मालदीव छोटे-छोटे द्वीपों वाला चार लाख आबादी का छोटा-सा देश है। इस छोटे से देश ने अपने यहां बड़ा परिवर्तन कर दिया है। किसी को आशा नहीं थी कि पिछले पांच वर्ष से शासन कर रहे अब्दुल्ला यामीन का मालदीव के लोग इतनी आसानी और इतने गुपचुप तरीके से तख्ता पलट देंगे।
राष्ट्रपति यामीन को ही नहीं, इस चुनाव को निकट से देखने वाली बाहरी शक्तियों को भी यही लग रहा था कि वह वापसी कर लेंगे। चुनाव जीतने के लिए उन्होंने भारी प्रबंध किए थे। राष्ट्रपति पद के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को छोड़कर उन्होंने लगभग सभी नामी नेताओं को या तो देश छोड़ने के लिए विवश कर दिया था या जेल में डाल दिया था। राष्ट्रपति पद के सबसे प्रबल उम्मीदवार पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद को तो उन्होंने भ्रष्टाचार का आरोप लगवाकर चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करवा दिया था। मोहम्मद नाशीद श्रीलंका में शरण लिए हुए थे। जम्हूरी पार्टी के कासिम इब्राहिम भी मालदीव से बाहर शरण लेकर रह रहे थे। इब्राहिम मोहम्मद सोलिह मालदीव के पुराने और परिपक्व नेता हैं। अब्दुल्ला यामीन इस चुनाव को अन्य देशों से मान्यता दिलवाने की खातिर उन्हें छोड़े हुए थे और यामीन को नहीं लगता था कि सोलिह उन्हें मात दे पाएंगे। यहीं वह चूक कर गए। इस चुनाव में भारी मतदान हुआ और मालदीव के लगभग 90 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। सोलिह और यामीन के वोट का अंतर मामूली नहीं था। दोनों के बीच 16.6 प्रतिशत वोट का अंतर था। अंतर मामूली रहा होता तो यामीन सत्ता में बने रहने का कोई बहाना ढूंढ़ते, लेकिन बड़े अंतर से हारने के कारण उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार की और अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद सत्ता हस्तांतरित करने का वचन दिया है। अलबत्ता चुनाव आयोग को चुनाव के परिणामों की औपचारिक घोषणा करनी अभी बाकी है और विपक्ष के कुछ नेताओं को डर है कि राष्ट्रपति यामीन अभी भी चुनाव में खोट निकालकर सत्ता में बने रहने की कोशिश कर सकते हैं।
मालदीव जैसे छोटे देश में वहां के लोगों ने चुनाव में गुपचुप तरीके से तख्ता पलट दिया। खास बात यह है कि पिछले पांच साल से मालदीव पर शासन कर रहे अब्दुल्ला यामीन को इस बात का अंदाजा तक नहीं था कि उनकी कुर्सी जाने वाली है।
राष्ट्रपति यामीन का कार्यकाल आरंभ से ही विवादास्पद रहा था। 2013 के राष्ट्रपति पद के पिछले चुनाव को लेकर भी विवाद था। उस चुनाव के पहले दौर में पूर्व राष्ट्रपति नाशीद बढ़त बनाए हुए थे। लेकिन चुनाव को गयूम परिवार ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट से रद्द करवा दिया। दुबारा हुए चुनाव में यामीन ने अन्य पार्टियों से गठजोड़ करके बहुमत पा लिया और राष्ट्रपति हो गए। कुछ समय बाद उन्होंने संसद के अनेक विपक्षी सांसदों और नेताओं को जेल में डाल दिया, जिनमें पूर्व राष्ट्रपति नाशीद भी थे। इस फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने विपक्षी सांसदों और नेताओं की गिरफ्तारी को रद्द करके उनके विरुद्ध चलाए गए मुकदमों को अवैध घोषित कर