वर्तमान परिस्थिति में जनतंत्र सबसे कम खराब शासन है – डा. मुरली मनोहर जोशी

डा. मुरली मनोहर जोशी

टेक्नोलाजी आज जीवन में आगे ही नहीं गई है बल्कि घुस गई है। अगर आप निकालना भी चाहेंगे तो आसानी से निकाल नहीं पाएँगे। जनतंत्र भी हमारे लिए आवश्यक है। वर्तमान परिस्थिति में जनतंत्र सबसे कम खराब शासन है। मैं इस वाक्य का प्रयोग कर रहा हूँ, सबसे अच्छा शासन नहीं कह रहा हूँ, क्योंकि फिर मैं आगे के लिए रास्ता बंद कर दूँगा। लेकिन आज की परिस्थिति में जितने शासन तंत्र हैं उनमें सबसे कम खराब शासन तंत्र जन तंत्र है। तो क्या ये दोनों परिस्थितियाँ मानव समाज के लिए और भावी जो चिंताएँ हैं और सरोकार हैं, जो आज से पैदा हो रहे हैं और कल और अधिक विषम होने वाले हैं, क्या उनका कोई समाधान निकलने का रास्ता इनमें से निकल सकता है? क्योंकि ये रास्ता निकालना हमारे लिए बहुत आवश्यक है। वर्तमान के सन्दर्भ में नहीं, किंतु भविष्य के लिए भी ये बहुत आवश्यक है कि हम टेक्नोलाजी को, तकनीकी को, प्रौद्योगिकी को ठीक से परिभाषित करें। उसकी सीमाओं को संदर्भित करें और वो जनतंत्र को पुष्ट करने वाली बने या जनतंत्र को नष्ट करने वाली बने, इसके बारे में भी गंभीर विचार करना होगा।
तो प्रश्न ये आता है कि हम देखें कि टेक्नोलाजी से कष्टों का निवारण किस तरह किया जा रहा है। मानव जीवन की अवधि बढ़ा दी गई है, बहुत कुछ संभव हुआ है और इसके दूसरे क्या परिणाम होंगे आगे चलकर देखेंगे, पर ये तो हुआ है। आप इससे इन्कार नहीं कर सकते हैं कि मानव जीवन में इससे कौन सी सुविधाएँ हुई हैं जो इससे पचास साल पहले उपलब्द्ध नहीं थी। आगे पचास साल में क्या होगा, उसकी गति इतनी तेज है कि हर दस साल में टेक्नोलाजी दुगुनी हो जाती है, तिगुनी हो जाती है। विज्ञान इतनी तेजी से नहीं बढ़ता, लेकिन टेक्नोलाजी बहुत तेजी से बढ़ती है क्योंकि यह सीधे सीधे समाज के उपभोग और अर्थव्यवस्था से जुड़ गई है। ये बुनियादी बात है जिसे हमें समझना चाहिए। परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में जब चाहे नष्ट कर दो, जब चाहे उपयोग कर लो। ऐसे तमाम क्षेत्र हैं। दूरसंचार का क्षेत्र है। टेली कम्यूनिकेशन, अभी जो अपने हाथ में दो-दो, तीन-तीन मोबाइल लिए कुछ बच्चे खड़े थे, खटाक से यहाँ से बात कर रहे हैं, सूचना कहीं से कहीं जा रही है। सोशल मीडिया नाम का नया तंत्र खड़ा हो गया है। मीडिया वालों के लिए संकट कर दिया है। जिसे हम सामान्य मीडिया कहते हैं, बैठे हैं, सुन रहे हैं, वो परेशान हैं। पहले केवल टेलीविजन था, अब तो तरह तरह के यंत्र बन गए हैं और आप उनमें अपनी सूचनाएँ गुप्त रख सकते हैं। सरकारें परेशान हैं, इन गुप्त सूचनाओं का डीकोडीफिकेशन कैसे किया जाए।
एक जमाने में ये था कि अगर आप सूचना डालना चाहते हो तो चिट्ठी डालते थे। चिट्ठी में लिखा जाता था नाम, मोहल्ला, फलाँ फलाँ पहुँचकर फलाने फलाने को मिले। सूचना देने का मेरे बचपन में जो पत्र व्यवहार होता था उस वक्त पता इस प्रकार से लिखा जाता था, बड़ा स्पष्ट था। आपकी पहचान, आपके स्थान, आपके मोहल्ले और आपके नाम से होती थी। अब इसकी जरूरत नहीं है। अगर अब आप ये लिख देते हैं फ्लैट न., प्लाट न., पिन न., आपका नाम हो या न हो चिट्ठी वहाँ पहुँच जाएगी। तो आप क्या होंगे? बताइए? टेक्नोलाजी जिस तरह प्रभाव छोड़ रही है, जिस तरह का परिवर्तन कर रही है, साहित्य में परिवर्तन हो रहा है, आप देखेंगे कि जो उपमा हैं वो उपमाएँ बदल जाएँगी।
