लोकतंत्र की जन्मभूमि है भारत
सुभाष कश्यप
संविधान सभा में भी, और उसकी समितियों में काफी वाद-विवाद हुआ। इस वाद-विवाद के बाद यह बात उभर कर सामने आयी कि समानुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था विभाजनकारी है। इस कारण इसे नकारा गया। संविधान सभा के वाद विवाद को देखें तो पता चलेगा कि उसे क्यों नही माना गया। उस समय यह माना गया कि फर्स्ट पास्ट पोस्ट व्यवस्था विभाजनकारी नही होगा, इसलिए माना गया। यह अलग बात है कि बाद में ये और भी विभाजनकारी साबित हुई।
एक सवाल यह आया कि लोकतंत्र क्या पश्चिम की देन है? जैसा लोकतंत्र हम चला रहै हैं वह परकीय विश्वासों, परंपराओं, आवश्यक्ताओं, मानकों पर आश्रित है। लेकिन लोकतंत्र की मूल भावना पर जाए तो मेरा मानना है कि अगर संसार में लोकतंत्र कहीं जन्मा या पनपा तो वह भारत भूमि रही है। पाश्चात्य देशों में माना जाता है कि लोकतंत्र फ्रांसीसी क्रांति के बाद जन्मा। जो लोग कुछ और पीछे जाना चाहते हैं वो कहते हैं कि युनान के नगर राज्य ग्रीस की सिटी स्टेटस में पहली बार लोकतंत्र जन्मा। ग्रीस की सिटी स्टेटस से पहले भारत में बहुत सारे गणराज्य थे। विलेज रिपब्लिक थे, अरविंदो ने कहा अटोनामीस, 100 आफ आटोनामीस था, संविधान सभा में अंबेडकर ने कहा कि हमारे यहां ग्राम गणतंत्र थे। वैदिक लोकंत्रत में, सभा समित तो श्रगवेद में भी आता है। लोकतंत्र तो भारत में ही जन्मा और भारत में ही पनपा। लेकिन जिसे हम आज लोकतंत्र कहते हैं, वो भारतीय पंपराओं का लोकतंत्र नही है।
जब हम दलीय व्यवस्था की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें यह देखना होगा की कितने दल हैं। पंजीकृत पाट्रियां 1600 के करीब हैं। 1600 पार्टियों के हिसाब से हमें सोचना होगा कि ऐसी स्थिति में चुनाव व्यवस्था कैसी हो। जहां तक मल्टिपल आइडेंटीज का सवाल है, वह इलेक्शन सिस्टम की मोहताज नही है। सत्य ये है कि हम सब की मल्टिपल आईडेंटीज हैं। उसको कोई बदल नहीं सकता, कोई भी निर्वाचन व्यवस्था कर लीजिए, कोई भी राजनीतिक व्यवस्था कर लीजिए। ये भी नहीं है कि हमारे देश में ही मल्टिपल आईडेंटीज हैं। किसी भी देश में जाइए हर व्यक्ति की मल्टिपल आईडेंटटीज होती है। उसकी एक आईडेंटीज होती है कि वह किस मजहब या धर्म को मानता है। दूसरी पहचान उसकी भाषा होती है, वह कौन सी भाषा बोलता है। तीसरी पहचान जाति होती है, जैसे हमारे यहां है। अमेरिका में आप जाइए तो डिनामिनेशन, रेस होती है। कलर से ओबामा जी अलग हैं, भाषा और धर्म से भी अलग है। इसलिए मल्टिपल आईडेंटीज को सिस्टम से जोडने से कोई लाभ नहीं है।
