सभ्यता के संकट

सभ्यता के संकट

डा. कृष्ण गोपाल

हमारे समक्ष सभ्यता का संकट है। सारी दुनिया कहीं न कहीं इस संकट को अनुभव भी कर रही है। इस संकट से चिंतित भी है। समाधान क्या है? इस पर भी सारी दुनिया में गंभीरता से विचार हो रहा है। आज दुनिया में सभ्यता का जो वातावरण है, उसका केन्द्र बिन्दु विज्ञान है। जब हम लोग सभ्यता या फिरसिविलाइजेशन कहते हैं तो अपने को यह ध्यान में रखना है कि सिविलाइजेशन का सेंट्रल पाइंट हमेशा विज्ञान ही रहेगा। साइंस जब नए नए शोध करता है, उस शोध को लेकर के कुछ लोग मनुष्यों के लिए उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते हैं। हजार, दो हजार या फिर दस हजार पहले किसी भी व्यक्ति ने कोई शोध या खोज की होगी। उस शोध को तुरंत आवश्यकता के अनुरूप बदल देने का नाम सभ्यता है।

कल्पना करें आज से हजारों साल पहले मनुष्य कैसे रहता था? दस, पन्द्रह, बीस हजार वर्ष पहले कैसे उसने झोपड़ी बनाई होगी। कुछ लोगों के मन में आया होगा कि ईंट ऐसे बन सकती है। फिर ईंट बनाकर के ईंट के मकान बनने शुरू हुए होंगे। प्रारंभ में पैदल जाता होगा, फिर जानवर को पालतू बनाया होगा। फिर घोड़े की पीठ पर, ऊंट की पीठ पर बैठ कर यात्रा अधिक सुगम हुई होगी। जब पहिए का आविष्कार हुआ तो गाड़ी आ गई। बैलगाड़ी बनी, ऊंट गाड़ी बनी। फिर देखा कि कच्ची सड़क पर चलना कठिन है तो सड़क पक्की होने लगी। धीरे धीरे यह सिविलाइजेशनल मोड चलता है। मनुष्य का मस्तिष्क विचारवान है, क्रिएटिव है और ऐसे जो भी इनवेंशन होगा वो आवश्यकता के अनुरूप होगा या जिज्ञासा के कारण से होगा। आवश्यकता नहीं है, लेकिन एक जिज्ञासा है कि इस पहाड़ के पीछे क्या है? आवश्यकता नहीं है, लेकिन एक जिज्ञासा है कि इस धरती के नीचे क्या है? समुद्र की गहराई में क्या है? सूर्य आता कहां से है?चला जाता कहां है? ये जिज्ञासाएं हैं और व्यक्ति को प्रवृत्त करती हैं नई नई खोज करने के लिए, नए नए इनवेंशंस करने के लिए। इनवेंशंस होते हैं। वैज्ञानिक इस खोज को, आविष्कार का नामदेता है, एक प्रिंसीपल देता है। वह बताता है कि ऐसे होता है। जो हो रहा है, उसी को बताता है। क्रिएट नहीं करता है। सामान्य रूप से वो एक सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। बिजली कैसे बनती है, ऐसे बनती है। लेकिन तुरंत ही जो दूसरा व्यक्ति खड़ा होता है वो उसको उपयोगी बना देता है। उपयोगी बनाता है, किसी इंस्ट्रूमेंट में बदल देता है, कोई साध्य में बदल देता है, किसी मशीन में बदल देता है, कोई अप्रेटस में बदल देता है और एक सभ्यता धीरे धीरे आगे बढ़ती जाती है, बढ़ती जा रही है।

समाज का हजारों वर्षों के व्यवहार से हजारों वषों के चिंतन से एक स्वरूप्र बनता है। हरेक समाज की कुछ एक विशेषता बनती है। वो उसकी संस्कृति होती है। यह हजारों साल में आता है। सभ्यता एकदम तेजी से बदलती है। कितने अच्छे सुन्दर हाल में हम लोग बैठे हैं। आज से पांच सौ वर्ष पूर्व ऐसे हाल की कल्पना नहीं थी। आज से पांच सौ वर्ष बाद भी कैसा होगा वो मालूम नहीं है। यह सिविलाइजेशन चेंज करता है, फटाफट चेंज करता है। देखिए संस्कृति एक ऐसी चीज है जो सैकड़ों हजारों साल में धीरे धीरे, धीरे धीरे डेवेलप होती है और लंबे समय तक चलती है। हम कह सकते हैं कि सभ्यता एक बाहरी आवरण है। हमसब उसके अंदर हैं। सभ्यता शरीर है तो संस्कृति उसकी आत्मा है। हजारों साल पहले हम लोग जमीन पर बैठ कर पत्तल पर भोजन करते होंगे। धीरे धीरे समय बदला। मिट्टी के फिर कांसे के फिर स्टील केपात्र आ गए। क्राकरी आ गई, जमीन से उठ कर डायनिंग टेबल पर आ गए। खड़े खड़े भोजन करने लगे। यह क्या है, यह सिविलाइजेशन है। लेकिन भोजन केप्रति, अन्न के प्रति हमारा व्यवहार क्या है?हम कैसा मानते हैं उसको ? उसको पवित्र मानते हैं।बगल वाले से पूछ कर के करते हैं, जो भूखा है उसको देने के बाद करते हैं। घर में बड़े बूढ़ों को पहले देते हैं। पहले बच्चों को देते हैं। बाद में हम लेते हैं। भोजन के संबंध में यह जो दृष्टिकोण  है यह सांस्कृतिक है। अब ब्रेड खाएंगे, बिस्किट खाएंगे, मक्खन खाएंगे कि टोस्ट खाएंगे कि यहां खाएंगे कि वहां खाएंगे, क्राकरी में खाएंगे कि स्टील में खाएंगे, वो पैक्ड होगा कि अनपैक्ड होगा, यह सभ्यता तय करेगी। लेकिन संस्कृति तय करेगी कि उसका मूल क्या है। उसके बारे में हमारा दृष्टिकोण क्या है। अब आज सिविलाइजेशन ने क्या किया है कि एक इंस्टूमेंट के अंदर बीस प्रकार के म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट आ सकते हैं। एक बटन दबाइए तो तबला बजेगा। एक बटन दबाइए तो उससे हारमोनियम बजेगा। अगले बटन से सारंगी बजती है। अगले बटन से पिआनो बजता है। एक ही सैट है और उससे तीस चालीस प्रकार के इंट्रूमेंट बजते हैं। लेकिन बजाना क्या है, यह संस्कृति तय करेगी। इंस्ट्रूमेंट कैसा हो, यह सभ्यता तय करेगी। और सभ्यता और संस्कृति को जो देश, समाज मिलाकर के चलते हैं, वो लंबा चलते हैं और अपने वैचारिक हजारों वर्षों के अनुष्ठान को बचा कर के लेकर के चलते हैं। इसलिए अपने को ध्यान में रखना है कि सिविलाइजेशन क्या है, संस्कृति क्या है। और आज मैं इसी विषय पर चर्चा करना चाहूंगा।

तेजी से विज्ञान पिछले दो सौ तीन सौ वर्षों से बढ़ रहा है।सब कुछ कर देने के लिए आमादा हैर्। किसी भी उंचाई  तक जा सकता है। हम पांच मिनट के अंदर पृथ्वी का चक्कर लगा सकते हैं। हिमालय से भी बहुत उंचाई तक जा सकते हैं, मंगल तक जा सकते हैं। महीनों महीनो तक आरबिट में घूम सकते हैं। जो सुविधा अपेक्षा कर सकते हैं वो पा सकते हैं। हम रोबोट को फीड कर सकते हैं कि सुबह4 बजे चाय लाकर देना तो वो 4 बजे चाय लाकर देगा। 9 बजे आलू का परांठा ला कर देना तो वो 9 बजे आलू का परांठा लाकर देगा। ऐसे रोबोट आज बन रहे हैं। जो कभी सोचा भी नहीं होगा वो आज विज्ञान कर सकता है, किसी भी क्षेत्र में। वो चाहे चिकित्सा का क्षेत्र हो, चाहे वो माइनिंग का क्षेत्र है। अभी मैं धनबाद गया था। वहांइतनी बड़ी बड़ी मशीनें हैं कि चार पांच ट्रक का जो लोड कोयला होता है चालीस पचास टन, उसको पन्द्रह बीस सेकण्ड में निकाल कर के माइन के बाहर फेंक देता है। दो दिन के अंदर एक बड़ा पहाड़ खड़ा कर सकता है। अर्थात विज्ञान ने इतनी बड़ी बड़ी क्षमताओं का विकास किया है जो आज से सौ दो सौ साल पहले असंभव लगता था। विज्ञान एक सी ही शक्ल के एक लाख व्यक्ति पैदा कर सकता है और सेना खड़ी कर सकता है। संवैधानिक रूप से यह अभी बैन है। क्योंकि क्लोन पैदा करना उसको आ गया है। यहां से सैल का टुकड़ा लेगा और एक लाख आदमी पैदा कर सकता है। अर्थात विज्ञान किस सीमा तक जा सकता है। यह सच है कि विज्ञान किसी भी सीमा तक जा सकता है लेकिन यह सच है विज्ञान वो सब कुछ कर सकता है जो आज मस्तिष्क में आ रहा है। लेकिन वर्तमान का परिदृष्य क्या है? यह भी देखने की बात है। एक ओर हम सब कुछ पा सकने की स्थिति में हैं, यह बात सच है। लेकिन दूसरी ओर ऐसा भी लग रहा है कि कुछ गड़बड़ भी है। मनुष्य जो सामान इकट्ठा करता है उसके पीछे क्या होता है? उसके पीछे एक हेतु होता है, एक उद्देश्य होता है। इससे अपने को सुख मिलता है। अधिक से अधिक दुख दूर हो, कष्ट दूर हो, समस्याओं कासमाधान, निदान हो जाए और मेरा जीवन सुखमय हो जाए, अल्टीमेट टारगेट तो यही है। दुख कम, सुख बढ़े। तरह तरह के आविष्कार हो रहे हैं, तरह तरह के सामान आ रहे हैं, लेकिन वास्तव में जो हमारा उद्देश्य है वो पूर्ति हो रही है कि नहीं? कुछ हद तक तो हो रही है, दुख कम हो रहा है, बहुत सी असाध्य बीमारियां ठीक हो रही हैं, बहुत बातों का समाधान हो रहा है, यह सच बात है। हजारों प्रकार की समस्याएं दूर हो रही हैं इसमें कोई शक नहीं है, कोई दो राय नहीं हैं। व्यक्तिगत सामर्थ्य बढ़ रहा है, लेकिन समाज में जो हो रहा है वो देख कर के मन को थोड़ी चिंता भी होने लगती है। इसलिए एक ओर साइंस टेक्नालाजी, डेवलपमेंट और दूसरी ओर मानवीय संवेदनाएं।सुख ये दोनों का तालमेल बन रहा है कि नहीं बन रहा है। यह देखना बहुत आवश्यक है। और यदि समाज में होने वाली घटनाओं को थोड़ा सांकेतिक रूप से हम निगाह डालते हैं तो समझ में आता है कि थोड़े दिनों पहले आपने एक आशा साहनी नाम की महिला की घटना पढ़ी होगी, वो संपन्न है, उसका बेटा भी संपन्न है। विदेश में हैं, संपत्ति भी है लेकिन क्या हुआ कि चार महीने तक बेटे ने उसकी सुध नहीं ली। वो बुलाती भी रही लेकिन बेटा आ नहीं सका। कारण या उसकी मीमांसा पर डिस्कशन यहां नहीं है। लेकिन कुछ तो ऐसा हुआ जो अनहैल्दी है। कुछ तो ऐसा हुआ जो मन को सुख देने वाला नहीं है।