अभी आप कहते हैं हे कमलनयनी! कल को आप कहेंगे हे केनन नयनी! केनन जो कैमरा है या कोई और कैमरा क्योंकि उसकी रफ्तार बहुत अधिक है, उसका रिजोल्यूशन बहुत है। इसलिए कल को आप कहेंगे तेरे नेत्र जो कमल हैं वह नहीं कहेंगे आप कहेंगे तेरे नेत्रों में कैनन कैमरा का बहुत सुन्दर, बहुत सुराग्रही लेंस प्रतीत हो रहा है। फिर आप कहेंगे कि दिल तो पम्प-पम्प कर रहा है तुझे देखकर मेरा धौकन धक् धक् कर रहा है। वो हृदय खत्म हुआ। वो दृश्य सौंदर्य खत्म हुआ। आप क्या हैं? कुछ हड्डियों का, कुछ माँसपेशियों का, कुछ यंत्रों का एक समुच्चय बना हुआ है। मनुष्य एक यन्त्र है।
मनुष्य का जो आधार होता है, आप देखेंगे कि अनजाने में धीरे-धीरे परिवर्तन होते गए और हमने इसको स्वीकार कर लिया। टेक्नोलाजी आ रही है, ये और कहाँ तक जाएगी थोड़े दिनों में देखेंगे। अब सवाल ये उठता है कि हैड्रो इस रूप में क्यों आ गई है? इसका दूसरा रूप जो है, जैसे जैसे सुविधाएँ और व्यवस्थाओं में बड़े सुधार होंगे, जिस पर हमें एक प्रकार का गौरव, आनंद अनुभव होता है। अरे वाह हम ऐसे समय में पैदा हुए हैं जब ये चमत्कारी गतिविधियाँ टेक्नोलाजी के कारण हो रही हैं। मगर जब मैं देखता हूँ कि विश्व में सबसे अधिक जो परेशानियाँ हैं वो सभी क्षेत्रों में हैं। इतना सब कुछ होने के बाद भी दुनिया का कोई देश ड्रग्स, अल्कोहलिज्म से अलग नहीं है।
ये जितनी सुविधाएँ बढ़ी हैं, आर्थिक समृद्धि बढ़ी है, उपभोग के साधन और आयाम बढे़ हैं, ये भी उसके साथ बढ़ता चला गया। आज विश्व में जितने अपराध होते हैं वो अपराधों का इतिहास पचास सौ सालों का आकलन करें, डाटा इकठ्ठा करें तो आपको पता लग जाएगा कि वो भी इसी रफ्तार से आगे बढ़ रहा है। आज से पाँच साल पहले — मैंने कहा मैं भी हूँ, उसमें मी टू मानव की सेवा में है या किसी की उपकार करने में है। नहीं, मी टू उस विकृति का, यौन विकृति का मैं भी शिकार हूँ ये खुद कह कर इसलिए बता रहा हूँ कि इस सभ्यता संस्कृति में ये हो रहा है। मैं उसमें शामिल था या थी, ये कहने की जरूरत क्या है? आप देखेंगे कि ड्रग एडिक्शन हो, सीजो फ्रेनिया हो, सबसे ज्यादा पागलपन पिछले पचास सालों में इस दुनिया में बढ़ा है। अवसाद, डिप्रेशन हमारे देश में बढ़ गया है, यहाँ तो हम डिप्रेशन जानते ही नहीं थे। इतने उत्सव, त्यौहार, इतना सामाजिक परिवेश में मिलना-जुलना, एक-दूसरे की सहायता करना सब कुछ था। पर आज क्या है? डिप्रेशन है। सारी सुख सुविधाओं के पश्चात डिप्रेशन में हैं। हिंसा! इतनी हिंसा हमारे देश में है। मैंने जब से आँख खोली हिंसा तो देखते रहे पर ऐसी सार्वदेशिक हिंसा जिसमें छात्र अध्यापक को गोली मार दे, बाप बेटे को गोली मार दे, पुलिस अफसर को गोली मार दे, ऐसी हिंसा तो नहीं देखी थी। आतंकवाद भी दुनिया ने कभी नहीं देखा था। वो घटने का नाम नहीं ले रहा है। बढ़ता जा रहा है। संकट में हैं सब लोग। बच्चों का जीवन असुरक्षित है। विद्यालयों में असुरक्षित हैं। अगर अध्यापक ही बच्चों के साथ हिंसा और अनैतिक व्यवहार करने लगे तो फिर क्या होगा? उन चमत्कारों के साथ, उच्च आर्थिक सुधारों के साथ, शायद हमारी भाषाओं में इसे विकार कहेंगे, दूसरों के यहाँ शायद इसे संस्कार कहेंगे, मैं नहीं कह सकता, लेकिन अपने देश में इन सारी प्रवृत्तियों को हम विकार मानते हैं। पर आज की तरह युद्ध की विभीषिका, राष्ट्रों में संघर्ष, मजहबी उन्माद, इतने तो नहीं थे। कभी थे, थोड़े बहुत थे, पर इस बड़ी संख्या में विश्वव्यापी?
