी सरोकार को परिलक्षित करते हैं। किसानों के लिए अटल जी ने जो सपना देखा था उसे अपनी योजनाओं से मोदी सरकार साकार कर रही है। मोदी सरकार के आने के बाद किसान सत्ता की सोच का केन्द्र बना। किसानो की आय को बढ़ाने के लिए योजनाएं बनी। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया गया। गन्ने से एथनाल बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। खेत खलिहान की बाबत बजट का सबसे बड़ा हिस्सा गांव और खेत और खलिहान को गया।
मोदी सरकार ने किसानों की आय दोगुनी हो इसके लिए सात सूत्र दिए। उस पर काम तेजी से हो रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ये सूत्र हैं, पानी के हर एक बूंद से अधिक से अधिक फसल पैदा करने का सूत्र। हर एक खेत की मिट्टी के सेहत की जांच का सूत्र। फसलों को नुकसान से बचाने का सूत्र। इसके लिए सरकार ने बड़े पैमाने पर गोदाम और कोल्ड स्टोरेज बनाने की प्रक्रिया तेजी से चल रही है। प्रधानमंत्री ने किसानों की आय बढ़ाने के लिए एक प्रमुख सूत्र पर काम किया है, खाद्य प्रसंस्करण को लेकर। इसके तहम किसान अपने उत्पाद को अच्छे दाम में बेच सके इसके लिए खाद्य प्रसंस्करण में निवेश की जरूरत है।
मंडियों की विसंगतियों को दूर करने के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार की स्थापना की। किसान एक बड़ी चिंता उसके फसल के नुकसान को लेकर होती थी। लेकिन इसके निराकरण के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की महत्वाकांक्षी योजना की शुरूआत हुई। सिर्फ अनाज की पैदावार से किसान संपन्न नही हो सकता। इसके लिए जरूरी है उसके आय के और साधन मुहैय्या कराए जाय। इसके लिए सरकार ने पशुपालन, मुर्गी पालन, मधुमक्खी पालन और मत्सय पालन पालन को बढ़ावा देना।
इस दिशा में पूर्ववर्ती सरकारों ने यदि ध्यान दिया होता तो किसानो की यह दशा नहीं होती। वह खुशहाल होता। वह यदि खुशहाल होता तो गांव खुशहाल होता। और गांव खुशहाल होता तो समाज खुशहाल होता। क्योंकि भारत का किसान सदा कुशल, परिश्रमी, स्वतंत्र और स्वाभिमानी रहे हैं। कृषि की समृद्धि ने ही किसान को उदार और सामाजिक बनाया। नरेन्द्र मोदी की सरकार को इसकी भलीभांति समझ है। यही कारण है कि वह अपने शासन की सोच में गांव और खेत-खलिहान को लेकर आयी। अपने अतीत की समृध्धशाली कृषि व्यवस्था से भी परिचित है। इसीलिए मोदी सरकार का नारा है समृध्ध किसान – समृध्ध राष्ट्र। इसे मार्क्स और लेनिन के भारतीय संस्करण नहीं समझ सकते, माओ के तो कतई नही। क्योंकि भारत का किसान उनके लिए वर्ग संघर्ष का एक औजार है। वह उसे समृद्ध और संपन्न नही, बल्कि दीन हीन बनाकर रखना चाहते हैं। उनका मानना आज भी है कि किसान के अंदर नेतृत्व की क्षमता नही है। दरअसल यह उनकी गलती नहीं। बल्कि उनकी वैचारिक पैदाइश के समय उनका नाड़ा ही भारत से बाहर गाड़ा गया था। जिसका असर आज भी भारत के साम्यवादियों पर दिखता है। जब तक यह भारत और उसके स्वभाव के साथ उसकी तासीर को नहीं समझेंगे तब तक वह वैचारिक वियाबान में भटकते रहेंगे।