एक मां बार-बार बार बेटे को बुलाती है और किस प्रकार से तड़प तड़प कर एक एक बूंद पानी के लिए प्रतीक्षा करते करते वो मर गई। कितने महीने उसको मरने में लगे होंगे। इतना आसान काम नहीं है। डाक्टर साहब जानते हैं कि कम से कम तीस पैंतीस दिन तक आदमी बिना जल के जीता है। लोकनायक जयप्रकाश विदेश में थे। पीएचडी करने के लिए गए थे। उनके घर से समाचार मिला कि मां बीमार है। वो तुरंत सारा रिसर्च का काम छोड़कर तुरंत वापस आ गए। उनके सब लोगों ने कहा कि अरे इतने दूर से वापस जा रहे हैं, फिर दोबारा आना होगा कि नहीं आना होगा, आपका रिसर्च पीएचडी पूरा होगा कि नहीं होगा थोड़े दिन रूक जाइए। नहीं नहीं मां ने बुलाया है रूकने का क्या काम है। तुरंत  चले आए। पीएचडी नहीं हुआ लेकिन मां के पास अंतिम समय में वो रहे। एक वो दृष्य था, एक यह दृष्य है। वेअर वी वेंट रांग। गड़बड़ क्या हो गया है। आशुतोष मुकर्जी को वाइसराय ने कहा इस काम के लिए थोड़ा तैयारी कीजिए और विदेश चले जाइए। बोले नहीं मां को पूछ लेता हूं। वाइसराय ने कहा मां को पूछ लेता हूं, मैं वाइसराय आफ दिस कंट्री आस्किंग यू टू गो, कहा नहीं नहीं मेरी मां का दर्जा वाइसराय से बहुत उंचा होता है सर। अब देखिए यह देश कैसा था, समाज कैसा था और कैसे एग्जांपल्स हमको ध्यान में आ रहे हैं यह चिंता की बात है।

यह राम लक्ष्मण का देश है। कितनी कहानियां हैं भाइयों की, परिवारों में। छोटे बड़े विवाद तो होते रहते हैं घरों में। कोई दिक्कत नहीं है। एक बूढ़ा बाप कोर्ट में जाता है कि मेरे बेटे ने मेरे साथ धोखा दे दिया है, मेरा बेटा मेरी चिंता नहीं करता है, ऐसे दसियों केस आते हैं । एक केस अभी आपने देखा होगा। बारह हजार करोड़ की संपत्ति का मालिक और कोर्ट में कह रहा है कि मेरे पास अकाउंट में किराए के लिए पैसा नहीं है क्योंकि मेरा बेटा देता नहीं है। ये क्या हो गया है? संपत्ति भी है, सुविधा भी है, साइंस भी है, सब कुछ है लेकिन अशांत है। मुकेश पाण्डे नाम का आईएएस अफसर बिहार का, घर में कोई समस्या हुई और ट्रेन से कट कर के मर गया। अच्छा इंटेलीजेंट लड़का था मैं जानता हूं। आई ए एस की अपनी टीम के सबसे अच्छे बच्चों में से एक था। हुआ क्या, पत्नी की और मां कीनहीं बनी, बहुत कोशिश करने के बाद नही बनी मर गया, क्या नहीं था। गड़बड़ क्या हुआ। कहीं स्कूल में हम देखते हैं एक बच्चा आता है मशीनगन ले आता है या और कुछ ले आता है, पन्द्रह बीस बच्चों को मार देता है। दुनिया में ऐसी बहुत घटनाएं हो रही हैं। और छोटी छोटी घटनाएं छोड़ दीजिए कोई कोई देश ऐसा खड़़ा हो जाता है जो कहता है कि मैं पूरे अमेरिका को शांत कर दूंगा। अमेरिका राख का ढेर बन जाएगा। यहां तक पहुंच जाते हैं। इसका मतलब है सारे के सारे सिविलाइजेशनल चेंज ने हथियार तो दिए, साधन तो दिए, लेकिन कुछ ऐसा भी दे दिया है जिसमें हम चिंतित हैं। हम कहां जा रहे हैं। हमारी फाइनल डेस्टिनी क्या होगी। यह चिंता का विषय है। मुझे बार बार ध्यान में आता है कि हम क्या करें, कहां जाएं, कौन सा रास्ता ठीक है और इन दोनों बातों पर विचार करने की आवश्यकता है। एक ओर साइंस एण्ड टेक्नालाजी और सिविलाइजेशनल चेंजेज, नंबर दो हमारे लिए शांति और सुख कहां है। दोनों का एक अच्छा सिंतेसिस हो हाएगा तो शायद मार्ग मिलेगा।

जैसा मैंने प्रारंभ में बताया आवश्यकता और जिज्ञासा ये दोनों साइंस के पास जब चली जाती  हैं तो साइंस कुर्छ क्रिएशन करता है, कोई इन्वेशन करता है।तुरंत कोई टेक्नोक्रेट या इंजीनिअर ऐसा कोई उसको एक उपयोगी सामान में बदल देता है, तुरंत जो उद्योगपति है, इंडस्ट्रियलिस्ट है वो उसको ले लेता है। एक नया आइटम बनता है फिर मार्केट में जाते हैं।  मार्केट में प्रजेंटेशन होता है। सामान बिकता है लोग खरीदने लगते हैं। एक के बाद एक, एक के बाद एक नए नए सामान आने लगते हैं।लोग खरीदने लगते हैं और यह मार्केट आ गया। साइंस ने एक मार्केट क्रिएट कर दिया। अब इंडस्ट्रियलिस्ट है, उद्योगपति है और एक ओर साइंटिस्ट है, इंडस्ट्रियलिस्ट है फिर टेक्नोक्रेट्स हैं, लेबरर्स हैं, रा मेटीरिअल है, मार्केट में पब्लिसिटी हो रही है,गवर्नमेंट है, जनता खरीदने को उमड़ रही है। यह एक युग है। हमारी कुछ प्राइमरी नीड्स होती हैं, सब जानते हैं। ये बेसिक रिक्वायरमेंट्स हैं। कुछ रिक्वायरमेंट्स कंपीटेटिव हैं। प्रतिस्पर्धी रिक्वायरमेंट्स हैं। उसकी आवश्यकता नहीं, लेकिन उसके बगल वाले के पास है इसलिए मेरे को लेना है। बगल वाले ने यह मोटर साइकल ली है। उस लड़के के पास ये मोटर साइकल है, उसके पास यह गाड़ी है, उसका बंगला ऐसा है, मेरा बंगला ऐसा है। उसके घर ऐसा सोफा है, मेरे घर ऐसा सोफा है। उसके घर में ऐसे कर्टेन हैं, मेरे घर में ऐसे कर्टेन हैं। उसके घर में किचन में यह सामान है, मेरे किचन में यह सामान है। व्हाट इज दिस। ये कंपीटेटिव नीड्स क्रिएट की जाती हैं। थोड़े दिन पहले मैं हरियाणा में था, एक बहन जी हमारे पास आईं कहने लगीं भैया, हमारे मकान का उद्घाटन होने वाला है, गृह प्रवेश है आप आइए, मैंने कहा ठीक है। जरूर आएंगे। कहां बना रहे हैं? वहां बना रहे हैं। डुप्लेक्स बनाया है। पहले कहां रहते थे?वहां रहते थे। वो किराए का मकान था?नहीं किराए का तो नहीं था। कितने लोग हैं घर में? घर में केवल तीन लोग हैं। वो मकान छोटा था? नहीं छोटा भी नहीं था, ठीक था। तो दोबारा क्यों बनाया? कारण क्या था? अब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि अच्छा मकान था तो यह डुप्लेक्स क्यों बनवाया? कितने में बना? 90 में बन गया। फिर मैंने पूछा क्यों जरूरत क्या थी आपको ? अरे क्या बताएं भैया छोड़ो बातें, नहीं आप बताओ तो सही। अरे मेरे एक पड़ोसी ने डुप्लेक्स बनवा लिया था। पड़ोस की एक महिला ने एक अच्छा डुप्लेक्स मकान बनाया, वों बार बार दिखाती थीं कि ये है, ऐसा है वैसा है।