अब न्यायपालिका में क्या हो रहा है? हमारे एक मित्र कहते थे कि साहब पहले न्यायपालिका न्याय करती थी, फिर उसके बाद निर्णय करने लगी। न्याय और निर्णय में फर्क है और अब निर्णय लिए जाते हैं। डिसीजन्स आर रिक्वायर्ड, ये तो कभी नहीं सुना था। पहले तो सुनते थे जज साहब परमात्मा के रूप हैं, पंच परमेश्वर हैं, न्याय करते हैं, अब कहते हैं अच्छा किस जज के यहाँ है बताओ? किस मास्टर के यहाँ कापी है बताओ? किस डाक्टर के यहाँ मरीज है बताओ? अभी सर्टिफिकेट लिखवाते हैं। अभी अभी नंबर बढ़वाते हैं। अभी जजमेंट दिलवाते हैं। अभी वोट दिलवाते हैं, तुमको। कुछ पैसे निकालो तो मिनिस्टर भी बनवाते हैं। ये तो कभी नहीं सुना था। आप देखेंगे इसे मोरल डिकेड नैतिक ह्रास कहते हैं। आप कहेंगे कि संवेदनशीलता का संपूर्ण रूप में विनाश। सड़क पर आदमी पड़ा है, घायल है, खून निकल रहा है। आप मोटर से जा रहे हैं, देख रहे हैं, सामने से भागते हैं क्यों? अगर रुक गए कहीं और इसकी मदद के लिए लोगों ने कहा तो झंझट में पड़ेंगे।
संवेदनशीलता का नितांत अभाव है। पूर्णरूपेण संवेदनहीन समाज बन रहा है। आप देखेंगे कि टेक्नोलाजी से जो कुछ मिलता रहा, उसके साथ जो कुछ नहीं मिलना चाहिए, वो भी मिल रहा है। जो कुछ मिलना चाहिए, वो मिलना चाहिए। जो कुछ स्वागत योग्य है, वह स्वागत योग्य है, लेकिन अगर वो विकृतियाँ पैदा कर रहा है, समाज में विशृंखलता पैदा कर रहा है, समाज में उन्माद पैदा कर रहा है, समाज में प्रतिस्पर्धा हिंसात्मक रूप ले रही है तो यह विचार करना होगा कि टेक्नोलाजी जिस रूप में आई और जो चल रही है, वो हमें कहाँ ले जाएगी? टेक्नोलाजी का लंबा इतिहास बताने का समय नहीं है। लेकिन टेक्नोलाजी का मूल स्रोत, इस रूप में टेक्नोलाजी के आने का यूरोप में हुआ है। वहाँ कुछ दार्शनिकों ने यह सोचना शुरू किया कि हम हैं कौन? मैं कौन हूँ? तू कौन है? विचार करते करते एक दार्शनिक हुए देकार्त। एक तरह से वे शंकालु दार्शनिक थे। हर चीज के ऊपर शंका करते थे। शंका करते करते उनको यह लगा कि मैं शंका करने में सक्षम हूँ, इसलिए आई हैव अ माइंड। तो मेरा अस्तित्व इसलिए है कि मेरे पास दिमाग है। मेरे पास सोचने वाला एक यन्त्र है। आई इंसिस्ट बिकाज आई थिंक, मैं विचारवान हूँ इसलिए मेरा अस्तित्व है। इसलिए विचार करने वाला मेरा व्यक्तित्व का जो आयाम है उससे सुपीरियर है यानी माइंड इज सुपीरियर टू मैटर। इसको कहा जाता है माइंड मैटर दिक्तोमी (द्वैत)। दार्शनिक पृष्ठ भूमि जिसे मैं पंथी पृष्ठ भूमि कहता हूँ, तो यह थी कि ये सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिए बनी है।
जब आदम दुनिया में भेजे गए तो उसको ये सन्देश भी दिया गया कि ये दुनिया तेरे उपभोग के लिए है, मैं तुम्हें भेज रहा हूँ तो उन्होंने कहा ठीक है, मैं इसका उपभोग करूँगा। फतवा मिल गया। ये जो सारी सेमेटिक दर्शन है उनकी पृष्ठ भूमि में एक मुख्य बिंदु है। ये जो सृष्टि है वो हमारे उपभोग के लिए है, जैसा चाहे उस पर हमारा आधिपत्य है। तो हम वैज्ञानिकों ने कहा – ये तो ठीक है लेकिन ये बताएँ कि ये प्रकृति चल कैसी रही है? इसके क्या नियम हैं? इस