अभी यूरोपीय जाति की शक्ति का आधार उसकी आर्थिक समृद्धि नहीं, उसकी प्रतिनिधि शक्ति अमेरिका की सामरिक अजेयता है। दूसरे महायुद्ध में जापान के दो नगरों, हिरोशिमा और नागासाकी पर नाभिकीय बम गिराकर उसने यह घोषित किया था कि अब वह संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। अगले कुछ ही वर्षों में यूरोप के तीन और देश नाभिकीय शक्ति से संपन्न हो गए। ब्रिटेन और फ्रांस की अमेरिका से कोई सामरिक प्रतिस्पर्धा नहीं थी। लेकिन रूस को दूसरे महायुद्ध के बाद कम्युनिस्ट होने के नाते अमेरिका ने एक प्रतिद्वंद्वी शक्ति घोषित कर दिया था। इसे लोकतंत्र बनाम कम्युनिस्ट प्रतिद्वंद्विता बताया गया। यह भी कहा गया कि सोवियत रूस अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विस्तार में सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन सोवियत रूस को शत्रु घोषित करने के यह सब गौण कारण ही थे। उसका प्रधान कारण यह था कि अमेरिका को सामरिक रूप से अजेय होने के लिए एक वास्तविक या काल्पनिक शत्रु चाहिए था। द्वि तीय महायुद्ध में पराजय के बाद जर्मनी और जापान को असैन्यीकृत कर दिया गया था। यूरोप की दूसरी शक्तियां अमेरिका के लिए सामरिक चुनौती थी नहीं। सोवियत रूस ही एक प्रतिस्पर्धी शक्ति के रूप में उभर रहा था। उसे शत्रु घोषित करके अमेरिका अपनी सामरिक तैयारी को शिखर पर पहुंचा सकता था।
संहारक अस्त्रों के निर्माण के लिए यह आवश्यक होता है कि आपको किसी प्रतिद्वंद्वी शक्ति का भय हो। यह बात सबसे अच्छी तरह नाभिकीय बम का जिस तरह विकास किया गया था, उसे याद करके समझी जा सकती है। जो वैज्ञानिक नाभिकीय प्रक्रियाओं को समझने में लगे थे, उन्हें जब एक नाभिकीय बम विकसित करने की संभावना दिखाई दी, तो अन्य लोगों को इस दिशा में अग्रसर करने के लिए उन्होंने एक झूठी कहानी गढ़ी। उस समय ऐसे किसी विनाशक हथियार को विकसित करने में अनेक वैज्ञानिकों को संकोच होना स्वाभाविक था। ऐसा कोई हथियार मानव जाति के अस्तित्व के लिए ही खतरा
बन सकता था। ऐसी सब दुविधाओं को निरस्त करने के लिए यह कहानी गढ़ी गई कि जर्मन वैज्ञानिक इस तरह का बम विकसित करने के निकट हैं। अगर उन्होंने पहले नाभिकीय बम बना लिया तो मित्र राष्ट्रों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। इस झूठ को विश्वसनीय बनाने के लिए आइंस्टीन का सहारा लिया गया। आइंस्टीन से 1939 में एक पत्र अमेरिकी राष्टंपति रूजवेल्ट को लिखवाया गया। उसके बाद ही मेनहटटन योजना बनी। राष्टंपति रूजवेल्ट को इस कहानी के मनगढ़ंत होने का पता न हो, यह संभव नहीं है। लेकिन उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि इस तरह का हथियार अमेरिका को अजेय बना सकता है।
आरंभ में मेनहटटन योजना में ब्रिटेन को सम्मिलित किया गया था। लेकिन जैसे ही इस दिशा में थोड़ी प्रगति हुई, अमेरिका ने ब्रिटेन को किनारे कर दिया। जब अमेरिका नाभिकीय बम बनाने में सफल हो गया तो इसकी सूचना सभी सहयोगी शक्तियों को दी गई। अमेरिकी प्रशासन को भरोसा था कि जब अमेरिकी राष्टंपति यह जानकारी कामरेड स्टालिन को देंगे तो वे चकित रह जाएंगे। लेकिन स्टालिन ने ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। अमेरिकी प्रशासन ने इसका अर्थ यह निकाला कि स्टालिन को नाभिकीय हथियार का महत्व ठीक से समझ में नहीं आया। बहुत बाद में उन्हें यह पता लगा कि इस परियोजना में सम्मिलित वैज्ञानिकों में सोवियत रूस के जासूस भी थे। द्वितीय महायुद्ध में सहयोगी होने के बावजूद सोवियत रूस भी अमेरिका को एक प्रतिद्वंद्वी शक्ति के रूप में देख रहा था। उसे भी अपने सामरिक विकास के लिए एक प्रतिद्व़ंद्वी शक्ति की आवश्यकता थी। आर्थिक और सामरिक विकास में अमेरिका सोवियत रूस से आगे था, इसलिए उसकी सामरिक तैयारी पर निगाह रखना सोवियत रूस के लिए आवश्यक था।
सभी महाशक्तियां अजेय होना चाहती है। शिखर पर पहुंचकर सभी को यह आशंका सताती रहती है कि कोई उन्हें इस शिखर से गिरा न दें। इसलिए वे अपनी सामरिक शक्ति को अपने ज्ञात और अज्ञात प्रतिद्वंद्वियों की पहुंच से परे ले जाना चाहती हैं। पर अपनी सामरिक शक्ति को
निरंतर बढ़ाते जाना तब तक संभव नहीं होता, जब तक आपको यह आशंका न हो कि कोई और भी इस दौड़ में है और वह आपसे आगे निकल सकता है। अगर चुनौती न हो तो शिथिलता आती है और वह आपको कमजोर कर सकती है। लेकिन यूरोपीय लोगों के इतिहास में इतनी हिंसा रही है कि उनके स्वभाव में ही आशंकाजनित प्रतिस्पर्धा आ गई है। जब वे किसी बाहरी शक्ति से नहीं लड़ रहे होते तो आंतरिक चुनौतियां पैदा कर देते हैं। अक्सर तो ये दोनों प्रतिस्पर्धाएं साथ-साथ चलती रही है।
जब यूरोपीय लोग अपने औपनिवेशिक अभियान पर थे, तब भी वे प्रतिस्पर्धी शक्तियों के रूप में ही अग्रसर थे। यह अभियान स्पानी पहल पर आरंभ हुआ था। जल्दी ही उसमें पुर्तगाली, डच, ब्रितानी, फ्रांसी और रूसी भी सम्मिलित हो गए। बिस्मार्क के बाद जर्मनी भी अपने उपनिवेश बनाने की महत्वाकांक्षा पालने लगा। भारत में ही काफी समय तक डच, फ्रांसी और ब्रितानी फौजें अक्सर एक-दूसरे के सामने आ जाती थीं। यूरोपीय लोगों का मानना है कि इससे उनका युद्ध कौशल पुष्ट होता रहता है। लेकिन जहां आवश्यक हुआ उन्होंने परस्पर सहयोग भी किया। चीन को घेरते समय उन्हें लगा कि अलग-अलग वे चीन पर दबाव नहीं बना पाएंगे। इसलिए चीन पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने काफी एकजुटता दिखाई। इसी तरह का सहयोग तुर्कों के उस्मानी राज्य को घेरते समय दिखाया गया। 20वीं सदी तक यूरोप के निरंतर दबाव के बावजूद दो शक्तियां चुनौती बनकर खड़ी रही थीं। तुर्कों का उस्मानी राज्य जो अरबों को पराभूत करके स्थापित हुआ था और 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक वह यूरोप से बड़ी शक्ति था। उसे पहले महायुद्ध में ही पराजित किया जा सका। इसी तरह जापान ने 1904-05 के युद्ध में उस समय की बड़ी यूरोपीय शक्ति रूस को पराजित किया था। दूसरे महायुद्ध में पराजय के बाद ही जापान की चुनौती समाप्त हो पाई।