मेरे मन में इतना टेंशन हो गया था तो सारा एफडी तुड़वाया और मकान बनवा लिया। ले तेरे से अच्छा मेरा मकान है। बड़ा कठिन है। यह जो मार्केट है यह एक ऐसी मानसिकता पैदा करता है कि आपकी आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता क्रिएट करते हैं। अगर आपके घर में यह मशीन नहीं है, वाशिंग मशीन नहीं है, फ्रिज ये नहीं है, टी वी ये नहीं है, सोफा ये नहीं है। अगर शर्ट का ब्रांड ये नहीं है तो आपका जीवन बेकार है, कोई मतलब का ही नहीं है। आप इस दुनिया में रहने के लायक ही नहीं हैं। कहां तेरहवीं शताब्दी के चौदवीं शताब्दी के आप लोग आ गए। ये क्रिएट की जाती है, नीड क्रिएट की जाती है। क्योंकि सारा सिविलाइजेशनल मोड मार्केट के हाथ में आ गया है। मार्केट उद्योगपति के हाथ में आ गया है। उद्योगपति के हाथ में टेक्नोक्रेट है और एक साइंटिस्ट चुपचाप बैठा हुआ है वो जो इनवेंशंस करता है। नई नई चीजें निकालता है। आज से सौ डेढ़ सौ साल पहले पेटेंट नाम की चीज नहीं थी। सब सार्वभौम था। जो मैंने इनवेंशन किया वो दुनिया के लिए था, पूर्ण मानव जगत के लिए होता था। नहीं, आज के सिविलाइजेशन में ज्ञान के उपर ताला डाल दिया है। यह ज्ञान मेरा है। यह पाश्चात्य जगत की सोच का परिणाम है। ज्ञान मेरा हो ही नहीं सकता। क्योंकि मुझे जो बुद्धि प्राप्त हुई है मेरे गुरूओं ने दी है। उसके पीछे हजारों साल की एक लंबी परंपरा है। मेरे को एबीसीडी भी नहीं

आ सकता है, वह भी सिखाया है किसी ने। हजारों लोगों के प्रयत्न से कोई एक साइंटिस्ट बनता है, हजारों लोगों का कंट्रीब्यूशन होता है। कोई नहीं कह सकता मैं बन गया अपने आप। कोई नहीं कह सकता। कल्पना ही नहीं है। हजारों लोगों का कंट्रीब्यूशन होता है तब जाकर एक प्रोफेसर बनता है, साइंटिस्ट बनता है। उसके ब्रेन में, उसके मस्तिष्क में एक बात आ गई तो वो केवल उसकी नहीं है, यह संपूर्ण जगत की है। जे सी बोस विदेश में थे। एक दिन उनके होटल में एक उद्योगपति पहुंचा और वो कहता है कि सर आपने जो इनवेंशन किया है क्या मैं इसको खरीद सकता हूं। और उसके लिए मैं आपको अच्छा धन दूंगा। जगदीश चन्द्र बसु ने क्या कहा होगा, जगदीश चन्द्र बोस ने कहा नहीं नहीं ऐसा नहीं है। हमारे देश की परंपरा ज्ञान को बेचने की नहीं है। आप जा सकते हैं। मैं बिक्री के लिए नहीं आया हूं। नमस्कार। वापस भेज दिया। जे सी बोस ने एक पत्र रवीन्द्र नाथ टैगोर को लिखा था, भिक्षा मांगता है। मेरा जो इनवेंशन है उसके लिए लेकिन मैंने उसको मना कर दिया। मैंने कहा कि मैं उस देश से आया हूं जिस देश मे परंपरा है कि कोई भी आविष्कार सार्वभौम होता है, उसकी बिक्री नहीं होती है। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने बहुत सुन्दर पत्र लिखा। आप लोग कभी गूगल से नैट से देखिए नोट करिए। रवीन्द्र नाथ टैगोर कहते हैं मेरे मित्र, गुरू, मेरे शिक्षक तुम उन लोगों के नेत्रों को खोल दो जो भौतिक चकाचौंध से अंधे हो गए हैं। देखने दो अंतरतम के अंतर के प्रकाश में विश्व को, मानव जगत को देखने दो। यह तुम्हारे उपर एक डिवाइनर रेसपोंसिबिलिटी है, एक शिक्षक के नाते करो तुम यह काम। वो पत्र बंगला में है आप लोग उसको देखिए। ज्ञान का पेटेंट नहीं होता है। लेकिन पश्चिमी जगत के लोगों ने प्रिंसीपल बनाया। क्या प्रिंसीपल बनाया, एक सि़द्धांत सैट किया, क्या कि यह धरती हमारी है।

हम धरती के मालिक हैं। धरती हमारी संपत्ति है, प्रापर्टी है। और यह प्रिंसीपल, एक फिलासफीकल आस्पेक्ट उनके मन में बैठता चला गया। धरती पर जो भी कुछ है वो हमारा है  हम उसके मालिक हैं। हम उसको यूज कर सकते हैं। हम उसकेा मिसयूज कर सकते हैं। जो चाहे सो करेंगे। खोद देंगे इसको। इसको मरोड़ देंगे, इसको ऐंठ देंगे। पहाड़ को गिरा देंगे, जमीन के नीचे चले जाएंगे। जितना भी हो सकता है इसको एक्सप्लोइट करेंगे, एक्सटेक्ट करेंगे। हम जो चाहे करेंगे, धरती हमारी है। क्योंकि धरती हमारे लिए बनाई गई है यह उनके सिद्धांत में है। बेसीकली दिस वाज ए रांग कंसेप्ट। भारत के लोगों ने कहा धरती हमारी नहीं है, हम धरती के हैं। क्योंकि धरती हमारी मां है। मां प्रापर्टी नहीं हो सकती। मां के उपर रहने का अधिकार है। मां आपको जन्म देती है, मां हमको फल देती है, मां हमको वस्त्र देती है, मां हमको आवास देती है, मां हमको औषधि देती है, मां हमको सब कुछ देती है और इसलिए भारत के महान ऋषियों ने परंपरा के अनुसार  धरती के साथ हमारे आत्मीय संबंधों के साथ हमको जोड़ा और कहा – माता भूमि: अहम पुत्रो अहम प्रिज्ञा। यह धरती मां है, हम पुत्र हैं। जैसे ही पुत्र का भाव बदल गया बेटा मां का मालिक नहीं होता है। बेटा मां का सेवक होता है केवल। और उसे मां से केवल उतना ही लेने का अधिकार है जिससे मां का स्वास्थ्य भी ठीक रहे, मां का शोषण नहीं कर सकता, मां को एक्सप्लाइट नहीं कर सकता। मां का दूध पी सकता है बस। यह बेसिक कांसेप्ट है। मौलिक अंतर है चिंतन में, विचार करने में। और इसलिए वहां के आर्थिक जगत में, साइंस के जगत में, एक विचार उत्पन्न हुआ है। अगर इकानमिक डेवलपमेंट करना है तो अधिक से अधिक कंजम्शन बढ़ाओ।

जितना कंज्यूम करेंगे उतना प्रोडक्शन होगा। जितना प्रोडक्शन होगा उतनी इंडस्ट्री चलेगी। इंडस्ट्री चलेगी उतना उनको रोजगार मिलेगा। रोजगार मिलेगा तो लोगों के पाकेट में पैसा आएगा। पैसा आएगा तो वो मार्केट में जाएंगे। मार्केट में जाएंगे तो सामान खरीदेंगे। यह एक साइकल बनेगा। मोर कंजम्शन मोर प्रोडक्शन, मोर प्रोडक्शन मोर इकनामिक ग्रोथ, मोर डेवलपमेंट, मोर एंप्लायमेंट। इस ओर ये चल पड़े। और ये जीडीपी के रेट के चलते, यह इतनी बिजली खर्च करता है। तो जो जितना ज्यादा खर्च कर सकता है वो उतना ज्यादा विकसित देश हो गया ऐसा सिद्धांत उन्होंने स्थापित किया। हमारे यहां यह सिद्धांत हो ही नहीं सकता। विकास का यह पेरामीटर हमारे देश का है ही नहीं। हमारा सांस्कृतिक विचार थोड़ा भिन्न है। यह सिविलाइजेशनल थाट बिल्कुल भिन्न है। महात्मा गांधी को क्या कहेंगे। मोस्ट अनसिविलाइज्ड। एक धोती में से आधी धोती पहन कर आधी धोती लपेटता है जो आदमी तो वो आदमी का तो कितना क्राप कंजम्शन होगा। बहुत कम होगा। कितनी बिजली खर्च करते हैं। बहुत कम खर्च करते हैं। कैसे काम होगा। मैं आपको एक छोटी सी घटना बताता हूं। गांधी जी बहुत कमजोर रहते थे तो डाक्टरों ने कहा कि गांधीजी का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है, क्योंकि इतना कम खाते हैं। थोड़ा नाश्ता बढ़ाओ। थोड़ा डाइट बढ़ाओ। गांधी जी आठखजूर, थोड़ा सा दूध का नाश्ता लेते थे बस। सबने मिल कर के गांधीजी से कहा आठ नहीं दस खजूर आप लेंगे कल से। वल्लभभाई पटेल थोड़ा निकट थे गांधीजी के, वल्लभभाई पटेल ने बड़े प्रेम से कहा बापू कल से आठ नहीं दस खजूर बढ़ा दो। गांधी जी चुप रहे। अगले दिन धोकर के साफ कर के 10 खजूर प्लेट में रखे। छोटा सा गिलास दूध का रखा। गांधीजी ने 6 खजूर लिया। चार छोड़ दिए। पहले आठ लेते थे, अरे यह क्या किया आपने चार छोड़  दिए। हां, मेरा आठ में काम चल जाता था मैंने सोचा कि 6 खा कर के देखता हूं। 6 में चल जाएगा तो 6 खाउंगा। इसको आप क्या कहेंगे। भारत का सांस्कृतिक दर्शन भिन्न है। पाश्चात्य जगत का सिविलाइजेशन थाट भिन्न है। हमारे पेरामीटर्स अलग हैं।