पर हम कैसे नियंत्रण करेंगे? हमें मालूम होना चाहिए। दूसरे दार्शनिक आए, उन्होंने कहा कि अगर ये रहस्य सीधे सीधे नहीं बताएगी तो इसे टार्चर करेंगे, एठेंगे, मरोरेंगे, थर्ड डिग्री देंगे, उगलवाएँगे, कन्फेस करेंगे कि बता कैसे चल रहा है। आई विल फोस्र्ड इट टू दिस्क्लोज इट्स सेक्रेट। इसमें से जो दृष्टियाँ पैदा हुई। उन्होंने बहुत कुच्छ विकार पैदा कर दिया। क्या दृष्टि पैदा हुई उसमें से? कुछ नियम पता लगा लेना चाहिए। आखिर क्यों चल रही है? कैसे चल रही है? वो हमें हाथ में आ जाए। ये यन्त्र की तरह चल रही है। मशीन है। किसी ने बनाया है इसको। किसी सातवें आसमान पर बैठा हुआ कोई शक्तिशाली व्यक्तित्व इस सृष्टि को संचालित कर रहा है। एक मशीन को आप कैसे समझते हैं। घड़ी बहुत महत्वपूर्ण है और बड़ी मशीन मानी जाती है। घड़ी को आप खोल डालो और फिर जोड़ लो। पुर्जा-पुर्जा अलग कर लो। फिर पुर्जे-पुर्जे को जोड़ लो आप समझ जाओगे कि घड़ी कैसे बनती है? कैसे चलती है? तो वे घड़ी को समझ गए, पर दुनिया को कैसे समझेंगे? पहले कहा ब्रह्माण्ड है। फिर कहा ये मंदाकनियों का समूह है। फिर कहा मंदाकनियाँ अनेक सौर मंडलों का समूह हैं। सौर मंडल अनेक ग्रहों का समूह है। ये ग्रह किन्हीं पदार्थों का सम्मिश्रण है, उसका समूह है। ये पदार्थ टूटते हैं, टूटते-टूटते आप परमाणु तक पहुँच गए तो बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने समझा अब हम बिलकुल अंत में पहुँच गए, सब समझ गए। परमाणु आ गया हाथ में। ऐसा करते-करते इसमें से तमाम यांत्रिक दृष्टिकोण पैदा हो गए। यन्त्र बनाने की प्रक्रियाएँ पैदा हो गईं। उसमें से न्यूटन के नियम निकले। उसने हमें यन्त्र बनाने की सारी प्रक्रियाएँ बताईं। तरह-तरह के जितने यन्त्र बने न्यूटन के नियम से बने। आकाश में प्रक्षेपण हुआ। फिर उसी में से धीरे धीरे जो विज्ञान में डाला गया तो बहुत से दूसरे नियम निकले। यहाँ तक तो वे पहुँच गए। दूसरी तरफ आप जब परमाणु तक पहुँच गए तो आपने ये बताया कि ये सृष्टि का खेल है।
जिसको आप समाजशास्त्री कहते हैं, पहले सभी फिलाॅसफर हुआ करते थे। अब सब साइंटिस्ट बन गए हैं। मैं जब एम.एससी. में पढ़ता था तो हमने अपने प्रोफेसर से पूछा – साहब ये कहाँ से बना है, तो उन्होंने कहा – लाइब्रेरी में जाओ, वहाँ रिसर्च जर्नल रखा है उसमें देख लेना। अब रिसर्च जर्नल ढूढ़ते रहे। इसका तो मिला नहीं एक बड़ा मिला जिसमें लिखा था, जिसमें लिखा था – फिलोसोफिकल मैगेजीन। उसमें एक फिजिक्स का था, एक मैथेमैटिक्स का था और एक कैमिस्ट्री का था। तीन खंड थे उसमें। तब मैंने कहा कि ये क्या चक्कर है। ये फिलाॅसफी के मैगजीन में फिजिक्स कहाँ से आ गया। बाद में जब कई साल बाद बहुत कुछ आगे पढ़ते रहे तो पता लगा कि इसका चक्कर ये है कि पहले सब अपने को फिलाॅसफर कहते थे तो साइंटिस्ट भी अपने को फिलाॅसफर कहते थे, नेचुरल फिलाॅसफर। अब हाल ये हो गया है कि हर फिलाॅसफर अपने को साइंटिस्ट कहता है। इकोनोमिक, साइकोलोजी भी एक साइंस है। हिस्ट्री भी एक साइंस है। जिओग्रफी भी एक साइंस है। कोई भी एक ऐसी चीज नहीं बची है जो साइंस नहीं है। जुरिसपुडेंस भी एक साइंस है। फोरेंसिक भी एक साइंस है। जैसे पहले सभी अपने को फिलाॅसफर बताता था अब हरेक अपने को साइंटिस्ट बताता है। इसलिए जो साइंस का प्रभाव आया तो समाजशास्त्र में भी आया। तो कुछ लोगों ने कहा भाई ठीक है जैसे वहाँ परमाणुओं से सारी चीजें बनी है तो यहाँ परमाणु क्या है? ैड।