यूरोप का फ्यूडलिज्म
बनवारी
नौवीं शताब्दी में जब यूरोप स्वरूप ले रहा था, भारतवंशियों के राज्य मध्य एशिया से लगाकर दक्षिण पूर्व एशिया तक के विशाल क्षेत्र में फैले हुए थे। यह राज्य किसी एक साम्राज्य का अंग नहीं थे, लेकिन वे एक सभ्यता के अंग थे। भारत के बाहर के यह अधिकांश राज्य स्वतंत्र राज्य थे और उनकी शक्ति का आधार उनका शौर्य और सुशासन दोनों थे। इस विशाल क्षेत्र में यह राज्य कई शताब्दियों पहले स्थापित कर लिए गए थे। आज के मध्य और दक्षिणी वियतनाम में भारतवंशियों ने दूसरी शताब्दी में चंपा राज्य स्थापित कर लिया था, जो वहां 16वीं शताब्दी तक चला। दक्षिण पूर्व एशिया के यह सभी राज्य कितने समृद्ध और वैभवशाली थे, इसकी झलक अंकोरवाट जैसे विशाल मंदिरों और इंडोनेशिया व्यापार के लिए जाने वाले अरब व्यापारियों के वृतांतों से मिलती है। हमारे इतिहासकारों ने इस तरफ अधिक ध्यान नहीं दिया। रमेश चंद्र मजूमदार ने काफी पहले चंपा राज्य पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी। थाई देश या इंडोनेशिया के उस गौरवशाली अतीत पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए था, नहीं दिया गया। आज के यूरोपीय इतिहास लेखन ने तो जैसे इस इतिहास से आंख मूंद रखी है।
ईसाइयत और इस्लाम के विस्तार से पहले शैव, वैष्णव और बौद्ध धर्म संसार के एक बड़े भाग में फैले हुए थे। उस समय संसार की अधिक जनसंख्या भारत, चीन, जापान तथा दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में बसी हुई थी। इस विशाल क्षेत्र में फैलते हुए इन धर्मों का स्थानीय धार्मिक विश्वासों से कोई टकराव नहीं हुआ। उन्हें फैलाने में कोई बल प्रयोग नहीं किया गया। इन धर्मों के साथ-साथ भारतीय दर्शन, स्थापत्य, नृत्य आदि भी इन सभी क्षेत्रों में पहुंचे। चीन और जापान जैसी समृद्ध सभ्यताओं में उनकी स्वीकृति सहज ही हो गई। आज तक चीन और जापान की शास्त्रीय परंपराओं और लौकिक जीवन में यह भारतीय दाय अपनी उपस्थिति बनाए हुए है। उसे इन समाजों में अपनी तात्विक, सामाजिक और सौंदर्य दृष्टि के साथ ढालते हुए एक स्थानीय स्वरूप दिया गया। दसवीं शताब्दी में तुर्कों के इस्लाम स्वीकार कर लेने के बाद मध्य एशिया से भारतवंशियों के राज्य और बौद्ध धर्म का प्रभाव क्षीण होना आरंभ हुआ। इंडोनेशिया और मलय द्वीपों में भारतीय प्रभाव को क्षीण करके चैंदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी में इस्लाम फैल गया। उसका बड़ा कारण शायद यह था कि भारत मुस्लिम अधीनता में चला गया था। चीन में साम्यवादियों ने अपनी वैचारिक नास्तिकता के कारण बौद्ध आस्था के सार्व. जनिक प्रदर्शन को रोक दिया। इस तरह बल प्रयोग भारतीय राजनैतिक और धार्मिक प्रभाव के बढ़ाने में नहीं, उसे रोकने में ही इस्तेमाल हुआ।