हमारे यहां जो मल्टिपल आईडेंटटीज एक विशेष तरह की है। हमारे यहां डिफरेंट आईडेंटटीज है, डाइवर्सीज हैं या फिर प्लूरलिज है। जो भाषा के हिसाब से एक ग्रुप से संबंध रखता है लेकिन मजहब के हिसाब से वह दूसरे ग्रुप से संबंधित होता है। रेस के हिसाब से दूसरे ग्रुप से संबंध रखता है। इस तरह से हमारी जो पहचान है वह एक दूसरे को काटती है। जिसका नतीजा ये है कि हमारे यहां जो डाइवर्सटीज है वह कमजोर होने की बजाय मजबूत हो जाती है। क्योंकि यदि आप एकदम दक्षिण में रहते हैं और भाषा तमिल बोलते हैं लेकिन अस्थियां लेकर गंगा में आते हैं और बद्रीनाथ जाते हैं, तो बहुत कुछ ऐसा है कि हमें अलग करता है लेकिन वही हमें जोडता भी है। इस तरह हमारे यहां जो मल्टिपल आईडेंटटीज है वह दूसरे देशों से भिन्न हैं। बहुत सारे दूसरे देशों में ब्लाक्स हैं। एक ही कलर, एक ही भाषा और एक ही धर्म को मानने वालों के बड़े बड़े ब्लाक्स हैं। हमारे यहां ऐसे ब्लाक्स नहीं जो एक ही भाषा बोलने वाले हों, एक ही धर्म को मानने वालें हो और एक ही रेस के हों।
कई बार मै अकबर इलाहाबादी का एक शेर कहता हूं ‘मुजे नफरत नहीं थी अंग्रेज की सूरत से, नफरत थी तो उसके तर्जे हुकूमत से’ अब अंग्रेज चले गए लेकिन तर्जे हुकूमत वही कायम हैं। जो सियासी या राजनीतिक व्यवस्था है, वह भी वही कायम है। एक यह भ्रांति है कि हमने ब्रिटिश लोकतंत्र को अपनाया। ब्रिटिश पार्लियामेंट्री सिस्टम को हमने नहीं अपनाया। ब्रिटिश पार्लियामेंट्री सिस्टम और हमारे पार्लियामेंट्री सिस्टम में जमीन आसमान का फर्क है। 1969 में मैने एक लेख लिखा था। जिसमें मैने ब्रिटिश पार्लियामेंट्री सिस्टम की विशेषताएं पचानने की कोशिश की थी। उसमें मैने 12 विशेषताओं का उल्लेख किया। जिसमें से भारत में एक भी अप्लाई नही होती। हमने जो अपनाया, वह कोलोनियल माडल अपनाया। औपनिवेसिक माडल अपनाया। जैसा चल रहा था स्वाधीनता से पहले वही चलता रहा। शासक बदल गए, अंग्रेज चले गए और ब्राउन या ब्लैक आ गए, लेकिन व्यवस्था वही चलती रही। चाहे दल व्यवस्था हो, निर्वाचन व्यवस्था हो या फिर राजनैतिक व्यवस्था हो, चाहे वह प्रशासनिक व्यवस्था हो, शिक्षा व्यवस्था हो। हर क्षेत्र में जो कोलोनियल माडल यानि औपनिवेशिक माडल है, वही चलता रहा। दूसरी बात ये हुई की हम कहते तो है कि हम संप्रभु गणतंत्र हैं, लेकिन आज भी आम आदमी को सत्ता का हस्तांतरण नही हुआ। देखे तो पाऐंगे की अंग्रेजो ने यहां के एक दल के नेताओं को सत्ता सौंप दी। जो दल यह दावा करता था कि स्वतंत्रता संघर्ष की लड़ाई उन्होंने लड़ी और उन्होंने ही जीती। जिनको सत्ता सौंपी गई वह आम जनता से चुने हुए नहीं थे। हम ये नहीं कह सकते कि जनता को सत्ता का हस्तांतरण हुआ था। कांग्रेस के जो अधिवेशन होते थे उसमें जो प्रस्ताव आते थे, उसमें ये होता था कि हमें वैसे ही अधिकार चाहिए जैसे इंग्लैंड में लोगों को उपलब्ध् हैं। हमें वैसी ही संस्थाएं चाहिए। दरअसल जो दास या गुलाम होता है उसे अपने मालिक की हर एक चीज अच्छी लगती है। मालिक का पहनावा, मालिक की संस्कृति, मालिक का तौर तरीका और मालिक की भाषा आदि। मनोवैज्ञानिक इसे बेहतर बताएंगे। यही इसके मूल में था।