स्स्म्ैज् न्छप्ज् है। मानव व्यक्ति ीनउंद इवकल की ीनउंद चमतेवदंसपजल की। एक व्यक्ति एक समाज का मूल कण है। इसी से समाज बनता है। जैसे एटम से बनता है तो उन्होंने कहा जो संूे व िंजवउ है, वो संूे व िेवबपंस इमींअपवनत है। फिर फ्रीडम परमाणु तत्व इधर घूम रहा है उधर घूम रहा है, राइट टू हैव प्रोपर्टी डेमोक्रेसी। ये जो आजकल के जितने सिद्धांत हैं, इन सब लोगों ने इसी दृष्टि से विचार किया कि समाज ऐसा ही होना चाहिए। जो डेमोक्रेसी की बात की जाती है इसका उद्गम फ्रांस में है। उन्होंने कहा – एटम इज फ्री। तुम कौन होते हो? मेरी इच्छा है तुम्हें टक्कर मारूँ। तुम्हारी इच्छा है तो तुम टक्कर मारो, कोलिजन करो। लेकिन उसको रोकने के लिए। उन्होंने कहा – नहीं रुको, यहाँ तक कहा कि जो जैसे ला आफ एटामिक बिहेवियर है वैसे ही लौज आफ ह्यूमन बिहेवियर होना चाहिए। ये सरकार को ला बनाने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। दियर शुड बी लीस्ट गवर्नमेंट। थोड़ा बहुत इंतजाम करने की कानून तो जो नेचुरल कानून है ह्यूमन बिहेवियर की उनको दे दो। सोशल साइंस में से तरह तरह के विचार आए। लेकिन बात ये बनी भाई प्राइवेट प्रोपर्टी, डेमोक्रेसी, फ्रीडम ये बुनियादी है। अब इसमें से कैपिटल शब्द निकला। वो कह रहे हैं उद्गम वहाँ से आया है। ये जो अनजाने बिना समझे हमने इम्पोर्ट कर लिया उन नियमों का जिस पर समाज नहीं चलता है। फिर चूँकि इन नियमों के आधार पर टेक्नोलाजी आ रही है और वही सारे नियम उस टेक्नोलाजी के जन्मदाता थे, इसलिए टेक्नोलाजी भी अभिन्न अंग बन गया। उधर दूसरी तरफ से क्या हुआ? जब तोड़ना शुरू होता है तो आदमी रुकता थोड़ी है। जरा परमाणु को ही देखें तो इसके अन्दर क्या है? परमाणु को तोड़ डाला। उसमें से जो निकला समझ में नहीं आया। आप एलेक्ट्रोन को नहीं देख सकते। किसी सूक्ष्म कण को नहीं देख सकते। न ही पकड़ सकते हैं। न नाप सकते हैं। तो काहे का विज्ञान? कुछ नहीं। फिर आइंस्टीन का सिद्धांत आया। कहा कि हमारी जो तोड़ने जोड़ने वाली दृष्टि थी उसको बदलना पड़ेगा। यथार्थ इस तरह से समझा नहीं जा सकता है। और भी बहुत से वैज्ञानिक हुए, ये टूट फूट तो फिर समाज में आनी ही थी, वो आ गई। वो जो टूटना फूटना वहाँ हो रहा है, यहाँ भी हो रहा है। जितने विकार विज्ञान ने अपने यहाँ पैदा किए टेक्नोलाजी के माध्यम से वो सब यहाँ आ गए। अब सवाल ये है कि इसमें से डेमोक्रेसी को क्या मिलेगा? जिसको हम कहते हैं कि संबंध आएगा कि नहीं, इंडस्ट्री से आ गया, औरों से आ गया, फिर डेमोक्रेसी का मीमांसा कर लें। डेमोक्रेसी के लिए कहा गया भाई ये मनुष्यों को अपना भाग्य निर्धारण करने की सुविधा देता है। स्वतंत्रता देता है। कितनी देता है वो अभी देखेंगे। फिर लगा हम चूज कर सकते हैं, हम इसको मुख्यमंत्री बनाएँगे, नरेश