भारत ने अपने राजनैतिक विस्तार के लिए कभी उपनिवेश स्थापित नहीं किए। भारत के धर्म दूसरे समाजों के धार्मिक विश्वासों के साथ मेल बैठाते हुए फैले, यह बात यूरोप को समझने के लिए याद रखना बहुत आवश्यक है। यूरोप जब स्वरूप ले रहा था, सबसे पहले उदीयमान शक्तियों ने यूरोप में बसे लोगों का ही उपनिवेशीकरण किया। यूरोप का उदय रोम की चर्च द्वारा 800 ईस्वी में चाल्र्स के राज्याभिषेक से माना जाता है। पोप ने चाल्र्स को ईसाई सम्राट की संज्ञा दी थी और उसे चाल्र्स महान या यूरोप के जनक के रूप में याद किया जाता है। यूरोप का उदय वास्तव में इस्लाम और ईसाइयत के संघर्ष के बीच हुआ। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि अगर मोहम्मद पैदा न हुए होते तो चाल्र्स का उदय भी न होता। सातवीं शताब्दी में इस्लाम के उदय ने एक शताब्दी के भीतर ही उत्तर अफ्रीका से लगाकर मध्य एशिया तक अपना विस्तार कर लिया था। इस्लाम की यह विजय आज के सऊदी अरब क्षेत्र में बसे कबीलों के सैनिक अभियानों से हुई थी। यह कबीलाई फौजें मिस्र और लेवांत जैसे समृद्ध और शक्ति संपन्न क्षेत्रों को परास्त कर पाईं, यह बात उतनी ही आश्चर्यजनक है, जितनी अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप की विश्व विजय।
इस्लाम के उदय से पहले लेवांत ईसाई प्रभाव में था। लेवांत पर तो इस्लाम का शासन हुआ ही, आज के स्पेन पर भी 710 में इस्लामी शक्तियों का शासन स्थापित हो गया। इसे चर्च ने एक चुनौती समझा। आरंभ में इबेरिया इस्लाम और ईसाइयत के बीच संघर्ष की रणस्थली बना। इबेरिया को मुस्लिम शासन से मुक्त करने में सात शताब्दियां लग गईं। 1492 में ईसाई विजय के साथ स्पेन और पुर्तगाल की राज्य सत्ताएं अस्तित्व में आईं। इन सात शताब्दियों में मुस्लिम प्रभाव को समाप्त करने के नाम पर चर्च ने उन सब लोगों पर भीषण अत्याचार किए, जो चर्च में निष्ठा नहीं रखते थे। इसके साथ ही ग्यारहवीं शताब्दी से लेवांत को फिर से ईसाई प्रभाव में लाने और यरूशलम को ईसाई नियंत्रण में लेने के लिए क्रूसेड आरंभ हुए और वे पंद्रहवीं शताब्दी तक चले। क्रूसेड के दौरान दोनों तरफ के लोगों में मजहबी आवेश पैदा हुआ और लगभग सारे समाज को पाशविक क्रूरता से भर दिया गया।
इस बीच तेरहवीं शताब्दी में चंगेज खां के उदय ने एक नई राजनै. तिक शक्ति पैदा कर दी। यह शक्ति मंगोलिया की चरागाहों में रहने वाले कबीलाई लोगों को एकत्र करके खड़ी हुई थी। इन चरागाहों में एक अनुमान के अनुसार कोई दस लाख घोड़े थे। यही मंगोल शक्ति का मुख्य आधार बने। यहां के लोगों का काम पशु पालन और युद्ध ही था। उनका चीन से संघर्ष होता रहता था। उन्हें चीन से अन्न चाहिए था, पर बदले में देने के लिए उनके पास पशुओं की खाल के अलावा कुछ नहीं था। चीनियों को उनकी अपरिष्कृत खालों की कोई आवश्यकता नहीं थी। इसलिए उन्हें अपमा. नित करके भगा दिया जाता था। इसी ने उनमें चीन विजय की आकांक्षा पैदा की और मंगोल शक्ति के उदय के समय 50 हजार मंगोल घुड़सवारों ने पांच लाख सेना वाले चीन पर विजय प्राप्त कर ली। चीन की पराधीनता की सात शताब्दियों में 1271 से 1368 के बीच का लगभग सौ वर्ष का मंगोल शासन सबसे उत्पीड़क और कष्टकारी था। मंगोलों ने पहले रूस के अधिकांश भाग को जीता, 1256 में उन्होंने अरब खलीफा को घोड़ों तले रौंदकर बगदाद को मिटटी में मिला दिया। इन्हीं मंगोलों ने बातू खां के नेतृत्व में आधे यूरोप को जीत लिया था और अगर मंगोलिया के भीतर छिड़े सत्ता संघर्ष के कारण बातू खां को लौटना न पड़ता तो मंगोल पूरा यूरोप ही विजित कर डालते। लेकिन मंगोलों ने अपनी यूरोप विजय के दौरान यूरोप के लोगों को चीन से सीखा बारूद भरे शस्त्रों का उपयोग सिखा दिया, जो बाद में यूरोप की शक्ति का आधार बना।