भगवान बुद्ध को क्या कहेंगे। महावीर को क्या कहेंगे। और छोड़ दीजिए। लाल बहादुर शास्त्री जेल में थे। एक दिन उनकी पत्नी ललिता शास्त्री मिलने के लिए गईं। एक कुर्ता धोती नया सिलवाकर लेकर के गई जेल में। शास्त्री जी पूछते हैं कि यह कहां से आया। थोड़ा शांत रहने के बाद ललिता शास्त्री बोलती हैं वो 12 रूपया आता है न,12 रूपया महीना कांग्रेस कमेटी के कार्यालय से शास्त्री जी के घर में आता था घर चलाने के लिए। उसमें से मैंने दो दो रूपया बचा कर के सात आठ महीने का बच गया तो एक कुर्ता धोती सिलवा दिया है। बोले ठीक है। कोई बात नही। खर्चा दस में चल जाता है, हां चल जाता है। ललिता जी चली गई जेल में मिलने के बाद। लाल बहादुर शास्त्री ने पत्र लिखा कांग्रेस कमेटी कार्यालय को कि मेरे को ऐसा जानकारी में आया है कि मेरे घर का खर्चा दस रूपए में चल जाता है, आगे से मेरे घर पर दस रूपए भेजना। यह भारत का सांस्कृतिक अधिष्ठान है। मेरा खर्चा मिनिमम में चल जाता है तो न्यूनतम लेना। इस धरती से, प्रकृति से कैसे कम से कम लेकर के काम बन जाए। नहीं तो सारी धरती एक व्यक्ति की भी तृष्णा पूरी नहीं कर सकती। लेकिन 700 करोड़ लोगों को उनके जीवन के उपयोगी सामान वो दे सकती है। संसाधन सीमित हैं, पाश्चात्य जगत ने विचार ही नहीं किया। मोर कंजम्शन, मोर कंजम्शन सारी पृथ्वी को कहां ले जाएंगे। दस हजार साल में जो कोयला जमा होता है, उसको आज दुनिया एक दिन में जला देती है। दस हजार वर्षों में जो नीचे आयल जमा हुआ, उसको हम एक दिन में फूंकते हैं। पानी के खर्च करने की तादाद बढ़ती चली जा रही है। प्रति व्यक्ति जो 60-70 लीटर में काम चल जाता था अब बड़े शहरों में जो मोर सिविलाइज्ड लोग हैं अब ऐसी टेक्नीक और ऐसी सुविधाएं आ गई हैं, प्रति व्यक्ति पानी का कंजम्शन 200 लीटर से भी उपर हो गया है। आएगा कहां से पानी? यह सब जगह देखें, प्लास्टिक भी बढ़ रहा है, थर्मोकोल भी बढ़ रहा है, कपड़ा भी बढ़ रहा है, पानी का कंजम्शन भी बढ़ रहा है, बिजली का कंजम्शन बढ़ रहा है, लोहे का कंजम्शन बढ़ रहा है, कंज्यूम करते चले जाएंगे तो अल्टीमेटली रिजल्ट क्या निकलेगा। यह धरती कहां जाएगी। और कितने वर्षों तक इसके संसाधन चलेंगे। आगे की पीढि़यां कहां जाएंगी। पिछले 90 वर्षों के अंदर मैं समझता हूं, यहां साइंटिस्ट लोग ज्यादा बैठे हैं, सारी धरती का तापमान शायद  .8 डिग्री सेलसिअस बढ़ गया है। अगले तीस वर्षों में और बढ़ने वाला है यह। अगर यही ग्रोथ रेट रहा तो अगले जो सौ साल में बढ़ा है उतना अब तीस साल में बढ़ जाएगा। अगर एक सेलसिअस और बढ़ता है तो नार्थ पोल साउथ पोल हिल जाएगा। नार्थ पोल साउथ पोल की बर्फ पिघल जाएगी। बर्फ की डेंसिटी कम होती है, बर्फ का पानी नीचे जाएगा। समुद्र में जाएगा तो पृथ्वी एक पाइंट पर हल्की हो जाएगी, सीधी हो जाएगी। सीधी होते ही सारे विश्व का मानसून बदल जाएगा। जहां चेरापूंजी में आज घनघोर बरसात होती है, वहां देखिए सूखा पड़ रहा है आजकल। राजस्थान में जहां सूखा पड़ता था वहां घनघोर वर्षा हो जाती है। क्लाइमेट चेंज हो रहा है। कई जगह चेंज हो रहा है। जो बरसात एक साल में होती थी वो 100 सेंटीमीटर 150 सेंटीमीटर वो 150 सेंटीमीटर बरसात दो दिन में हो जाती है अब। कैसे कहें कि परिवर्तन होंगे, यह कहना बहुत कठिन है। जहां रेगिस्तान वहां बाढ़ और जहां हरे भरे जंगल वहां रेगिस्तान का खतरा उत्पन्न हो सकता है। हमारे सामने यह समस्या है। क्या रास्ता है।

पश्चिमी जगत ने सोचा है कि जीवन एक ही है एक ही जीवन है, बार बार जीवन थोड़े ही मिलता है, एक जीवन मिलता है। और इस एक जीवन में जितना उपयोग कर सकते हैं, जितना उपभोग कर सकते हैं कर लो। अगला जीवन तो मिलना नहीं है। और पश्चिमी जगत की यह सोच कि एक ही जीवन है, भारत में यह सोच नहीं है। भारत कहता है कि सैकड़ों जीवन के बाद यह जीवन आया है और आगे भी जीवन नहीं है ऐसा नहीं है। और पश्चिमी जगत ने जो कहा एक ही जीवन है, यह गलती कर दी। और पश्चिमी जगत के बहुत सारे वैज्ञानिक ऐसे खड़े हो गए जिन्होंने कहा कि मनुष्य में आत्मा वात्मा तो कुछ होती नहीं है, फालतू की बात है। भगवान नाम की चीज हम नहीं मानते, यह फालतू की बात है। और वो बड़े बड़े वैज्ञानिक थे। अल्फर्ड नोवल है, बर्टन रसल है, नील बोर है, पिअरे क्यूरी है, सिगमन फाय है बहुत बड़ी संख्या है जोर जोर से चिल्ला कर जिन्होंने कहा गाड इज डैड। देअर इज नो गाड। है तो हमको दिखाओ। हमको लैब में दिखाओ कहां है। जो विज्ञान का मस्तिष्क था उसने कहा हमको लैब में दिखाइए,  जो है वो लैब में, लैब में नहीं है तो कहीं नहीं है, फालतू बात बंद करो। मनुष्य कुछ नहीं है। कुछ केमीकल कंबीनेशंस का परिणाम है बस। केवल मैटर है। यह पश्चिमी जगत की सोच का कारण है, परिणाम है यह। मैटर है, हां मैटर है। सोचता कैसे है? एक नया प्रश्न खड़ा हो गया। इसका उत्तर उनके पास नहीं आया। भई मैटर सोच कैसे सकता है। कंप्यूटर में जो आप फीड कर दोगे उसको ही वो निकाल सकता है, कंप्यूटर सोच नहीं सकता है। कितना भी बड़ा सुपर कंप्यूटर बनाओ, क्या संवेदना आ जाएगी उसमें। संवेदना नहीं आ सकती। करूणा आएगी?नहीं आएगी। यह मस्तिष्क जो है जो सोचता है, विचार करता है, करूणा आती है, संवेदना आती है, यह मैटर में कैसे आ जाएगी। बड़ा लंबा डिस्कशन 100 वर्षों तक चला। वो कहते थे व्हाट इज मैटर, डू नोट माइंड, एण्ड व्हाट इज माइंड डज नाट मैटर। मैटर और माइंड का डिस्कशन खत्म हो गया, पश्चिम इसका कोई भी समाधान नहीं दे सका। धीरे धीरे विज्ञान सम्मत बाजार केन्द्रित, उपभोक्ताओं के लिए बना हुआ यह सभ्यता का वातावरण दुनिया को कहां ले जा रहा है।यह बड़ी समस्या है। मोर कंजम्शन, मोर कंजम्शन करने के लिए क्या चाहिए, बड़ी फैक्टरी चाहिए। बड़ी फैक्टरी के लिए क्या चाहिए, रा मेटरिअल चाहिए। और क्या चाहिए बड़े इंजीनिअर चाहिए। फिर क्या चाहिए मार्केट क्रिएट करना है, लाभ कमाना है। यह सिस्टम आ गया है, सारी दुनिया में आ गया है। कहीं से रा मेटीरिअल लाओ सस्ता, सस्ते इंजीनिअर लाओ, बड़ी इंडस्ट्री लगाओ। सस्ता प्रोडक्शन करो, मार्केट क्रिएट करो, प्राफिट कमाओ। इसने क्या दिया। यह ट्रेंड बन गया सिविलाइजेशन ने दिया क्या। ऐसा चेंज आया लोग खरीदने लगे, मार्केट चलने लगी, इंडस्ट्री चलने लगी, सामान बिकने लगा। लोगों के घर में सामान आने लगा। धीरे धीरे एक बड़ा प्राफिट कुछ लोगों के हाथ में जाने लगा। सारी दुनिया में यह स्थिति हो गई। आप कल्पना कर सकते हैं। दुनिया की आधी पापूलेशन, 360 करोड़ पापूलेशन के पास जितनी प्रापर्टी है, उतनी प्रापर्टी दुनिया के 8 लोगों के पास है केवल। कैन यू इमेजिन। सारी दुनिया के आधे लोगों की प्रापर्टी8 लोगों के पास है। और सारी दुनिया की 85 प्रतिशत प्रापर्टी 100 लोगों के पास है। एकूमुलेशन आफ वैल्थ। कंसंट्रेशन आफ मनी एण्ड प्रापर्टी एण्ड मेटीरिअल, आल दीज थिंग्स। क्या हो रहा है। एक ओर इतनी संपन्नता और दूसरी ओर 250-300 करोड़ लोग दुनिया में अब ऐसे हैं जिनके पास दोनों समय का पर्याप्त आवश्यक भोजन नहीं है। दवाइयां नहीं हैं। रहने की जगह भी नहीं है। यह जो डिसक्रीमीनेशन हुआ यह खतरनाक डिसक्रीमीनेशन है। दुनिया में कभी बड़ा विस्फोट यह कर सकता है। इसलिए जब लोगों को लगा सस्ता मेटीरिअल, सस्ते इंजीनिअर्स, सस्ती मशीनें, महंगा उत्पाद। यह कंपीटीशन शुरू हो गया। यह दुनिया में प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई कौन कितना सस्ता मेटीरिअल खरीद ले और अपना सामान कैसे महंगा करके बेचे, तो सारी दुनिया एक कंपीटीशन में आ गई। मित्रो प्रतिस्पर्धा कभी अच्छी नहीं होती। कोई भी कंपीटीशन दुनिया में फेअर नहीं हो सकता। बातें कर रहे हैं। प्रतिस्पर्धा आते ही मन में आता है कि बगल वाले को पराजित करो। एक क्लास में दो अच्छे मित्र हैं बहुत अच्छे मित्र हैं। दिन रात एक साथ रहते हैं। आप प्रतियोगिता करा दीजिए, दो तीन प्रतियोगिताओं के बाद एक दूसरे को नहीं बताएंगे। एक दूसरे से छिपाएंगे क्योंकि इसको प्रथम आना है, फर्स्ट आना है। मित्रता खत्म हो जाती है। वो दूसरा भी छिपाने लगता है। नहीं, नहीं मैंने तो नहीं पढ़ा। मैंने तो नहीं याद किया, झूठ बोलने लगता है। यह प्रतिस्पर्धा मित्रता को नष्ट कर देती है। व्यक्तियों में, समाजों में अल्टीमेटली देशों में अलग करती है। यह प्रतिस्पर्धा से क्षमता तो बढ़ती है, योग्यता बढ़ती है, सारी दुनिया की इस सिविलाइजेशनल एजूकेशन ने व्यक्ति को योग्य बनाया, क्षमतावान बनाया, सामर्थ्यवान बना दिया। मित्रो लेकिन अकेला छोड़ दिया। बर्टेन रसल कहता है वो पूरा सेंटेंस आपको पढ़ कर के नहीं सुनाता लेकिन सारांश में बर्टेन रसल कहता है नोबल प्राइज विनर बड़ा थिंकर है। वो कहता है ब्लैक बिलियर्ड्स बार्न। बिलियर्ड की गेंदें आती हैं टकराकर दूर जाती हैं। दो गेंदें आएंगी तो दूर जाएंगी ही जाएंगी। पास आएंगी, दूर जाएंगी। टकरा कर दूर जाएंगी। सारी दुनिया ऐसी हो गई है हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ सशंकित हो रहा है, सावधान हो रहा है। चतुराई से बात करता है। ऐसी मुस्कराहट दिखाता है जैसे कि होटल में रिसेप्शनिस्ट के होती है। अंदर से दूर है। यही समस्या धीरे धीरे समाज में आ जाती है। यही समस्या देशों में आ जाती है। देश के साथ कोई भी संबंध आत्मा का, हृदय का, भाव का नहीं रहता। हरेक देश देखता है किससे क्या मिल सकता है बस। इस सिविलाइजेशन ने हमको यह दे दिया। धीरे धीरे लोगों के ध्यान में आ गया उत्पादन वहां होता है, पैसा वहां मिलता है, खेती में नहीं। पैसा वहां मिलता है। और ऐसे सारी दुनिया की खेती उपेक्षित हो गई। खेती उपेक्षित हुई इसका मतलब गांव उपेक्षित हो गया। गांव खत्म होने लगे। सारी दुनिया में से गांव खत्म हो रहे हैं। कोई भी कंट्री हो। यह आवश्यक नहीं गांव रहें भी, यह आवश्यक नहीं। लेकिन कहां जाएंगे ये, भारत में गांव खत्म हो रहे हैं। दिल्ली के अंदर पचास परसेंट पापूलेशन स्लम में आ गई है। क्योंकि सभ्यता ने कहा कि गांवों में कुछ नहीं है, गांव में कोई प्रोडक्शन नहीं है। गांव में केपीटल नहीं है। गांव में मनी नहीं है। गांव में प्राफिट नहीं है, इनकम नहीं है, छोड़ो यहां आओ। ध्यान भी नहीं दिया, और आ गए। कहां रहते हैं, स्लम्स में रहते हैं। न पीने का पानी है, न अच्छी हवा है। न बच्चों के लिए कोई सुविधा है, कोई संस्कार नहीं। वो बिहार का आदमी, उड़ीसा का आदमी, छत्तीसगढ़ का आदमी रहता है। कोई भाषा नहीं रही, कोई बोली नहीं रही। कोई त्योहार भी अपना ठीक प्रकार से कम्युनिटी मना नहीं सकती। अकेले बंबई के अंदर 60 परसेंट लोग हैं स्लम्स में।पूरे देश के अंदर कोई 14-15 करोड़ लोग होंगे जो स्लम्स में रह रहे हैं। इस सिविलाइजेशन ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी, एक ओर तो बड़ी भारी अट्टालिकाएं हैं, 40 फ्लोर का, 50 फ्लोर का मकान है उसके अंदर भी झाड़ू पोछा करने वाली महिला इसको क्या है, इसका घर कहां है। जो सब्जी बेचता है, अंडा बेचता है, अखबार बोचता है, टैक्सी का ड्राइवर है, उसके घर का ड्राइवर है, चपरासी है, इसका कोई कंसीडरेशन नही नहीं है। और वह रहता पास में हैं, कहां स्लम में रहता है। यह सिविलाइजेशन ने बहुत कुछ दिया, यह भी दिया। यह डिसक्रीमीनेशन दे दिया, यह गुगली दे दी। आज सारी दुनिया इससे त्रस्त है। आज केवल भारत नहीं है, सारा थर्ड वर्ल्ड देख लीजिए। वो तो ठीक है उनकी आबादी कम थी। वो गांव की आबादी को शहर में बसा लिए, उनके यहां जो पापूलेशन ग्रोथ रेट था वो लगभग नेगेटिव और वन टू परसेंट था, हम क्या करेंगे। हमारा बीस परसेंट पापूलेशन ग्रोथ रेट आज भी है। यह एकदम रूक भी नहीं सकता। धीरे घीरे आया है 32 परसेंट से 20 पर आया है। 18-19 पर है इस समय। लेकिन 18 परसेंट ग्रोथ रेट भी कम नहीं है न। हर दस साल बाद हम लोगों के यहां कोई 22-23करोड़ लोग बढ़ जाते हैं। कहां जाएंगे ये लोग। तो सामाजिक संस्कार गांवों में था वो गया। सामाजिक अनुशासन था, वो भी गया। सामाजिक सोच थी, वो भी गई। सामाजिक सहकार चल रहा था गांवों में, यह भी गया। और यहां आकर के बेचारा अकेला रह जाता है। कहां जाए।