जी को बनाएँगे या इनको बनाएँगे, ये हमें चूज करना है। ये हमारा अधिकार है। जिसको पसंद करना है उसको करेंगे। पसंद करने के अधिकार का मतलब ये है कि मेरे पास जानकारी होनी चाहिए। अगर जानकारी नहीं है, इनफार्मेशन नहीं है तो किसे पसंद करूँगा? कैसे पसंद करूँगा? पहले तो लोग मिलते-जुलते थे। कुछ बैठक हो गई। कुछ किताबें पढ़ ली। अखबार पढ़ लिए। उतनी जानकारी से हम लोग छाँट लेते थे कि भाई ये चेयरमैन बनेंगे। ये म्युनिसिपलिटी का मेंबर बन सकता है। ये आदमी आगे चलकर एमएलए बन सकता है। इसने देश का बहुत काम किया है संसद बन सकता है, मंत्री बन सकता है, प्रधानमंत्री भी बन सकता है। जानकारियों का स्रोत जिसको हम लोग कहते हैं एलिमेंटरी मीडिया। फिर परंपरागत रूप से घरों में बात होती थी। स्कूलों में बात होती थी। चैराहों पर बात होती थी। इस प्रकार जानकारी का आदान-प्रदान होता था। लेकिन ये रफ्तार टेक्नोलाजी की रफ्तार के साथ बढाती गई। पहले लोग बैलगाड़ी से चलते थे, ट्रेन आ गई, मोटर गाड़ी आ गई, अब ये जानकारी कस्बे का नहीं रह गई। लोग ट्रेन में बैठ कर जा रहे हैं तो वहाँ लोगों को बताया। जैसे जैसे ये संचार साधन बढ़े, अखबार बढ़े, प्रिंटिंग प्रेस आए, जानकारियाँ बढ़ती गईं तो हमारे पसंद करने की क्षमता बढ़ती गई। फिर रेडियो आई उसने जानकारी का कुछ विस्तार किया। दिल्ली में क्या हो रहा है, मुंबई में क्या हो रहा है, चेन्नै में क्या हो रहा है, संचार साधन से धीरे धीरे जानकारी बढ़ी। जानकारी का क्षेत्र बढ़ा, उसके आधार पर लोगों ने कहा, हाँ चुनाव हो सकता है, हम छाँट सकते हैं, हमारे पास पर्याप्त जानकारी है। लेकिन एक दूसरी प्रक्रिया भी साथ साथ चल गई है। एक समय था जब कहा जाता था कि ये जूट प्रेस नहीं चलेगी। आप लोगों को पता है या नहीं, लेकिन उस समय कहा जाता था कि टाटा बिड़ला की प्रेस नहीं चलेगी। क्योंकि जूट कंपनियों के मालिक ही अखबार के मालिक होते थे। बहुतों ने कहा कि ये कंपनी के मालिक हैं, सही जानकारी नहीं देते हैं। अपने हिसाब से जानकारी दे रहे हैं। ये अखबार ठीक नहीं है। फिर यहाँ तक आने लगे कि टाटा बिड़ला की सरकार नहीं चलेगी क्योंकि जो सरकार बन रही थी, वो उसी जानकारी के आधार पर बन रही थी, जो इन प्रेस ने लोगों को दी थी।
मुझे पता नहीं आप लोगों में से कितने लोगों ने वो समय देखा है। यहाँ बहुत अधिक संख्या में नवयुवक हैं। शायद उस समय उनका जन्म नहीं हुआ था। लेकिन उस समय क्या हो रहा था। इन्होंने गोयन्का जी का नाम लिया। वो जैसे भी थे, जूट प्रेस वाले थे। वे दूसरी तरफ काम कर रहे थे वो दूसरी बात है। जानकारी का साधन बढा जानकारी का क्षेत्र बढ़ा। मगर जानकारी के साधनों का आधिपत्य किसके पास था? जैसे कहा गया कि अखबारों का आधिपत्य धनाढ्यों के पास था, छोटे अखबार जिनका कार्य क्षेत्र सीमित था एक जिला दो जिला पाँच सात जिला। प्रदेश व्यापी एक प्रदेश व्यापी जिसका दौर कठिन हो गया था, पर बड़े अखबार जो दिल्ली में भी छपते थे, मुंबई में भी छपते थे, कोलकाता में भी छपते थे क्यों? तो पैसा! जानकारी के साथ पैसों का संबंध शुरू हो गया। लेकिन जब ये ग्लोब्लाइजेशन