स्वाधीनता के बाद जब हम संविधान बनाने बैठे तो हमने निर्वाचन व्यवस्था वही अपना ली जो यहां चल रही थी। हालांकि पहले वयस्क मताधिकार नहीं था। लेकिन हम यह भूल गए कि इंग्लैंड में दो दलीय पद्धति थी। अब चार या पांच दल हैं। लेकिन अभी भी वहां की व्यवस्था को दो दलीय ही माना जाता है। लेकिन दो दलीय व्यवस्था हो तो एफपीटीपी चलता है। वह सार्थक भी होगा। अगर दो ही उम्मीदवार हों एक को बहुमत मिलेगा। दो ही पार्टियां हो तो एक को अधिक मत मिलेगा। लेकिन अगर 1600 के करीब पार्टियां हो तो कैसे होगा। इसमें अलग बात है कि कई पार्टियां चुनाव में हिस्सा नहीं लेती, वह अन्य कई कारणों से बनती है। लेकिन जितनी पार्टियां हिस्सा लेती है उसमें भी जो जीतती हैं वह अल्पमत से जीतती है। जितना वोट डाला जाता है उसमें भी जिसको अल्पमत मिलता है, वही अक्सर जीतते हैं। अगर पिछले आंकड़ों को देखें जिसमें हम लोगों ने पिछले तीन आम चुनावों का आंकलन किया। स्टेट अंसेबली और पार्लियामेंट का भी। हम इस नतीजे पर पहुंचे कि 78 प्रतिशत चुने हुए प्रतिनिधि वो होते हैं, जिनके विरोध में अधिक मत पड़े होते हैं। आपने हमने उनके खिलाफ मतदान किया फिर भी वो चुनाव जीत गए। 12 प्रतिशत वोट पाकर भी व्यक्ति लोकसभा का सदस्य बन सकता है। मंत्री भी बन सकता है और उसकी सिक्योरिटी भी जब्त नही होती। क्योंकि हमारी व्यवस्था में ये है कि अगर आपको 12 प्रतिशत भी वोट मिले हैं, और आप जीत गए तो आपकी सिक्योरिटी जब्द नही होगी। और अगर आप हार गए और 15 प्रतिशत से कम मिले हैं तो सिक्योरिटी जब्त हो जाती है।
उत्तर प्रदेश की विधानसभा में 93 प्रतिशत ऐसे सद्स्य हैं जिनके खिलाफ ज्यादा मत पड़े हैं, पक्ष में कम। इस तरह उनकी प्रतिनिधिक वैधता संदिग्ध हैं। लोकतंत्र में जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को जरिए स्वयं अपने ऊपर शासन करती है। इसलिए हम उसे प्रतिनिधिक लोकतंत्र कहते हैं। यहां किस तरह चुने जाएं यह जनता स्वयं अपने लिए तय करे। जनता जो स्वयं अपने लिए संविधान बनाए और स्वयं अपने लिए व्यवस्था तय करे। अगर 93 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनके खिलाफ हमने सबने वोट किया और 7 प्रतिशत लोगों ने सिर्फ उन्हें वोट दिया तो वह तो प्रतिनिधि ही नही है। नेता लोग मंच से कहते हैं कि आपने चुना है, जनता बदलना चाहे तो बदल दे। लेकिन सच तो ये हैं कि जनता जिन्हें नहीं चाहती वो सारे चुने जाते हैं। इस लोकसभा को छोड दें, पिछली लोकसभा की बात करें तो 70 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिनके खिलाफ अधिक मत पड़े थे। कुछ राज्यों में तो ऐसा था कि 100 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिनके खिलाफ अधिक मत पड़े थे। यह तो प्रतिनिधिक लोकतंत्र की वैधता पर ही सवाल खड़ा होता है।