इसलिए एक ओर इन्होंने बड़ी अट्टालिकाएं दीं, दूसरी ओर पचासों, सैकड़ों करोड़ लोगों को स्लम्स में धकेल दिया। विज्ञान नई मशीन देता है। एक ट्रैक्टर आता है। एक ट्रैक्टर के आते ही 20 बैल बेकार हो जाते हैं। एक ट्रैक्टर के आते ही 10 लोग बेकार, बेरोजगार हो जाते हैं। कहां जाएंगे ये लोग। ट्रैक्टर तो आया, ट्रेक्टर की उपयोगिता चलो मान लो है। लेकिन दस लोग जो शिफ्ट होते हैं ये कहां गए। ये सब वहां से छोड़ कर शहर में आ जाते हैं बेचारे रिक्शा चलाते हैं। कोई मूंगफली बेचता है, कोई ढाबा चलाता है। एक टर्बाइन मशीन आती है, वो आपका 100 एकड़ खेत एक दिन में काट देती है, बोरों में भर देती है। यह गेहूं काटने वाला मजदूर इसको क्या मिला। इसलिए धीरे धीरे विज्ञान बेरोजगारी बढ़ा रहा है। हर दिन एक नई टेक्नालाजी लाता है, एक नई मशीन देता है, दस लोगों का काम एक आदमी से कराता है। 100 लोगों का काम आजकल दो आदमी से कराता है। अभी मैं सिंगरौली के पास एक बड़ा पावर प्लांट देखने गया एनटीपीसी का। मैं सोच रहा था कि इससे दो, तीन, चार हजार लोग काम करते होंगे। कितना प्रोडक्शन है, प्रोडक्शन दो हजार मेगावाट का है। आदमी कितने हैं, 150-200 आदमी हैं जो यहां काम करते हैं। अच्छी बात है। यह खराब बात नहीं है। लेकिन बाकी के लोग क्या करेंगे। विज्ञान हर दिन एक ऐसी नई चीज पैदा करके देता है जिससे कि रोजगार कम हो जाते हैं। इसका समाधान क्या है। दुनिया आज बेरोजगारी से जूझ रही है। अमेरिका बेरोजगारी से जूझ रहा है। क्यों, हर दिन वहां का साइंटिस्ट एक नई चीज पैदा करके देता है और 50 लोगों का रोजगार खत्म कर के 2 लोगों को रोजगार दे देता है। मोर साइंस, मोर टेक्नालाजी, मोर इनवेंशन, मोर प्रोडक्शन, मोर सोफस्टीकेशन। मोर इंडस्ट्रलाइजेशन, मोर अन अंप्लायमेंट। इसका कोई समाधान आज के इस विज्ञान के पास नहीं है। वो कहता है हम समाधान नहीं दे सकते। हम नया इनवेंशन दे सकते हैं आपको, यह समस्या है। आखिर यह धरती कहां जाएगी। वैज्ञानिक कहां ले जाएगा। वैज्ञानिक तो अपने हिसाब से नए आइटम सोच रहा है, वो ठीक है। उसका सोचना गलत नहीं है। लेकिन कितनी दूरी तक इसको चलना है। पूरी दुनिया की 700 करोड़ आबादी को देखना है कि नहीं देखना है। एक बार जब व्यापारी के हाथ में ताकत आ जाती है, कंट्रोल आ जाता है किसी चीज का, वो इनह्यूमन हो जाता है। अमानवीय हो जाता है। अभी दो दिन पहले मैं राजस्थान में था तो वहां के एक आईएएस आफीसर संविद शर्मा हैं। आप में से भी कुछ लोग शायद उनका नाम जानते होंगे, एक जेनेरिक मेडीसंस के नाम से उन्होंने एक बहुत काम देशभर में किया है। उन्होंने बताया भारत में कैंसर की दवा प्रति महीना डेढ़ लाख रूपए की दवा आती थी। उसका मूल्य आज 900 रूपया है केवल। मैं ज्यादा नहीं जानता लेकिन वो बता रहे थे। लंग कैंसर की दवा जो है 29000 रूपए की आती थी वो आज भारत में3900 की मिलती है। जो दवा डेढ़ लाख रूपए की आती थी वो स्टन जो है 29000 रूपए का है आप लोगों को मालूम होगा यह, जो 45000 रूपए का स्टन था वो 7000 रूपए में आ रहा है। यह बीच का क्या था। वो सवा लाख रूपए की दवा 900 रूपए में कैसे बन रही है। वो जो मरीज कैंसर का पेशेंट है, वो सवा लाख की दवा नहीं कर सकता था। लेकिन उसको इतना अक्सप्लाइट करने का यह नशा किसने दिया। यह सिविलाइजेशन ने वर्तमान की सभ्यता ने इस व्यापारी को एमआर्स जो थे उनको, डाक्टर्स को मिलाकर के ऐसा विशिअस सर्कल पैदा किया, बेचारा पेशंट तो मर गया। लाखों लोग इलाज नहीं करा सके, मर गए। अर्थात उसके मन में पेशंट नहीं है। उसके मन में केवल और केवल प्राफिट है बस। इस सिविलाइजेशन का यह एक आस्पेक्ट आप लोगों को ध्यान में रखना होगा। लोगों के मन में केवल प्राफिट रह जाता है। इसने हमको सिखाया कि ज्यादा इनफोर्मेशन बहुत जरूरी है। मेक्सीमम इनफोर्मेशन। कितनी इनफोर्मेशन ज्यादा रख सकते हैं। इसलिए छोटा सा बच्चा हमारा 5-6 साल का बच्चा, उसकी मां उसकेा याद करा देती है सौ देशों के नाम वो याद कर लेता है। उसकी मां जितनी चीजें याद कराती है वो याद करता चला जाता है। फिर वो ट्विटर पर आ जाता है, फेसबुक पर आ जाता है। अमेरिका में एक स्टडी हुई और वहा के लोगों ने बातया, अमेरिका में प्रति व्यक्ति 12 घंटा कंप्यूटर पर बैठते है। या अपने मोबाइल पर काम करते हैं। 100500 एक लाख पांच सौ शब्द प्रति दिन लिखता है, बोलता है या पढ़ता है। एक लाख पांच सौ शब्द प्रति दिन। यह संख्या बढ़ती चली जा रही है। ईमेल है, टैक्स्ट है, वाइस मेल है, लाइट्स है, इंस्टाग्राम, पिक्चर, ट्वीट, कमेंट, पोस्ट, टैग, फोटो, वीडिओ, हैडलाइन, ब्लाक, सब्सक्रिप्शन, डाउनलोड, अपलोड, रिंग टोन, ये क्या क्या है। अंतहीन है और हर बच्चा बिजी होता जा रहा है धीरे धीरे बिजी।  कितनी जानकारी चाहिए सच में और कितनी भी जानकारी रखने के बाद मनुष्य कितनी जानकारी कर सकता है धरती की। बड़े से बड़ा जानकार भी हो जाएगा, पूरा जीवन जानकारी में लगा देगा वो भी धरती पर जो जानकारी है उसका दशमलव एक प्रतिशत भी नहीं कर सकता। इसलिए अपनी कोई लिमिट लगानी चाहिए। यह सच है संपर्क बढ़ रहा है लेकिन संपर्क बढ़ते बढ़ते संबंध कम हो रहा है। जानकारी बहुत बढ़ रही है लेकिन मन की गहराई कम हो रही है। लोगों के पास बात करने का समय नहीं है। पत्र लिखने का समय नहीं है। फटाफट बात करो। यह करो यह करो यह करो। इसलिए इतना संबंध, संपर्क, जानकारियां ओवरलोड हो रही हैं अपने मन में, दिमाग में लेकिन क्या यह व्यक्ति के मन को ट्रांसफार्म करते हैं क्या, इसमें इनका कितना योगदान है। यह एक बड़े वैज्ञानिक ने कहा व्हाट यू नो इज नाट कंसीडर्ड एज इंपोरटेंट एण्ड व्हाट इज द इफेक्ट आन यू आफ व्हाट यू नो। हम जो जानते हैं उसका कोई अर्थ नहीं है। हम जो जानते हैं उसका हमारे जीवन पर, हमारे मन पर, हमारे स्वभाव व्यवहार पर कुछ असर होता है क्या। वो जो असर होता है वही हमारा जानना है। यह अधिक से अधिक जानकारी के बाद भी हमारे बच्चे चिंतन करने वाले, विश्लेषण करने वाले, विचार करने वाले ये बनते हैं क्या। क्रिएटिविटी बढ़ रही है क्या।उनका जो अनेलेटिक पावर है वो बढ़ रहा है क्या? उनके अंदर ओरीजनेलिटी आ रही है क्या। उनके अंदर डेप्थ बढ़ती है क्या तो बड़े बड़े जो साइकलाजिस्ट हैं उनका कहना है कि इस युग में ये पांचों चीजें कम हो रही हैं, इनफरमेशन बढ़ रही है। और आज का बच्चा, विद्यार्थी रोबोट की तरह काम तो कर लेगा, बहुत सी चीजें याद कर लेगा, लेकिन वो मौलिकता खत्म हो रही है। क्रिएटिविटी खत्म हो रही है। एनलेटिकल पावर खत्म। आज के इस युग में मेघना सहाय, बीरबल साहनी, या पी सी रे, जे सी बोस, सी बी राय, रवीन्द्र नाथ टैगोर, महर्षि अरविंदो, ऐसे विचारक कम निकलते हैं। जानकार लोग तो हैं, अच्छे इंजीनियर्स हैं, इसमें कोई देा राय नहीं हैं। लेकिन ओरीजनल थिंकर्स जो है, उनका तो क्राइसिस खड़ा हो गया है। यह सारी दुनिया में हो रहा है। भारत में और ज्यादा इसलिए हो रहा है कि भारत अपनी ओरीजनेलिटी को छोड़ कर के इस फ्लो में तेजी से बढ़ने लगा। इसलिए यह एक नई मानसिकता जो आई बच्चों को ज्यादा से ज्यादा सिखाओ, विद्यार्थियों को ज्यादा से ज्यादा दे दो, इनफरमेशन दे दो लेकिन इंटलेक्ट की प्राब्लम आ गई। अंतरप्रज्ञा जो है, अंदर का जो भाव है, अंदर से जो मेघा है इसको संरक्षण नहीं मिला। और यदि अंतरप्रज्ञा नहीं जगती तो बाहर की जो इनफरमेशंस हैं जो मनुष्य के अंदर क्रिएटिविटी पैदा नहीं कर सकती और व्यक्ति की जो सदभावनाएं हैं, श्रेष्ठ भावनाएं हैं वो उदात्त भावनाएं, अच्छे भाव हैं वो नहीं जगाते हैं। जो अंतरप्रज्ञा है वो जब जग जाती है तो एकात्म बोध हो जाता है। जे सी बोस की क्रिएटिविटी क्यों है क्योंकि नेचर के साथ एकात्म है। सुमित्रानंदन पंत एक अच्छे जनरल क्यों हो गए, क्योंकि वो प्रकृति के साथ जीव जगत के साथ एकात्म हो गए। यह एकात्मबोध अंतरप्रज्ञा से उत्पन्न होता है, इनफरमेशन से नहीं होता है। बंडल आफ इनफरमेशंस जो है इससे इंटलेक्ट नहीं बढ़ता है। यह आज के विज्ञान की बड़ी भारी एक समस्या है। सारी दुनिया इससे थोड़ी सी परेशान है। इस विज्ञान ने हमको जो ऐसा बनाया इससे मनुष्य और भी वायलेंट हो गया। अधिक हिंसक हो गया क्योंकि हृदय की संवेदना का कोई स्थान नहीं है। आज के बी टेक एम टेक की पढ़ाई में हृदय की