पहले महायुद्ध की विनाशक लीला के बाद यह कहा जाने लगा था कि अब आगे युद्ध नहीं होगा। लेकिन फिर भी दूसरा महायुद्ध हुआ और उसमें पहले महायुद्ध से कई गुना अधिक विनाश हुआ। उसके बाद अमेरिका और रूस के बीच सामरिक तैयारी में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ आरंभ हुई। इस होड़ को शीत युद्ध का नाम दिया गया। 1990 तक चले इस शीत युद्ध के दौरान हथियारों के स्वरूप और मारक क्षमता में अभूतपूर्व प्रगति हुई। 20वीं शताब्दी के अंत तक यूरोपीय महाशक्तियों में अपने-अपने नौसैनिक बेड़े को अधिक मारक बनाने की होड़ थी। पहले महायुद्ध से वायुसेना महत्वपूर्ण होती गई। इस दिशा में प्रगति करते हुए पूरी दुनिया को निशाना बना सकने वाली मिसाइलें विकसित हुईं। फिर मिसाइलों से रक्षा के कवच विकसित हुए। अब ऐसे वायुयानों और पनडुब्बियों का विकास हो रहा है, जो राडार के निरीक्षण में नहीं आती। छोटे गतिशील वाहनों से छोड़े जा सकने वाली नाभिकीय क्षमता से संपन्न मिसाइलें बनाई गई है। इस सामरिक तैयारी में अब तक अमेरिका आगे रहा है और उसी के कारण वह अजेय बना हुआ है। वह ऐसी स्वचालित प्रणालियां विकसित कर रहा है, जो सैन्य हानि को न्यूनतम कर देंगी। पिछले साल चालकरहित द्रोन से अधिकांश बमबारी हुई। कुल मिलाकर 2016 में अमेरिका ने 32 हजार बम गिराए। हिसाब लगाए तो यह हर घंटे तीन बम बैठता है। इस समय अमेरिकी विशेष फौजी दस्ते दुनिया के 138 देशों में तैनात है। इस सबसे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अपनी अजेयता बनाए रखने के लिए अमेरिका किस पैमाने पर सक्रिय है। गैर-यूरोपीय देशों में अब तक चीन ही इस होड़ में पड़ा है। लेकिन उन्नत हथियारों के उत्पादन के मामले में अभी वह अमेरिका या रूस से कोसों दूर है।
पिछली आधी शताब्दी से यह कहा जा रहा है कि अब कोई महायुद्ध नहीं होगा, जिसमें बड़ी शक्तियां एक-दूसरे के सामने खड़ी हों। क्योंकि ऐसे किसी युद्ध के समय नाभिकीय हथियारों के इस्तेमाल की आशंका बनी रहेगी और वह सभी संघर्षरत महाशक्तियों को ही नहीं, विश्व के एक बड़े भाग को नष्ट कर देगा। इसके पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और रूस के नाभिकीय शक्ति से संपन्न होने के कारण ही कोई युद्ध नहीं हुआ। यह दोनों शक्तियां यूरोपीय जाति की ही है, इसलिए क्यूबा मिसाइल संकट जैसे अवसरों के बावजूद किसी वास्तविक युद्ध की नौबत नहीं आने दी गई। लेकिन अगर किसी गैर-यूरोपीय शक्ति के साथ तनाव हुआ तो इतना विवेक और सहिष्णुता दिखाई जाए, यह आवश्यक नहीं है। इस बीच भारत और पाकिस्तान नाभिकीय शक्ति से संपन्न हो गए हैं। देर-सबेर ईरान, कोरिया और इजरायल भी हो जाएंगे। अगर अमेरिका डोनाल्ड टंम्प के दिखाए रास्ते पर और आगे बढ़ा तो जर्मनी और जापान भी पुरानी रोक भूलकर सामरिक शक्ति की होड़ में पड़ना चाहेंगे। युद्ध इन महाशक्तियों के बीच न भी हो, अंततः वे इसमें कूदेंगे नहीं, यह कहना मुश्किल है।
लेकिन अमेरिका आदि की सामरिक अजेयता के बावजूद यूरोपीय जाति की शक्ति को चुनौती देने के कई नए तरीके पैदा हो गए हैं। मध्य-पूर्व से पैदा हुई आतंकवादी चुनौती इसी तरह की है। यह पुरानी छापामार लड़ाई का ही एक नया रूप है। सब जानते हैं कि बहुत सी महाशक्तियां इस तरह की लड़ाई से छीजी हैं। आतंकवादी शक्तियों ने यूरोप-अमेरिका में जो चिंता पैदा कर दी है, उससे आतंकवादी रणनीति की सफलता का अनुमान लगाया जा सकता है। तालिबानी या कोरियाई हाथों में कुछ नाभिकीय हथियार आ गए तो एक नए विनाशक युद्ध की भूमिका बन जाएगी। युद्ध न भी हो, युद्ध की आशंका लंबे समय तक बनी रहे तो कई बार वह सामरिक तैयारी की प्रेरक होने के बजाय निराशा पैदा करने लगती है और शिथिलता की ओर ले जाती है। चीन पर मंगोलों के नियंत्रण से पहले यही हुआ था। निरंतर होने वाले मंगोल आक्रमणों ने चीनियों में आंतरिक कलह और शिथिलता पैदा की और 50 हजार घुड़सवारों के बल पर मंगोलों ने पांच लाख की सेना वाले चीन को पराजित कर दिया। अभी यूरोप-अमेरिका में ऐसी शिथिलता नहीं है, वहां से ललकार ही सुनाई दे रही है। लेकिन यह स्थिति लंबे समय तक बनी रही तो अमेरिका की भी वही गति होने वाली है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय विद्वान यह कहते रहे हैं कि उनकी भौतिक प्रगति ने संसारभर की भौतिक प्रगति का रास्ता खोल दिया है। अच्छे जीवन स्तर का आकर्षण दुनियाभर को आर्थिक विकास की आकांक्षा से भरता रहेगा और सभी देश युद्ध से बचेंगे। लेकिन संसार में सदा आर्थिक और सामरिक होड़ बनी रहती है। लोग, देश और जातियां कभी एक होड़ में पड़ते हैं कभी दूसरी। यह एक भ्रामक विश्वास है कि 21वीं सदी अब तक की आर्थिक प्रगति को स्थिर गति से आगे बढ़ाती रहेगी। पिछले 60-70 वर्ष में भी अजेय बना हुआ अमेरिका किसी न किसी युद्ध में उलझा रहा है। यूरोप-अमेरिका की आर्थिक सामरिक चुनौतियां कम होने की बजाय बढ़ ही रही है और वे कभी भी एक बड़ी उथल-पुथल की ओर ले जा सकती है। कई बार ऐसी उथल-पुथल देशों और जातियों की प्रतिस्पर्धा की बजाय प्राकृतिक कारणों से भी हो जाती है। विभिन्न जातियों की जनसंख्या में असंतुलन से ऐसा हो सकता है। प्रकृति वैसे भी शक्ति केंद्रों को बदलने के लिए कोई न कोई उपाय ढूंढ़ लेती है। इसलिए कोई शक्ति चाहे कितनी अजेय दिखाई दे रही हो कालांतर में उसकी अजेयता की सीमाएं प्रकट हो जाती है। अमेरिका की अजेयता की भी सीमाएं प्रकट हो रही है और होंगी। यूरोपीय जाति की आज जो अग्रता दिखाई दे रही है वह हमेशा नहीं रहने वाली।