आया तो केवल समाज की जानकारी नहीं, व्यापारिक जानकारी आई। ग्लोब्लाइजेशन में प्रतिस्पर्धा आई। इसको गला काट प्रतिस्पर्धा कहते हैं। दूसरों को पटकने लिए, अपने को बढाने के लिए, अपना एक निजी सूचना तंत्र होना चाहिए। क्योंकि दूसरे का अखबार मेरी अपनी बात नहीं छापेगा। मेरा तो शायद वह विरोध करेगा मेरे खिलाफ छापेगा। मेरा अखबार है, मेरी बात कहना है, मुझे इस अखबार का व्यापार बढ़ाना है। बात व्यापार की नहीं है ये अखबारों में प्रतिस्पर्धा होने लगी, उसका फल बहुत से लोग भुगत रहे हैं। तो फिर अखबार अखबार न होकर खबरों का पैकेज करने वाला एक कमोडिटिंग डिस्पैच हो गया। तो न्यूज न्यूज न होकर कमोडिटी हो गई। आप कमोडिटी की तरह उसका आर्थिक व्यवहार करने लगे। तो विज्ञापन निकला, विज्ञापन का डिजाइनिंग निकला। साम्राज्य बढ़ता चला गया।
टेक्नोलाजी तो बढ़ी। तेजी से बढ़ने वाली है। उधर टेलीफोन था वो भी जानकारी का साधन था। उसको खट-खट करो, डायल करो, कुछ वैसा करो इससे ज्यादा तेज हो और इससे ज्यादा नियंत्रित हो। टेक्नोलाजी ने जो काम किया उसको आप टेलीकम्युनिकेशन। टेलीकम्युनिकेशन में से टेलीविजन निकला। पहला टीवी आया वो बहुत बड़ा था। ब्लैक एंड वाइट था। तो उन्होंने कहा इससे क्या काम चलेगा? रंगीन होना चाहिए। रंगीन हो गया। अब ये जो विज्ञान नहीं कर रहा है। विज्ञान तो उसका सारा सिद्धांत तो मालूम था। उनका उपयोग उनका एप्लीकेशन किसलिए हो रहा है। हमें विज्ञापन करना है, हमें अपनी बात को, किस बात को, तो व्यापारिक बात को। शुरू में टीवी में एक दूरदर्शन हुआ करता था, तो उसका व्याप भी ज्यादा नहीं था। खर्चीला भी था। कहना चाहिए कि लोगों की पैठ भी ज्यादा नहीं थी। फिर ये हुआ कि साहब ये तो बहुत गलत बात है, सरकार ही का टीवी क्यों हो? निजी क्षेत्र में भी टीवी क्यों न हो? आ गए। फिर एक ही क्यों आए? हम तो ग्लोब्लाइज्ड वल्र्ड में रहते हैं। एकाधिकार सरकार का नहीं रह सकता है। ये व्यापार की तरह चल रहा है। खबर देना अब सामाजिक दायित्व नहीं रह गया है। जो सामाजिक दायित्व हमारे प्रभाष जोशी जी करते थे, सरोकारों की बात करते थे, अब इस सारे सूचना तंत्र में से, संचार तंत्र में से, सामाजिक दायित्व – सामाजिक सरोकार गौण हो गया है। वो ज्यादा से ज्यादा अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए एक उपक्रम बन गया है। एक व्हीकल बन गया है। कोई बात नहीं, आप व्यापार करते हैं करिए।
हाँ, बहुत असमर्थ हैं, उसको पुष्ट करने के लिए भारी प्रयत्नों की जरूरत पड़ेगी और इस बीच में हमारे राजतंत्र का, शिक्षा तंत्र का न्याय तंत्र का क्या बनेगा? क्यांेकि जन तंत्र की एक विशेषता यह भी है कि फार द पीपल, आफ द पीपल, बाय द पीपल। ये जो स्थिति आ गई है, फार द टेक्नो इकोनोमिक कंडीशन, बाय द टेक्नो इकोनोमिक कंडीशन, आफ द टेक्नो इकोनोमिक कंडीशन। मैं सोचता हूँ कि इसके लिए हमको सावधान रहना चाहिए। इसको हम आने न दें। एक समय हम पढ़ा करते थे, एक ऐसा शासन हुआ जिसमें आप एक कर्मचारी मात्र हैं या स्लेव्स हैं तो आर यू हैव अ स्लेव्स डेमोक्रेसी? अब कहा जा रहा है ऐसा कानून बनाओ, ये जो इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राइट बना, इसमें बार बार कहा जा रहा है अपने यहाँ कानून में परिवर्तन करो। क्योंकि आप जो अपने यहाँ गरीबों को सब्सिडी देते हैं, इससे मार्केट डिस्ट्राय हो रहा है। मेरा जो देश डिस्ट्राय हो रहा है, गरीबों की पूरी की पूरी जमात डिस्ट्राय हो रही है उसका क्या? बोलता है उससे मेरे को कोई मतलब नहीं। पलटवार करने के लिए अगर आपने यहाँ से सामान खरीदा तो याद रखना, तुम यहाँ से खरीदोगे तो वो बंद कर दूँगा। आपके पास तो वो टेक्नो इकोनोमिक पावर है ही नहीं। तो ये जो जटिल प्रश्न है कि आने वाली समाज की बौद्धिक स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता, संप्रभुता और सार्वभौमिक ये हमारे हाथ में रहेगी नहीं। विश्व में आज जो हो रहा है ये टेक्नोलाजी का जो डंडा है और डालर की पावर उसके पास है। हम बहुत खुश हो रहे है कि हमने फ्रांस को पछाड़ दिया। कल को हम ब्रिटेन को पछाड़ देंगे। हो सकता है आप परसों चीन को पछाड़ दो। आप अमेरिका को पछाड़ दें। तब भी आपके पास टेक्नो-इकोनोमिक पावर नहीं रहेगा। आप उस तरह कर नहीं सकते, करने नहीं देंगे। इसका दूसरा पक्ष है, आज जो चीन के पास टेक्नो इकोनोमिक पावर है तो आपके अधिकांश व्यापारिक क्षेत्र कब्जे में हैं। आपके बिजली के संयंत्र, आपके सारे मोबाइल, आप मोबाइल नहीं बना रहे हैं सब उसके हाथ में है। अगर कोई कंपनी खोली गई है नाएडा में, दो चार दिन पहले वो भी विदेशों से आया है। टेक्नोलाजी तो वहाँ से आ रही है ये एक बहुत ही गंभीर प्रश्न है। क्या एक स्वतंत्र मानव समाज रहेगा? व्यक्ति अपने विचार, सिद्धांत, ज्ञान, समझ के आधार पर विकास करेगा? अपनी परंपरागत विशेषताओं को बना रखेगा? या वो कठपुतली की तरह नाच नाचेगा जो टेक्नो इकोनोमिक पावर उसे नचाएँगी।
यह बात मुझे बहुत खल रही है। हो सकता है ये मेरा केवल भ्रम हो। लेकिन मुझे लग रहा है कि औरों को भी इस तरह का भ्रम हो रहा हो तो आइए मिल कर बैठ कर प्रूफ करने की कोशिश करें। इससे पहले कि माइक्रोफोन बंद किया जाए, अभी तो घड़ी इन्होंने दिखा दिया, मगर ऐसा भी हो सकता है कि सब बंद कर दिया जाए।
मैं समझता हूँ कि अगर आज प्रभाष जी होते तो निश्चित ही इन सरोकारों को और जोरदार तरीके से इसका समाधान करते। ये संकट केवल भारत के लिए ही नहीं है। विश्व मानव के लिए संकट है। एक दैत्याकार, व्यवस्था जो स्वर्णमय लंका के समान है, जहाँ रावण जैसा विद्वान व्यक्ति बैठा है, ये मामूली नहीं है। एक कम्बिनेशन था रावण और सोने का तो आज भी एक दैत्याकार टेक्नोलाजी और विशाल धन के भंडार पर बैठे हुए हैं। हमें आपको अपनी इच्छा अनुसार उपभोग करने के लिए छोड़ दिया है। प्रभाष जी निश्चित ही लोगों को इस खतरे से सावधान करते। मैं समझता हूँ कि जिनका मानवीय सरोकार है वो इस पर गंभीरता से विचार करें। जो प्रबुद्ध जन हैं यहाँ वो इस देश का मार्ग दर्शन करेंगे।
……………………………………………………………
(प्रभाष जोशी स्मृति प्रसंग में 15 जुलाई को प्रबुद्ध नेता और भौतिक विज्ञानी डा. मुरली मनोहर जोशी ने यह व्याख्यान दिया।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *