मार्क्सवाद एक पतनकारी विचार

बनवारी

लगभग सौ वर्ष पूर्व 1917 में रूस में साम्यवादियों को सत्ता प्राप्त हुई थी। उससे पहले यूरोप में भी कार्ल मार्क्स और उनकी स्थापनाओं के बारे में कम ही लोगों को पता था। पीटर एलेक्जेयेविच (1721-25) के समय से ही रूस यूरोप की एक महत्वपूर्ण शक्ति गिना जाने लगा था। इसलिए जब रूस में साम्यवादियों की सत्ता स्थापित हुई तो यूरोप के बौद्धिक जगत का ध्यान कार्ल मार्क्स की स्थापनाओं की ओर गया। यूरोप और अमेरिकी विश्वविद्यालयों में वह एक प्रतिद्वंद्वी विचारधारा के रूप में समझा और पढ़ाया जाने लगा।

यूरोपीय शक्तियों के लिए रूस पहले भी एक बड़ी राजनीतिक चुनौती था। उसके साम्यवादी तंत्र खड़ा कर लेने के बाद वह और बड़ी राजनीतिक चुनौती हो गया। तब से यूरोप-अमेरिकी शिक्षा तंत्र में भी मार्क्सवाद से प्रभावित एक वर्ग पनप गया है। यह वर्ग विशेषकर यूरोप-अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले गैर-यूरोपीय छात्रों को मार्क्सवाद की ओर खींचने में सफल रहा है। पश्चिमी देशों को इसमें अपना लाभ ही दिखाई देता है, क्योंकि उनके आर्थिक-रानजीतिक प्रभुत्व का विरोध करने वाले मेधावी गैर-यूरोपीय छात्र साम्यवाद में विकल्प देखने लगते हैं और इस तरह यूरोपीय जाति के बौद्धिक प्रभाव में बने रहते हैं।

यह महत्वपूर्ण बात है कि दुनियाभर में साम्यवाद का प्रचार रूस या चीन जैसे साम्यवादी देशों के माध्यम से नहीं हुआ। वह यूरोप-अमेरिकी विश्वविद्यालयों के माध्यम से ही हुआ है। पिछले सौ वर्षों में यूरोप और अमेरिका में मार्क्सवाद पर काफी कुछ लिखा गया है। उसकी आतंरिक विसंगतियों पर भी खूब प्रकाश डाला गया है। मॉरेस गुडेलियर जैसे अनेक माक्सर्वादी अध्येताओं ने यहां तक कहा है कि कार्ल मार्क्स के समय तक मानव सभ्यता के इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी थी। उस समय की अधिकांश मान्यताएं गलत सिद्ध हो गई हैं। इसलिए कार्ल मार्क्स के विश्लेषण में कोई संगति देखने की आवश्यकता नहीं है। इसके बावजूद वे और अन्य यूरोप-अमेरिकी विद्वान मार्क्सवाद को एक क्रांतिकारी विचारधारा की तरह ही प्रस्तुत करते रहे हैं। यूरोपीय समाज सदा राजनैतिक और धार्मिक रूप से एक निंयत्रित समाज रहा है। इसलिए क्रांति शब्द की व्यंजना वहां बहुत सकारात्मक रूप में ग्रहण की जाती रही है। वास्तव में मार्क्सवाद एक पतनकारी विचार है। उसने यूरोप की मानव विरोधी व्यवस्थाओं को बर्बरता की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ाने का काम ही किया है।

कार्ल मार्क्स का जन्म प्रशा (जर्मनी) के एक कस्बे में 1818 में हुआ था। उस समय ब्रिटेन में औद्योगिक युग का आरंभ हो रहा था। कार्ल मार्क्स एक समृद्ध यहूदी खानदान में पैदा हुए थे, लेकिन उस समय के यहूदी विरोधी कानूनों से बचने के लिए उनके पिता ने उनके जन्म से पहले ही प्रोटेस्टेंट धर्म स्वीकार कर लिया था। इस धर्म परिवर्तन से उनके परिवार में जो तनाव पैदा हुआ होगा उसी ने कार्ल मार्क्स के मन में धर्म के प्रति वितृष्णा पैदा की और उन्होंने अपने आप को नास्तिक बताना आरंभ किया। अपनी शिक्षा के दौरान वे युवा हेगेल वादियों के संपर्क में आए।

यूरोप के लिए वह काफी उथल-पुथल का दौर था। 1789 की फ्रांसी क्रांति यूरोप के इतिहास की सबसे बड़ी और निर्णायक घटना थी। उस क्रांति से फ्रांस में जनतंत्र की स्थापना हुई। इस क्रांति के दौरान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आधार पर राजनीतिक तंत्र पुनर्गठित करने की घोषणा हुई। हालांकि इन शब्दों का भारत में जो अर्थ लिया जाता है, यूरोप में उनका वह अर्थ नहीं था। इसी फ्रांसी क्रांति से कम्यून शब्द निकला था। फ्रांसी क्रांति के समय सेन्योरि की जगह कम्यून स्थापित कर दिये गए अर्थात जागीर की जगह जनपदों ने ले ली। कार्ल मार्क्स ने कम्यून शब्द यहीं से लिया था।

कार्ल मार्क्स को ठीक से समझने के लिए यूरोप के इतिहास पर एक सरसरी दृष्टि डालना आवश्यक है। यूरोपीय जाति की मूल राजनैतिक दृष्टि यूनान के उत्कर्ष काल में स्थिर हो गई थी। यूनानियों की मान्यता थी कि मनुष्य एक राजनैतिक प्राणी है। अपनी इसी विशेषता के कारण वह शासक वर्ग का अंग बनता है। पर यह योग्यता उसी में हो सकती है जो उत्पादन में न लगा हो। उत्पादन करने वाले लोग राजनैतिक बुद्धि विकसित नहीं कर सकते। इसलिए वे मनुष्य से हीन श्रेणी में आते हैं। स्त्रियों को भी इसी श्रेणी में रखा गया और उनका उपयोग भी युद्ध के लिए सैनिक पैदा करने से अधिक कुछ नहीं था। इस आधार पर यूनानी नगर-राज्यों के दो तिहाई से तीन चौथाई तक लोग दास बना दिए गए। उन्हें न संपत्ति का अधिकार था, न जीवन का। वे बिना अनुमति के विवाह भी नहीं कर सकते थे। मध्यकालीन यूरोप में इन्हें सर्फ अर्थात भू-दास कहा जाने लगा। 19वीं शताब्दी में खेती की जमीन से खदेड़े जाने के बाद वही लोग वर्किंग क्लास कहे जाने लगे। यह स्थिति मामूली परिवर्तनों के साथ यूरोप में लगभग 1900 तक रही।

मध्यकालीन यूरोप में सामान्यत: 85 प्रतिशत लोग भू-दास थे, 13-14 प्रतिशत लोग सीमित अवधि के पट्टे वाले किसान थे या शहरी कारीगर। एक-डेढ़ प्रतिशत कुलीन वर्ग के होने के कारण शासक वर्ग का अंग थे। इस शासक वर्ग में भी कई श्रेणियां थी। इस राजनैतिक वर्ग का मुखिया होने के कारण राजा संप्रभु था और उसका आदेश ही कानून था। देश की सारी भूमि और अन्य तरह की सपंत्तियों पर उसका स्वामित्व था। शासक वर्ग के अन्य लोग उसके टेनेंट थे, जो उसे टैक्स और सैनिक उपलब्ध करवाते थे। इस श्रेणी में अंतिम मेनर-स्वामी था, जो भू-दासों से उत्पादन करवाता था। शहरों में कारीगरों की गिल्ड थीं। यह गिल्ड कारीगरों पर कड़ा नियंत्रण रखती थीं और अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा राजकोष में जमा करवाती थीं।

इस फ्यूडल व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने वाली सबसे बड़ी घटना 1350 में फैली प्लेग थी, जिसने यूरोप से लगाकर चीन तक आधी आबादी को समाप्त कर दिया था। प्लेग के बाद खेती के लिए पर्याप्त लोग नहीं बचे। संसार की सबसे कठोर जलवायु और अपर्याप्त कृषि योग्य भूमि ने यूरोप को वैसे ही पिछड़ा रखा हुआ था। एक राजनीतिक वर्ग का मुखिया होने के कारण राजा का मुख्य काम युद्ध लड़ना था। प्लेग ने कुलीन वर्ग की आय  कम की और राजा का टैक्स भी। निरंतर होने वाले युद्धों के कारण राजा को जब-तब टैक्स बढ़ाने पड़ते थे। लेकिन आय घटने के कारण कुलीन वर्ग अधिक टैक्स का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं था। इसी ने उनके विद्रोह और मैग्नाकार्टा को जन्म दिया। मैग्नाकार्टा शासक वर्ग के बीच की प्रतिस्पर्धा का परिणाम था, उसका लोकतंत्र से कोई लेना देना नहीं था। कुलीन वर्ग राजा की राज परिषद का अंग था।

मैग्नाकार्टा के बाद टैक्स संबंधी निर्णयों में उसकी सहमति आवश्यक हो गई थी। लेकिन राजा इस राज परिषद में अपने समर्थक अधिक सदस्यों को नामित करके अपने निर्णय लागू करवा लेता था। कालांतर में शहरों के प्रतिनिधि भी राज्य परिषद में नामित होने लगे। कुलीन वर्ग से बाहर के नामित सदस्यों को बाद में एक अलग सदन दे दिया गया जो हाऊस ऑफ कॉमन्स कहलाया। खेती के अलाभकर हो जाने से यूरोप के शासक वर्ग ने व्यापार की तरफ ध्यान देना आरंभ किया। ब्रिटेन में खेतों के चारों ओर बाड़ लगाकर भेडे़ं पाली जाने लगीं। इस्लाम के उदय के कुछ समय बाद स्पेन अरब अधिपत्य में चला गया था। पंद्रह सौ के आसपास जब स्पेन उनके शासन से मुक्त हुआ तो अरबों के सानिध्य से मिली व्यापारिक बुद्धि उन्हें भारत और चीन तक सीधे पहुंचने के समुद्री मार्ग तलाशने की ओर ले गई। इसी क्रम में अमेरिकी महाद्वीप पर उनका अधिपत्य हुआ। अमेरिका पर उनके नियंत्रण ने 6.7 प्रतिशत की जगह 34.7 प्रतिशत भू-गोल पर उनका अधिपत्य करवा दिया।

अमेरिका पर नियंत्रण से यूरोप की भोजन की कमी दूर हुई और उनमें विश्व विजय की आकांक्षा पैदा हुई। 1800 तक वे विश्व के अधिकांश भाग पर अपनी इच्छा लादने में समर्थ हो गए थे। भारत जैसी उन्नत सभ्यता पर उनका नियंत्रण उनके ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि में सहायक हुआ। 1350 की प्लेग के बाद यूरोपीय बुद्धि उत्पादन में मनुष्य का विकल्प तलाशने में लग गई थी। तभी से उनमें नये सिरे से प्रकृति पर विजय की आकांक्षा पैदा हुई। इससे उनकी बौद्धिक जिज्ञासा उन प्रक्रियाओं को समझने में लग गई जो थोड़े से मनुष्यों की सहायता से, थोड़े समय में और थोड़ी जगह में बड़े पैमाने पर उत्पादन कर सकें। 1760 से यांत्रिक प्रक्रियाओं को विकसित करने में उन्हें सफलता मिलनी आरंभ हुई। हालांकि औद्योगिक उत्पादन तंत्र का पहला दौर 1820 में आरंभ हुआ और 1840 तक चला। दूसरा दौर 1850 से 1870 तक चला।