इस आरंभिक दौर में यूरोप भी जर्मन कबीलों से वासित एक ‘असभ्य’ क्षेत्र ही था। रोम साम्राज्य काल में स्थापित कैथेलिक चर्च थी, वह अपने आपमें एक सत्ता केंद्र ही थी। इतिहासकारों द्वारा अंधकारयुग के रूप में व्याख्यित इस काल में पश्चिमी भाग में रोम साम्राज्य के अनुकरण पर फ्रांसी शासकों के छोटे-छोटे राज्य थे। इन राज्यों की परिधि में आने वाले लोग दास-व्यवस्था में बंधे थे और राज्य की मुख्य शक्ति-युद्धक कुलीन वर्ग-के लिए उत्पादन करने में लगे रहते थे। इन्हीं फ्रांक शासकों से चाल्र्स महान का उदय हुआ और फिर ग्यारहवीं शताब्दी में नार्मन जाति के योद्धाओं ने ब्रिटेन से लगाकर इटली तक कई राज्य खड़े किए। इस तरह यूरोप में कई सत्ता केंद्रों का उदय होने लगा। इनमें मुख्य फ्रांस, स्पेन और इंग्लैंड थे। यह सब भी आपस में युद्ध रत ही रहते थे।
यह ध्यान देने की बात है कि इन तीनों क्षेत्रों में अरब, मंगोल और यूरोपीय राज्य सत्ताओं का उदय एक कबीलाई आबादी के बीच से हुआ था। यह कोई विकसित सभ्य क्षेत्र नहीं थे। उनकी राजनैतिक, धार्मिक चुनौतियों ने उनमें एक आवेश पैदा किया और उन्होंने एक युद्ध तंत्र खड़ा कर लिया। यह सभी राज्य शासन करने के लिए नहीं, एक युद्धजीवी तंत्र के भरण-पोषण के लिए अस्तित्व में आए थे। मंगोल खानाबदोश लोग थे। पर यूरोप में राज्य एक फ्यूडल व्यवस्था के अंतर्गत खड़े किए गए थे। लगभग दसवीं शताब्दी तक वहां दास व्यवस्था ही थी। पर दसवीं शताब्दी में पहले चर्च ने अपना विस्तार आरंभ किया। यूरोप में फैलने के लिए चर्च ने अत्यंत उत्पीड़क तरीकों का उपयोग किया। अपने विस्तार के लिए वे राज्य के सैन्य बल का उपयोग करते रहते थे और लोगों को चर्च या मृत्यु में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाता था। अपने विस्तार के लिए उन्होंने दास व्यवस्था का विरोध करना आरंभ किया। इसलिए दास व्यवस्था की जगह फ्यूडलिज्म नाम की एक नई व्यवस्था खड़ी हुई, जो दास व्यवस्था का रूपांतरण ही थी। पिछले सौ वर्ष में यूरोपीय इतिहासकारों ने अपने शिक्षा तंत्र के माध्यम से दुनियाभर में यह भ्रम फैलाया है कि आधुनिक व्यवस्थाएं खड़ी होने से पहले सब जगह एक जैसी ही फ्यूडल व्यवस्था थी। भारत में माक्र्सवादी इतिहासकारों ने सबसे अधिक, लेकिन बाकी इतिहासकारों ने भी अनजाने यह मान रखा है कि हमारे यहां फ्यूडल व्यवस्था थी। किसी भारतीय भाषा में फ्यूडलिज्म का समानार्थी न कोई शब्द है, न गढ़ा जा सकता है। हिन्दी में सामंतवाद को फ्यूडलिज्म के समानार्थी के रूप में लिखा जाता है। पर यह सामंत शब्द के साथ खिलवाड़ है। जैसे यूरोप की जैसी दास व्यवस्था और कहीं नहीं थी, वैसे ही यूरोप जैसा फ्यूडलिज्म कहीं नहीं था। यूरोपीय बुद्धि विजयी योद्धाओं से बने तंत्र को छोड़कर अन्य सबको मनुष्य से हीन कोटि का मानती आई है। यूनानी-रोम काल में अधिकांश लोग इसीलिए दास के रूप में खेती-कारीगरी करते थे। मध्य काल में वही लोग सर्फ 1⁄4भू-दास1⁄2 हो गए। उन्हें कुलीन तंत्र के अपने स्वामी के लिए काम करना पड़ता था। उन्हें न संपत्ति का अधिकार था, न शिक्षा का। यहां तक कि उन्हें अपने परिवार पर भी अधिकार नहीं था। उनका स्वामी उनके परिवार के सदस्यों को अलग करके कभी भी कहीं भी भेज सकता था।
भारत में साधारण लोग सदा स्वतंत्र रहे हैं। हमारे किसान और कारीगर अपने खेत और उत्पादक साधनों के स्वामी रहे हैं। निम्न व्यवसायों में लगे लोग भी सदा इसी स्वतंत्रता का उपयोग करते रहे हैं। उनके साथ कुछ सामाजिक भेदभाव रहा हो, पर उन्हें अपने उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व के अधिकार से कभी वंचित नहीं किया गया। ऐसी स्वतंत्रता का उपयोग करने वाले लोग ही एक सभ्य समाज बना सकते हैं और उसके ऊपर शक्ति और सभ्यता का ऐसा ढांचा खड़ा कर सकते हैं, जो उन पर नियंत्रण के लिए नहीं, उनकी रक्षा और उनके मांगल्य के लिए हो। भारत में जिस राम राज्य को सदा राज्य के आदर्श के रूप में देखा जाता रहा, उसकी केंद्रीय विशेषता यही है कि उसमें प्रजा राजा के आधीन नहीं है, राजा ही प्रजा के आधीन है। यूरोप की देखादेखी अरबों के यहां जो राज्य व्यवस्थाएं खड़ी हुईं, उनमें राजा या राज्य की भूमिका नियंत्रक की ही थी। वह मनमाना कर लगा सकता था। लेकिन अरबों के यहां भी यूरोप जैसा फ्यूडलिज्म नहीं था। भारत जैसी उन्नत सभ्यता वाले सभी समाजों को अपनी दृष्टि से यूरोप का अध्ययन करना चाहिए। उन्हें अपनी दृष्टि से इस बात की मीमांसा करनी चाहिए कि यूरोप में पहले दास व्यवस्था और फिर भू-दास व्यवस्था क्यों खड़ी की गई। इन व्यवस्थाओं की अमानवीयता यूरोपीय बुद्धि को पतित और आतताई सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। यूरोप की इन व्यवस्थाओं को समझे बिना हम आज की यूरोपीय व्यवस्थाओं को भी ठीक से नहीं समझ सकते। यूरोप के विद्वानों ने यह दावा करने की कोशिश की है कि आज की यूरोपीय व्यवस्थाएं पुरानी व्यवस्थाओं को नष्ट करके खड़ी हुई है। उनमें पुरानी व्यवस्थाओं के दोष नहीं है। लेकिन यह दावा सही नहीं है। जैसे दास व्यवस्था का रूपांतरण भू-दास व्यवस्था थी, वैसे ही आज की पूंजीवादी या माक्र्सवादी व्यवस्थाएं भी अनेक अर्थों में पुरानी व्यवस्थाओं का रूपांतरण हैं। उनका स्वरूप बिल्कुल नया है, लेकिन उनके चालक नियम और प्रवृत्तियों में पुरानी व्यवस्थाओं की झलक देखी जा सकती है।
अपनी इन्हीं व्यवस्थाओं के कारण अठारहवीं शताब्दी तक यूरोप संसार का सबसे पिछड़ा क्षेत्र था। उसके पास किसी को देने के लिए न व्यापारिक वस्तुएं थीं, न किसी तरह का ज्ञान। यूरोप का कुलीन वर्ग सारी सत्ता का उपभोग करते हुए एक वैभवपूर्ण जीवन जी रहा था, लेकिन साधारण लोग विवशता और गरीबी में ही रह रहे थे। पूरा यूरोप जिस तरह की गंदगी में जी रहा था, उसकी झलक बीबीसी के एक वृत्त चित्र फिल्दी सिटी में देखी जा सकती है, जो मध्यकालीन लंदन और पेरिस को लेकर बना है। 1350 में
यूरोप में प्लेग फैली और यूरोप की आधी आबादी नष्ट हो गई। उससे पहले भी प्लेग फैलती रही, लेकिन उसके बाद तो थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद प्लेग और दूसरी महामारियां यूरोप की दस-बीस प्रतिशत आबादी नष्ट करती रहीं। यह सिलसिला अठारहवीं शताब्दी तक चला। यूरोप के राजाओं के बारे में पढ़ें या पादरियों के, सब तरफ नैतिक पतन और अमानुषिक व्यवहार की ही झलक दिखाई देती है। आप उनकी अपने राजाओं और आचार्यों से तुलना नहीं कर सकते।