संवेदनाएं, भावनाएं, करूणा, निष्ठा, श्रद्धा, समर्पण, सहयोग, सहकार, इसका कोई टापिक नहीं है, इसका कोई चैप्टर नहीं है। यह सारी दुनिया पिछले 150 वर्षों में और अधिक हिंसक हो गई है। ए डी फर्स्ट से लेकर के 1900 तक केवल तीन करोड़ लोग युद्धों में मरे थे। और 1900 से लेकर के 1975 तक दस करोड़ लोग युद्धों में मर गए। 1900 वर्षों में केवल तीन करोड़ लोग मरे और केवल 75 वर्षों में दस करोड़ लोग मर गए। यह विज्ञान की प्रकृति का एक दृष्य यह भी है। मनुष्य कैसे अधिक से अधिक हिंसक हो रहा है, कैसे कैसे असहिष्णु हो रहा है, असहज हो रहा है,उसकी सहन शक्ति कैसे कम होती चली जा रही है। जानकारी तो बढ़ रही है, आमदनी भी बढ़ रही है, सहन शक्ति कम है। फिर घर में झगड़ा बढ़ रहा है, घर टूट जाते हैं। सबसे ज्यादा तलाक के मुकदमे आज भारत में आ रहे हैं। यह तेजी से बढ़ रहा है। छोटी छोटी बातों पर वो सहन शक्ति आज कम है। वो डिमांडिंग हैं। दोनों अच्छे कमाने वाले भी हैं, लेकिन सहन शक्ति कम है। छोटी छोटी बात पर नहीं मैं इसके साथ नही रह सकता, यह मेरे साथ नहीं रह सकती। यह मेरे साथ नहीं रह सकता। ऐसा क्यों हो गया। यह बहुत खर्राटे लेता है, यह कोई रहने लायक आदमी है। यह भी कारण है अलग हट जाने का। कैसे छोटे छोटे कारण आ रहे हैं। तो खराब कोई भी नहीं है। लेकिन सहन शक्ति बहुत कम हो रही है और ये घर के विवाद, भाइयों का, बहनों का, पिता का, पुत्र का, पत्नी का, पति का कैसा खतरनाक मोड़ ले रहा है।

मकान अच्छा है, संपत्ति अच्छी है, आमदनी अच्छी है, सुविधाएं सब हैं लेकिन जीवन के मूल्य तो चले गए, आदर्श तो चले गए, सहन शक्ति तो गई और परिवार में सामंजस्य गया। इसको कौन बचाएगा। परिवार के लिए समय कहां है और परिवार में कैसे रहा जाता है, इसका शिक्षण कहां है। परिवार के आदर्श कैसे होते हैं, यह कहां से आएगा। अमेरिका में अकेले में 1.6 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो मदर लैस, फादर लैस हैं।4.1 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जिनको सरकार पाल रही है। अभी अरूण जेटली जी हमारेघूम कर के आए थे। मैंने पूछा क्या कोई विशेष बात बताओ। अरे क्या विशेष बात, हर बार एक नई विशेष बात ध्यान में आती है। बोले ऐसे अपार्टमेंट्स हैं जिनमें किचन नहीं है। रसोई है ही नहीं क्योंकि रसोई के लिए समय ही नहीं है किसी के पास। बाजार से लाओ, डीप फ्रीजर में डाल दो, अवन में डालो, माइक्रोवेव में डालो, खाओ और चलो जाओ अपने अपने काम से। रसोई खाना बनाने की जगह नहीं है। रसोई भारत में घर को एक रखने की जगह है। रसोई नहीं रहेगी तो घर एक रहेगा इसमें संदेह है। लेकिन रसोई नहीं है, किचनलैस होम। इनकी संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है इस दुनिया के देशों में। क्योंकि इसमें किसी की रूचि ही नहीं है। सिंगल परसन, एक ही व्यक्ति घर में रहता है, दूसरा है ही नहीं उसके जीवन में। ऐसे 35 परसेंट मकान एक बड़े कालोनी में हमारे अरूण जेटली जी देख कर के आए हैं, बोले 35 परसेंट उस बड़ी कालोनी में ऐसे मकान हैं जिनमें एक ही व्यक्ति है, दूसरा व्यक्ति है ही नहीं। क्या लगता है। यह संकट नहीं है? रसोई विहीन घर या एक ही व्यक्ति रहेगा, तो कहां जाएगा यह, तो इसलिए इस सभ्यता ने क्या दिया एक सामूहिकता का अभाव दे दिया। परिवार छोटे छोटे छोटे छोटे और ऐसे हो गए केवल एक ही व्यक्ति बस और यह सभ्यता ने जो हमारा जो एनसेस्टरल हेरिडेंट ट्रेडिशन थे एक यह समस्या खड़ी कर दी। उनको कौन देखेगा। अरे क्या भतीजे भतीजी के लिए करते हो, अरे क्या, यह थिंकिंग क्या है। मैं बनारस में रहता था मैंने कहा, हमारे एक मित्र थे, नाम बताना तो उचित नहीं, चार पांच भाई थे एक छोटे से कमरे में रहते थे। बड़ा भाई ट्यूशंस भी करता था, पीएचडी भी करता था, अपना स्टडी का काम भी करता था, थोड़ा बहुत पैसा भी कमाता था। घर से गेहूं, चावल, दाल लेकर के चारों बच्चे पढ़ते पढ़ते बड़े भाई ने सब बच्चों को ठीक पढ़ा दिया। जब घर का वातावरण, परिवार का वातावरण जो था यह हमारा हेरीटेज है, यह एनसेंस्टर हेरीटेज है। यह सामान्य चीज नहीं है। इसको हजारों साल में हम लोगों ने निर्माण किया है लेकिन वर्तमान की सभ्यता एक राक्षसी भाव लेकर के खड़ी हो रही है, ऐसा क्यों हो गया। क्यों हुआ ऐसा। तो बंधुओ एक एरस्टोट नाम का एक व्यक्ति पश्चिम में था जो कहा जाता है फादर आफ वेस्टर्न साइंस। प्लेटो का साथी है। यह वो कहता है, यही कहता है सारी दुनिया में केवल मेटीरिअल है, मैटर है। भावना आदि यह फालतू की बात है। मैटर है, मेटीरिअल है। और इससे जो सभ्यता प्रारंभ हुई उसने एक नई समस्या खड़ी कर दी उसने कहा गाड इज डैड, नो स्प्रिचुऐलिटी। कोई अध्यात्म कुछ नहीं, फालतू की बातें हैं। कोई दुनिया में यह नहीं होता है। नीश्य था, नीश्य बड़ा लेखक था चिंतक था, उसने भी यही कहा गाड इज नो मोर। गाड इज डैड। न्यूटन ने भी यही कहा। न्यूटन ने गाड के बारे में तो नहीं कहा लेकिन न्यूटन ने जो सबसे बड़ी समस्या खड़ी कर दी वो यह खड़ी कर दी कि सब चीज अलग अलग है। टुकड़े टुकड़े में है। चन्द्रमा अलग है, सूर्य अलग है, धरती अलग है। धरती पर मनुष्य अलग है, यह जंगल अलग है। नदी अलग है, यह पहाड़ अलग है। मनुष्य है, पुरूष अलग है, स्त्री अलग है। बच्चे अलग हैं। सब चीज अलग अलग है, सब चीज इंडिपेंडेंट है। खण्ड खण्ड में सोचने का यह क्रम शुरू किया इसका जो जनक है यह न्यूटन है। इसने टुकड़े टुकड़े में सबसे अलग है और उसमें से धीरे धीरे यह जो विचार निकलने लगा सब अलग अलग हैं तो पश्चिम जगत ने एक और सिद्धांत दिया, अलग अलग है इतना ही नहीं है, ध्यान में रखिए इस सब में संघर्ष है। कनफलिक्ट है और यह कनफलिक्ट अनअवाइडेबल है। माता पिता और बच्चों में सघर्ष है। पड़ोसी पड़ोसी में संघर्ष है। व्यापारी मजदूर में संघर्ष है। पूंजीपति और गरीब में संघर्ष है। राजा और प्रजा में एक संघर्ष है।

मनुष्य में, धरती में एक संघर्ष है। मनुष्य में जानवर में संघर्ष है। मनुष्य और प्रकृति में संघर्ष है। दिस कनफलिक्ट इज अनअवाइडेबल। खण्ड खण्ड में सोचना और खण्ड खण्ड में सोच कर के आपस में एक दूसरे के लिए संघर्ष है और इसमें यह सिविलाइजेशन है खण्ड खण्ड में सोचा। स्त्री का क्या अधिकार यह हमको बताइए। बच्चों का क्या अधिकार उनको बताइए। पति का क्या अधिकार है यह हमको बताइए। सबके अधिकार अलग अलग। मौलिक रूप से यह सोच गलत था। यह सारी प्रकृति, सृष्टि एक वन यूनीवर्स एक है। एक सोचिए, एक इकाई कर के सोचिए। और हम अपने घर से सोच कर के देखें। सब बातें यूनीवर्स की ओर जाएं। माता और बेटा अलग हो जाएंगे, माता और बेटी अलग होती है क्या? माता पिता और बच्चे अलग होते हैं क्या? भाई और बहन अलग होते हैं क्या? परिवार के लोग अलग होते हैं क्या? नहीं अलग नहीं होते हैं। इनके सब के बीच एक साम्य है, सामंजस्य है, कोआपरेशन, एक रिलेशन है। एक वननेस है, यह प्रकृति ने दिया है, भगवान ने दिया है। हम क्यों अलग अलग सोचते हैं। माता पिता से बच्चे कैसे अलग हो जाएंगे। भाई से बहन अलग कैसे हो जाएगा। अड़ोसी पड़ोसी कैसे अलग हो जाएंगे। गांव के लोग अलग कैसे हो जाएंगे। हजारों साल से इस देश में यह खण्ड खण्ड विचार यह गलत है। यह ठीक है मनुष्य की एक आइडेंटिटी है। लेकिन उसकी आइडेंटिटी सब के साथ है। वो उसकी धन्यता, श्रेष्ठता भी वो सब के साथ है। पति और पत्नी एक साथ अच्छे हैं। अलग अलग नहीं। अलग अलग होकर के भी एक साथ। बच्चों के साथ एक साथ। रिलेशन के साथ एक साथ और यह सारी प्रकृति, सृष्टि एक है जब तक यह चिंतन नहीं रहेगा, तब तक अलग अलग अलग अलग सोच में यह सारी दुनिया को एक बड़े संकट की ओर धकेल दिया है। और यह समन्वित विचार खत्म हो गया। अपना विचार करना, बाकी का छोड़ देना। यह गलत है। सारी सृष्टि को एक मान कर के चलना और सारी सृष्टि एक के द्वारा ही संचालित है। हां विज्ञान ज्ञान बहुत सीमित है यह बात ध्यान में रखिए।

स्वामी विवेकानंद एक स्टेशन पर बैठे थे, एक चादर बिछाकर के बैठे थे। भूखे थे। सुबह से कुछ खाया पिया नहीं। उनके बगल में एक बड़ा अच्छा संपन्न परिवार भोजन कर रहा है और विवेकानंद जी को और बोल भी रहा है, बाबा कुछ कमाया धमाया करो इतना अच्छा शरीर भगवान ने दिया है, ऐसे कोई खाना नहीं खिला देगा आपको। स्वामी जी कुछ बोले नहीं, शांत बैठे रहे। एक आधा घंटे के बाद एक व्यक्ति आता है और कहता है स्वामी जी, हां, मैं आपके लिए भोजन लाया हूं। स्वामी जी ने कहा मेरे लिए क्यों लाए हैं। मैं तो आपको नहीं जानता। नहीं मैं भी नहीं जानता आपको, लेकिन आपके लिए भोजन लाया हूं। क्यों लाए, मैं तो इस शहर में पहली बार आया हूं। नहीं नहीं मैं सो रहा था दोपहर को, मेरे स्वप्न में आया कि स्टेशन पर एक बाबा भूखा बैठा है स्वामी, जाओ भोजन दे कर के आओ। मैं फिर सो गया अरे यह फालतू की बात स्वप्न से क्या मतलब। फिर दोबारा स्पप्न आया नहीं नहीं जल्दी उठो, जल्दी से घर में जो था मैं लेकर आ गया। आप भोजन कर लीजिए। विज्ञान इसके बारे में क्या कहेगा। स्वामी विवेकानंद विदेश में गए, अमेरिका गए, यह शायद 1893 के आसपास की घटना है। तो विवेकानंद शिकागो के एक हाल में भाषण देने के लिए जा रहे थे, उनके पीछे पीछे एक लड़का चल रहा है, कम आयु का। अपनी मां से बोलता है मां हम वो वहां तालाब में डूब रहे थे न हमारे भाई ने धक्का मार दिया था। हम डूब रहे थे न तो इस बाबा ने हमको बचाया था। बाबा नहीं,  इस व्यक्ति ने हमको बचाया था। मां और बेटा देानों आश्चर्य कर रहे थे कि ये कहां से आ गए। फिर विवेकानंद जी शिकागो हाल में जाते हैं इनका भाषण दोनों मां बेटा सुनते हैं तो बाद में एक लड़का आया विवेकानंद जी के पास मिलने के लिए आता है, कभी नहीं मिला। पहली बार आया है। नमस्ते करता है, विवेकानंद जी उससे पूछते हैं बेटा पानी से दूर रहा करो। घटना ऐसी हुई थी कि दो भाई खेल रहे थे दोनों, बड़े भाई ने छोटे भाई को गहरे पानी में धक्का मार दिया। अचानक ही खेल खेल में गिर गया। डूबने लगा। डूबने लगा तो एक पेड़ की टहनी नीचे आ गई और बालक ने उसको पकड़ लिया। बालक बच गया। यह बालक यही था। यह बालक कहता है कि मेरे को यह व्यक्ति बचाया उस दिन। बाद में स्वामी विवेकानंद को यह बालक कहता है, बालक थोड़ा युवक हो गया है, कहता है कि आप मेरे को दीक्ष नहीं देंगे? मेरे को शिष्य बना लीजिए। यह 1893की बात है। विवेकानंद जी कहते हैं नहीं नहीं। मैं तुमको दीक्षा नहीं दूंगा। तुमको दीक्षा देने वाला व्यक्ति एक दिन आएगा। उस दिन की प्रतीक्षा करो। ध्यान में रखो वो तुमको एक चांदी का गिलास भी देगा। चले गए, विवेकानंद चले गए।