यहां यह बात ध्यान रखना आवश्यक है कि 1350 की प्लेग ने भी उतना जन संहार नहीं किया होगा जितना यूरोप के औपनिवेशीकरण ने किया। अमेरिकी महाद्वीप की लगभग 10 करोड़ आबादी का बहुलांश यूरोपीय अधिपत्य के 50 साल में समाप्त कर दिया गया। अफ्रीका से दास व्यापार के जरिए एक करोड़ से अधिक लोग अमेरिका ले जाए गए। लगभग इतने ही लोग समुद्री यात्रा में नष्ट हो गए। उससे अफ्रीका में शारीरिक रूप से समर्थ लोगों का अकाल पड़ गया। ब्रिटिश अधिपत्य ने भारत में अकाल और भुखमरी का दौर शुरू किया। सामाजिक साधनों के ब्रिटिश शासन द्वारा अपहरण के बाद भारत में खेती और उद्योगों की भारी क्षति हुई, उनके लिए साधन ही नहीं बचे। उधर यूरोप में खेती अलाभकर हो जाने के बाद  बहुत से लोगों को खेती की जमीन से खदेड़ दिया गया। वे शहरों की तरफ पलायन कर गए। 1800 तक यूरोप की आधी आबादी शहरों में आ गई थी। भुखमरी से बचने के लिए लोग फैक्टरीयों में 15-15 घंटे काम करने लगे।

18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से यूरोप के शासक वर्गों को यह अनुभव होने लगा था कि अपनी संपन्नता के लिए वे बाहरी उपनिवेशों पर निर्भर रह सकते हैं। इससे शासक वर्गों के बीच एक वर्ग साधारण लोगों के प्रति अधिक उदार दृष्टि की वकालत करने लगा। फ्रांस में वाल्तेयर ने कुलीन वर्ग और चर्च के निरंकुश नियंत्रण पर प्रहार किया। फ्रांस की क्रांति के समय तक वाल्तेयर की मृत्यु हो चुकी थी, लेकिन क्रांति पर उसके विचारों का काफी प्रभाव था। फ्रांस की क्रांति ने कुलीन वर्ग और चर्च के विशेषाधिकारों को समाप्त करवा दिया और कम्यून की स्थापना करके जनतंत्र का रास्ता खोला। यह सब क्योंकि शासक वर्ग की भीतरी प्रतिस्पर्धा के कारण ही हो रहा था, इसलिए राजशाही और जनतंत्र के दौर आते-जाते रहे। 1830 में एक बार फिर फ्रांस के राजा को गद्दी छोड़नी पड़ी और लोगों ने एक दूसरे व्यक्ति को राजा बना दिया। लेकिन 1789 की फ्रांस की क्रांति के बाद बड़ा विद्रोह 1848 में हुआ। फ्रांस इसका मुख्य केंद्र था लेकिन वह पूरे यूरोप में फैल गया था। इसी आंदोलन के बीच कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो लिखा था, हालांकि 1848 के विद्रोह में उनकी कोई भूमिका नहीं थी।

1848 तक फ्रांस की आधी आबादी शहरी हो गई थी। लेकिन शासन में उनकी कोई भूमिका नहीं थी। फ्रांस में एक प्रतिशत लोगों को ही वोट का अधिकार था और वे सब भू-स्वामी, खदान मालिक या रेलवे आदि के निर्माण में लगे बड़े व्यवसायी थे। शहरों में सबसे शक्तिशाली औद्योगिक बुर्जुआ और साहूकार बुर्जुआ थे। बुर्जुआ अर्थात नगरवासी-बुर्ग (नगर) में रहने वाले। सबसे बड़ी संख्या पेटी बुर्जुआ की थी। जो छोटे व्यवसायी थे, उसके बाद औद्योगिक मजदूर थे। पेरिस में छोटे व्यवसायियों की संख्या औद्योगिक मजदूरों की संख्या से दुगनी थी। सबसे खराब हालात औद्योगिक मजदूरों की ही थी, हालांकि छोटे व्यवसायी भी बुरी तरह कर्ज में डूबे हुए थे। फ्रांस की आधी जनसंख्या उन दासों की थी जो खेत मजूरों और घरेलू नौकरों के रूप में काम कर रहे थे।

1848 का आंदोलन शहरी वर्गों द्वारा शासन में भागीदारी के लिए था। इस आंदोलन के कारण फ्रांस के राजा लुई फिलिप को गद्दी छोड़नी पड़ी। फ्रांस में दूसरी जनतंत्री सरकार बनी। आरंभ में सब पुरूषों को वोट का अधिकार, मजदूरों को काम का अधिकार आदि मिला और लोगों को रोजगार देने के लिए राष्ट्रीय कार्यशालाओं की स्थापना हुई। लेकिन जल्दी ही व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर राष्ट्रीय कार्यशालाएं बंद कर दी गईं। पेरिस में एक-डेढ़ लाख मजदूर फिर सड़कों पर आ गए। उनके आंदोलन को दबाने का जिम्मा अल्जीरिया को उपनिवेश बनाने वाले जनरल को मिला। अब तक एक जुट रहा शहरी वर्ग बिखर गया। छोटे व्यवसायियों ने भी मजदूरों को अधर में छोड़ दिया। उनका आंदोलन दबा दिया गया। यह बेरोजगार मजदूर ही उस समय की राजनैतिक शब्दावली में सर्वहारा कहे गए।

कार्ल मार्क्स ने जर्मन मजदूर यूनियनों के कहने पर 6-7 सप्ताह में जर्मन भाषा में 23 पन्ने का एक पैम्फलेट लिखा था। वह फरवरी 1848 में पूरा हुआ और लंदन में जर्मन मजदूरों की वर्कर्स एजुकेशन एसोसिएशन द्वारा छापा गया। इसे कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के रूप में कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के नाम से छापा गया था। इसमें एक छोटी भूमिका और चार अध्याय थे। भूमिका में कहा गया था कि पूरा यूरोप कम्युनिज्म की आशंका से ग्रस्त है और सारी शक्तियां उसे रोकने के लिए एकजुट हो गई हैं। पहले अध्याय में मुख्य स्थापना थी कि अब तक का मानव इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। दुनियाभर में एक अल्पसंख्यक वर्ग का उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रहा है और वह बहुसंख्यक लोगों को उत्पादन के साधनों पर अधिकार से वंचित रखकर उनका उत्पीड़न करता रहा है। उनके बीच संघर्ष ही सब परिर्वतनों का कारक रहा है। इसी संघर्ष से एक तरफ बुर्जुआ वर्ग का उदय हुआ है और दूसरी तरफ सर्वहारा वर्ग का। दोनों के बीच संघर्ष अंतिम रूप से बुर्जुआ वर्ग का विनाश कर देगा और पहले सर्वहारा की तानाशाही होगी जो अंत में एक आदर्श व्यवस्था की ओर ले जाएगी जिसमें स्वतंत्र उत्पादकों की ऐच्छिक भागीदारी होगी।

दूसरे अध्याय में साम्यवादी चेतना से युक्त मजदूरों को अन्य सब मजदूरों को साथ लेकर संघर्ष छेड़ने के लिए कहा गया। इस संघर्ष में कम्युनिस्ट दुनियाभर के मजदूरों के सामान्य संकल्प के वाहक होंगे। अध्याय के अंत में उत्तरोत्तर अधिक टैक्स, व्यक्तिगत संपत्ति का निषेध, राज्यपोषित शिक्षा और सभी वित्तीय साधनों तथा संचार और परिवहन पर राज्य के नियंत्रण की मांग की गई थी। साथ ही खेती और उद्योग को राज्य के नियंत्रण में करके सभी को रोजगार देने की मांग की गई थी। तीसरे अध्याय में अन्य विचारधाराओं को सुधारवादी बताते हुए कम्युनिस्टों को सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी संघर्ष का वाहक घोषित किया गया था। अंतिम अध्याय में यूरोप के अन्य देशों के मजदूर आंदोलनों की समीक्षा करते हुए कम्युनिस्टों की भूमिका को रेखांकित किया गया था और कहा गया था कि यूरोप जो बुर्जुआ क्रांति की देहरी पर है कैसे सर्वहारा की विजय का रास्ता प्रशस्त करेगा और उसके बाद पूरी दुनिया में यही प्रक्रिया दोहराई जाएगी। अंत में दुनिया के मजदूरों को एकजुट होने का आह्वान किया गया था।

इस घोषणापत्र की अब तक काफी समीक्षा हो चुकी है। यह विस्तार से दिखाया जा चुका है कि मार्क्स ने यूरोप की गतिशील परिस्थितियों को कितना एकांगी रूप से देखा था और क्यों उसकी सभी भविष्यवाणियां गलत सिद्ध हुई। लेकिन कार्ल मार्क्स की भविष्यवाणियों का गलत सिद्ध होना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि उसने एक ऐसी नई विचारधारा को जन्म दिया जिसने यूरोपीय समाज की अमानवीय व्यवस्थाओं को दुनियाभर के बौद्धिक लोगों की जातीय स्मृति पर आरोपति कर दिया। यूरोपीय जाति संसार की अकेली ऐसी जाति है जिसके यहां दासता पर आधारित व्यवस्थाएं खड़ी हुईं। आज भी अमेरिका कॉरपोरेट स्लेवरी में फंसा है तो रूसी लोग कम्युनिस्ट ब्यूरोक्रेसी की दासता में। शेष दुनिया में सभी जगह इससे बेहतर व्यवस्थाएं थीं।

भारत के राजनीतिक चिंतन का केंद्र तो स्वराज्य ही रहा है, जिसमें पंचायतों के द्वारा शासन में सबकी भूमिका सुनिश्चित की गई थी। मार्क्सवाद ने दुनियाभर में एक ऐसा उग्रवादी राजनीतिक वर्ग पैदा कर दिया जो अपनी ही जातीय स्मृति के विरूद्ध खड़ा हो गया। दूसरे, साम्यवादियों ने गैर-यूरोपीय समाजों को जड़ता में पड़े बताते हुए यूरोपीय उपनिवेशवाद की वकालत की। खुद कार्ल मार्क्स ने भारत में ब्रिटिश शासन की यह कहते हुए हिमायत की कि वह भारत को पूंजीवादी दौर में अग्रसर कर रहा है। तीसरे, कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा की तानाशाही का नारा दिया। तानाशाही केवल एक छोटे वर्ग की ही होती है। इससे कम्युनिज्म के नाम पर एक साम्यवादी गिरोह को बाकी सब लोग के सभी अधिकार हड़पने का मौका मिल गया। यूरोप में भी साधारण लोग दासता से मुक्ति और संपत्ति व जीवन का अधिकार मांगने लगे थे, साम्यवाद ने सर्वहारा की तानाशाही के रूप में उन्हें फिर दासता में धकेल दिया। चौथे, उसने वर्ग संघर्ष के द्वारा एक शासक वर्ग को साम्यवाद के नाम पर प्रतिहिंसा बरतने की छूट दे दी। सभी साम्यवादी राज्यों में अपने विरोधियों के प्रति वैसी ही क्रूरता बरती गई है जो मध्य युग में चर्च या कुलीन तंत्र द्वारा बरती जाती थी। मार्क्सवाद को क्रांतिकारी बताया जाता रहा है, जबकि वह यूरोपीय अमानवीयता की स्मृति को सार्विक बनाने और जनतंत्रीय चेतना को साम्यवाद के नाम पर रच दी गई दास व्यवस्था में बदलने का दोषी है। इसे हम अगली कडि़यों में विस्तार से देखेंगे।

 

 

 

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