उन्होने अंग्रेजी पढाना शुरू किया था, क्योंकि उन्हें बाबुओं की जरूरत थी। जब स्वाधीनता आई तो बाबू ही मालिक बन गए। नार्थ ब्लाक और साउथ ब्लाक में जो अंग्रेजी पढे लिखे लोग थे उनका शासन आज भी चल रहा है। राजनीति में भी ऐसे लोगों की सत्ता सौंपी जिन्हें भारत की खोज करनी पड़ी थी। ये भी कहा गया है कि जवाहरलाल नेहरू आखिर जेंटल मैन थे अंग्रेजी शासन के।
अध्यक्षीय और संसदीय प्रणाली को पहले परिभाषित करना चाहिए। मेरा मानना है कि हमारे यहां अध्यक्षीय और संसदीय प्रणाली के बीच का रास्ता अपनाया गया। बहुत सारी चीजें अध्यक्षीय हैं और बहुत सारी संसदीय है। हमारे यहां केवल ब्रिटिश ढंग की संसदीय या अमेरिकी ढंग की राष्ट्रपति प्रणाली भी नहीं है। उसके कई कारण हैं।
जो निर्वाचन व्यवस्था है वह बहुत ही विभाजनकारी सिद्ध हुई है। इसके अलावा जिस प्रकार उसे चलाया गया उसमें अलग अलग पहचान को अधिक मान्यता मिली है। अलग पहचान बनाने में हमें अपना हित मालूम देता है। खासकर राजनेताओं को। चाहे वह जाति के आधार पर चाहे वह पैसे के आधार पर या फिर माफिया के नाते। क्योंकि आंकड़े यह बताते है कि अगर आपका 15 प्रतिशत का वोटबैंक है किसी भी चुनाव क्षेत्र में तो आप 90 प्रतिशत चुनाव जीतने के लिए आश्वस्त हैं। अगर 15 प्रतिशत जीतने के लिए है तो कोई भी उम्मीदवार 85 प्रतिशत की क्यों परवाह करे। वह अपना ऐजेंडा 15 प्रतिशत के लिए बनाएगा ने कि आम लोगों के लिए। 15 प्रतिशत कैसा है अब उसकी बात। पूरी लोकसभा में एक भी कांस्टूएंसी ऐसी नही कि एक जाति का बहुमत हो। 50 प्रतिशत से ज्यादा किसी एक जाति के लोग किसी भी चुनाव क्षेत्र में नही है। लेकिन 15 से 20 प्रतिशत वाली बहुत चुनाव क्षेत्र है। पैसे के आधार पर भी वोट खरीदा जा सकता है। 15 प्रतिशत को खरीदना आसान है 50 प्रतिशत से ऊपर खरीदना मुश्किल होगा। एक स्टेट की स्टडी की गई थी जिसमें 34 प्रतिशत वोटर को पेमेंट किया गया था। तीसरा माफिया के डर से। केवल एक ही सुधार अगर करना हो तो 50 प्रतिसत वोट पाने वाले को ही चुनाव माना जाना चाहिए। इससे काफी कुछ उबरा जा सकता है। केवल जाति के आधार पर कोई जीत नहीं पाएगा। केवल माफिया के आधार पर कोई जीत नहीं पाएगा। केवल पैसे के आधार पर कोई जीत नहीं पाएगा। हमे चुनाव सुधार करना है तो मनी पावर, मसल पावर और माफिया पावर को कंट्रोल करना होगा। इसके अलावा करप्शन, कास्टिस्म, कम्युनिलिस्म को टेकल करना होगा। ये निर्वाचन आयोग की प्रमुख समस्याएं हैं। चुनाव जीतने के लिए 50 प्रतिशत से ऊपर मत पाना अनिवार्य कर दिया जाएगा तो केवल माफिया, मनी या जाति के आधार पर जीतना मुश्किल होगा। यह एक उपाय हो सकता है। इसके अलावा दलों की संख्या पर नियंत्रण जरूरी है। राज्य का दल बनने के लिए 5 प्रतिशत वोट पाना अनिवार्य होना चाहिए। राष्ट्रीय दल बनने के लिए आधे से ज्यादा राज्यों में 5 प्रतिशत वोट हासिल करना होता है। पार्टी फंडिंग पर विचार करना चाहिए।