विवेकानंद जी की मृत्यू भी हो गई। 1923, कितना वर्ष बीत गया, लगभग लगभग 31 वर्ष हो गए। स्वामी वियोगानंद जी अमेरिका गए, वो व्यक्ति बैठा हुआ है सामने। स्वामी वियोगानंद जी अपने पास से एक चांदी का गिलास निकाला, इधर आओ, यह तुम्हारे लिए मैं लेकर के आया हूं। वो व्यक्ति कहता है मैं इस गिलास की प्रतीक्ष 31 वर्ष से कर रहा था। अब विज्ञान क्या इसको सिद्ध कर सकता है? उस अंग्रेज व्यक्ति ने अपने संस्मरणों में लिखा है। उस व्यक्ति की मृत्यू 1969 में हुई। वो लिखता है। वो 1893 और 1923 वो चांदी का गिलास, यह रहस्य मैं समझ नहीं सका। बहुत कुछ ऐसा है जो लैब में प्रूफ नहीं हो सकता, सिद्ध नहीं हो सकता। अभी गूगल में देखा उनका नाम मैं भूल रहा हूं, शायद आप में से किसी को याद आ जाएगा। एक डाक्टर किसी कानफ्रेंस में जा रहे थे तो अचानक क्या हुआ कि वो फ्लाइट गड़बड़ हो गया और फ्लाइट नहीं मिल सकी। उन्होंने टैक्सी ली और टैक्सी लेकर जाने लगे, बरसात हो गई, आंधी आ गई, तूफान आ गया। टैक्सी भी रूक गई, रास्ता भी रूक गया। रूक गए। बगल के एक मकान में गए अंधेरा है, वो नाक किया तो एक महिला आई। उसने कहा आप मेरे को थोड़ी देर टिका सकती हैं, उसने कहा हां टिका सकती हूं आइए। आप मेरे को कुछ खिला सकती हैं, हां मैं खिला सकती हूं थोड़ी देर रूक जाओ। खाना बनाकर के लाती है और कहती है दो मिनट रूक जाओ मैं प्रेअर कर लेती हूं, वो प्रेअर करती है फिर कहती है आओ भोजन करो। तो उसने पूछा यह आपने किसको प्रेअर किया कि मैं अपने भगवान को प्रेअर करती हूं। क्रिश्चन महिला थी। क्या मांगा आपने प्रेअर में, यह भगवान को नहीं मानता डाक्टर। मैं भगवान से मांग रही थी मैं आपको क्या बताउं। नहीं आप बताइए आपने क्या मांगा, मैं जानना चाहता हूं। मैं भगवान से मांग रही थी कि मेरा बेटा बीमार है और डाक्टर ने बताया है कि यह डाक्टर जो है यह अच्छा डाक्टर है, यह इसका आपरेशन कर देगा लेकिन उस डाक्टर को मैं कैसे मिलूंगी। समझ में नहीं आ रहा। भगवान से कह रही थी कि यह डाक्टर मेरे को मिल जाए तो ठीक है। क्या होगा भगवान जाने। यह महिला ने जिस डाक्टर का नाम लिया वो डाक्टर यही था। यही डाक्टर है। वो डाक्टर फिर लिखता है मैं भगवान के उपर विश्वास नहीं करता, लेकिन इस सारी घटना को मैं क्या कहूं कुछ समझ में नहीं आता।

अर्थात बहुत कुछ ऐसा है दुनिया में जो हमारे विज्ञान की पहुंच से बहुत दूर है और इस सिविलाइजेशन ने विज्ञान दिया, ताकत दी, अधिकार दे दिए लेकिन वर्तमान सभ्यता को एक ऐसे संकट में लाकर के खड़ा कर दिया जिसका समाधान क्या निकलेगा। समझ में नहीं आता। और जब तक इस सारे विज्ञान को अध्यात्म के साथ जोड़ कर के मानवीय संवेदनाओं को साथ लेकर के नहीं चलेंगे तो अनअवाइडेबल डेस्ट्रक्शन विल बी देअर। वार्नोल टाइन ने कहा – अनिवार्य विनाश निश्चित है। इसको रोकना मुश्किल है। अल्बर्ट आइंस्टीन इसी बात को कहते हैं, एक पैरा आइंस्टीन का आपके सामने पढ़कर सुनाता हूं अंत में।

ए ह्यूमन बीइंग इज ए पार्ट आफ द होल काल्ड बाई अस यूनीवर्स। वो कहते हैं कि सारे ब्रह्मांड का मनुष्य एक हिस्सा है इसका यह ध्यान में रखिए। अलग नहीं है। मनुष्य इस यूनीवर्स   से अलग मत रखिए। ए ह्यूमन बीइंग इज ए पार्ट आफ द होल काल्ड बाई अस यूनीवर्स। ए पार्ट लिमिटेड इन टाइम एण्ड स्पेस। हिज एक्सपीरियंस इज हिमसैल्फ। हिज थाट्स एण्ड फीलिंग्स एज समथिंग सेपरेटेड फ्राम दी रैस्ट। इट काइंड आफ आप्टीकल डिव्यूजन आफ हिस कांशसनेस। ए डिवीजन इज ए काइंड आफ प्रिजन फार अस रेस्ट्रिक्टिंग अस टू अवर परसनल डिजायर्स एण्ड टू अफेक्शन फार ए फ्यू परसंस निअरेस्ट टू अस। अवर टास्क मस्ट बी टू फ्री अवरसेल्व्स फ्राम दिस प्रिजन बाई वाइडनिंग अवर सर्कल आफ कंपेशन टू अंबरेस टू आल लिविंग क्रीचर्स एण्ड द होल आफ नेचर इज हिज ब्यूटी। वो कहते हैं हम एक छोटी सी दुनिया में जेल में बंद हो गए हैं। हमको चाहिए कि हम इस जेल से बाहर आ जाएं। और सारी दुनिया यूनीवर्स के जो लोग हैं, जीव है, जगत है, हम इसको अपना मानना  शुरू करें। दुनिया के बहुत सारे वैज्ञानिक आज इस बात को मान रहे हैं कि खण्ड खण्ड विचार ठीक नहीं है। अध्यात्म को छोड़ना ठीक नहीं है। संपूर्ण पृथ्वी को एक इकाई मान कर के ही चलना होगा। अमर्यादित उपयोग, उपभोग यह ठीक नहीं है। संयमित जीवन ही इस सारी पृथ्वी को, सब लोगों को आगे ठीक प्रकार से बढ़ा सकता है। व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का मार्ग आर्थिक उन्नति के साथ साथ उसका आध्यात्मिक विकास भी है। अर्थात विज्ञान तो ठीक है। वैज्ञानिक खोज ठीक है। विभिन्न प्रकार के शोध और मनुष्य की समस्याओं को कष्टों को कम करना यह उचित है लेकिन इसके साथ साथ एक ऐसा स्प्रिचुअल आस्पेक्ट जो यह भावना पैदा करे कि हम और सारी दुनिया के लोग एक ही हैं। हम और संपूर्ण प्रकृति एक ही है। मैं, यह धरती, यह फल, फूल, पेड़, पौधे, यह जगत हम एक ही से उत्पन्न हैं। यह भाव आत्मीयता पैदा करता है। यह भाव शोषण नहीं होने देता। यह भाव मन की संवेदनाओं को बढ़ाता है। फिर आने वाला मरीज हमको भगवान का रूप दिखने लगता है।

अंत में एक छोटी सी बात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक त्रिपाठी जी हमारे प्रोफेसर थे सर्जरी के। वे जब कोई पेशंट आता था, जिस दिन उनको ओटी होता था उस दिन व्रत रखते थे उपवास रखते थे। पेशंट आता था उसको नमस्कार करते थे। उनके साथ के सारे जो सीनिअर रेजीडेंट्स होते थे, सब नमस्कार करते थे और कहते थे एक भगवान के रूप में एक मरीज हमारे सामने आया है। 3-4-5-6 जितने आपरेशंस करके सांयकाल जाकर स्नान कर, पूजा कर तब अन्न ग्रहण करते थे। कहते थे मेरा काम ईश्वर का काम है। मेरे को भगवान ने इन सब  की सेवा  करने के लिए ही भेजा है। मेरे सामने आने वाला प्रत्येक मरीज ईश्वर के रूप में ही मेरे सामने प्रकट होता है। दिस इज द फीलिंग आफ वननेस। यह वो फीलिंग है जो अंतरात्मा से कहती है मेरे अंदर का आत्म तत्व, मेरे अंदर का ईश्वर और सामने बैठे मरीज का ईश्वर एक ही है और मजदूर और मिल का मालिक, दोनों के अंदर का साम्य और सहकार और सहयोग बढ़ता जाता है। भारत की सांस्कृतिक परंपरा का यह मूल मंत्र है। हम कहते हैं कि विज्ञान आए लेकिन स्प्रिचुअल वननेस इज इंटरेस्ट आफ आल। यही एक भव्य मार्ग भविष्य के लिए हो सकता है। मैंने आपके सामने कुछ बिन्दुओं को संक्षेप में रखा है। आप विचार करने के लिए स्वतंत्र हैं।

 

1 thought on “सभ्यता के संकट

  1. बहुत सुन्दर तथा सरल शब्दों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का मूल सार अभिव्यक्त किया है।
    डॉ प्रकाश चन्द्र कांडपाल
    दिल्ली विश्वविद्यालय

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