दिया। इससे तिलमिलाकर राष्ट्रपति यामीन ने मुख्य न्यायाधीश समेत दो वरिष्ठ जजों को गिरफ्तार करवा दिया, जो पुलिस कमिश्नर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए सांसदों को रिहा करवा रहा था, उसे हटा दिया गया। देश में आपात स्थिति घोषित कर दी गई। सुप्रीम कोर्ट के गिरफ्तार जजों पर आरोप लगाया गया कि वे तख्ता पलटने का षड्यंत्र कर रहे थे। आपात स्थिति 45 दिन रही। इस बीच सुप्रीम कोर्ट के शेष तीन जजों ने भयग्रस्त होकर पुराने फैसले को पलट दिया। तब तक पूर्व राष्ट्रपति नाशीद रिहा होकर पलायन कर चुके थे। उन्होंने श्रीलंका में शरण लेकर भारत से सैनिक हस्तक्षेप करने आग्रह किया। यामीन के भारत विरोधी और चीन समर्थक रुख से रुष्ट होने के बावजूद भारत ने संयम बरता और सैनिक हस्तक्षेप नहीं किया। उसके बाद यामीन ने अपने सौतेले भाई पूर्व राष्ट्रपति गयूम को घर में नजरबंद कर दिया। चुनाव के दिन भी उन्होंने सोलिह की पार्टी के मुख्यालय पर पुलिस भेजकर उसके नेताओं को भयभीत करने की कोशिश की थी। लेकिन उनके यह सब तौर-तरीके उल्टे पड़े और चुनाव के दिन मालदीव के लोगों ने उनका तख्ता पलट दिया।
मालदीव के लोगों ने 2008 में लगभग ऐसी ही स्थिति में तख्ता पलटकर पूर्व राष्ट्रपति नाशीद को विजय दिलवाई थी। उस समय के राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम पिछले 30 वर्ष से शासन कर रहे थे। उन्होंने मालदीव के आर्थिक विकास में तो योगदान दिया था, लेकिन अपने विरोधियों के प्रति वे भी काफी असहिष्णु थे। उन्हें अप्रत्याशित रूप से हराने वाले युवा नाशीद भी उनके शासनकाल में अनेक बार जेल जा चुके थे। गयूम परिवार का मालदीव के शासन तंत्र पर ऐसा प्रभाव रहा है कि राष्ट्रपति नाशीद को 2012 में सेना और पुलिस के विद्रोह के बाद इस्तीफा देना पड़ा था। अब्दुल्ला यामीन ने इस बीच पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन करवाकर मौमून अब्दुल गयूम को राजनीति से संन्यास लेने के लिए मजबूर कर दिया था। 2013 के चुनाव में उन्होंने अपने आपको जितवा दिया लेकिन अपने वयोवृद्ध सौतेले भाई अब्दुल गयूम से उन्हें डर बना रहा। 2013 में ही मालदीव के तीन प्रमुख विपक्षी दलों मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी, जम्हूरी पार्टी और अदालत पार्टी ने आंदोलन छेड़ दिया था। इन्हीं तीनों पार्टियों ने इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को अपना संयुक्त उम्मीदवार बनाया था। राष्ट्रपति यामीन पर कुछ समय पहले जानलेवा हमला हुआ था, पर वे बच गए थे। बाद में उन्होंने उप राष्ट्रपति अहमद अदीब को हमला करवाने के षड्यंत्र में शामिल बताकर गिरफ्तार करवा दिया था। उन्हें भी अदालत ने निरपराध घोषित किया। राष्ट्रपति यामीन ने अपने यहां के अखबारों पर भी अंकुश बनाए रखा था। विदेशी राजनयिकों को भी उनके शासन में काफी रोक-टोक झेलनी पड़ी थी।
राष्ट्रपति यामीन को भारत से न केवल आशंकाएं बनी रहीं, बल्कि उन्होंने भारत को लेकर एक तरह की चिढ़ दिखाई और चीन का हाथ थाम लिया। चीन ने मालदीव में अपनी ‘वन बेल्ट-वन रोड’ योजना के नाम पर काफी निवेश किया। मालदीव की आय का मुख्य स्रोत पर्यटन है और सबसे अधिक पर्यटक वहां भारत से ही जाते हैं। पर्यटन उद्योग के लिए एक विकसित तंत्र खड़ा करने के नाम पर चीन वहां काफी निवेश करता रहा। पूर्व राष्ट्रपति नाशीद के अनुसार, राष्ट्रपति यामीन ने मालदीव के कई छोटे द्वीपों का नियंत्रण चीन को दे दिया था और चीन उसका सामरिक उपयोग करने की योजना बना रहा था। भारत के लिए यह सब बहुत चिंता की बात थी। भारत ने स्पष्ट रूप से भी अपनी चिंताएं मालदीव प्रशासन को बता दी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित मालदीव की यात्रा स्थगित करके भारत ने अपनी अप्रसन्नता भी स्पष्ट कर दी थी। लेकिन राष्ट्रपति यामीन पर इस सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे चीन से अपनी निकटता बढ़ाते रहे। उन्होंने कट्टरपंथी इस्लामी शक्तियों को भी बढ़ावा दिया और उसके आधार पर सऊदी अरब से निकटता बढ़ाने की कोशिश की। राष्ट्रपति यामीन को आशा थी कि मालदीव के लोग चीन और सऊदी अरब से होने वाले निवेश में अपनी समृद्धि देखेंगे और उन्हें इसका भरपूर राजनैतिक फायदा मिलेगा। लेकिन यामीन के नियंत्रित शासन का मालदीव के लोगों पर अच्छा असर नहीं पड़ा। भारत के मुकाबले चीन का हाथ पकड़ने वाली यामीन की नीतियों ने भी यहां के लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। इसलिए अपनी पूरी घेरेबंदी के बावजूद राष्ट्रपति यामीन चुनाव हार गए।
नए निर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह पूर्व राष्ट्रपति नाशीद के मित्र हैं और उनकी ख्याति सबको साथ लेकर चलने वाले राजनेता की है। उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति गयूम समेत सबको रिहा किए जाने की घोषणा की है। लेकिन उनके सामने भी दो तरह की चुनौतियां होंगी। एक तो उन्हें गठबंधन सरकार बनानी पड़ेगी। उनकी पार्टी और अन्य दो पार्टियों के बीच सभी नीतियों को लेकर एक राय नहीं है। अदालत पार्टी कट्टरपंथी इस्लामी नीतियों की वकालत करती है। फिर भी आशा है कि सोलिह सबको एकजुट रखने में सफल हो जाएंगे। पूर्व राष्ट्रपति नाशीद इस नए शासन के समर्थक होने के बावजूद एक महत्वाकांक्षी राजनेता हैं। आशा है वे एक मार्गदर्शक की भूमिका से आगे नहीं जाएंगे। सोलिह ने चीन की सभी परियोजनाओं पर पुनर्विचार की बात कही है। लेकिन वे उन्हें रातोंरात रद्द नहीं कर सकते। उनके सामने भी उसी तरह की समस्याएं आएंगी, जिस तरह की समस्याएं श्रीलंका और मलेशिया के सामने आ रही हैं। इन दोनों देशों को भी चीन ने अपने कर्ज के जाल में फंसा रखा था। अब दोनों जगह चीन को संदेह की दृष्टि से देखने वाला नेतृत्व सत्ता में है। उन्होंने कुछ परियोजनाएं रद्द की हंै। लेकिन वे अब तक चीन से ली जाती रही निवेश की राशि को तो अनदेखा नहीं कर सकते। मालदीव के नए शासक भारत की सामरिक चिंताओं को समझते हैं और वे भारत से सहयोग बढ़ाने के लिए उत्सुक होंगे। लेकिन मालदीव में चीन की उपस्थिति अभी तो बनी रहेगी। चीन ने मालदीव के चुनाव परिणामों पर बहुत सतर्क होकर टिप्पणी की है और आशा जताई है कि नए शासक पुरानी नीतियों की निरंतरता बनाए रखेंगे। फिलहाल चीन को मालदीव में झटका ही लगा है और भारत उसे लेकर अब कहीं अधिक निंिश्चत हो सकता है।