किंतु अब दूसरी भी बात है, मैंने प्रारंभ में कल एक बात कही थी। मैं रिमाईंड कराना चाहता हूं, यहां आप लोग बैठे हैं। एक रास्ता सामान्य नागरिक के रास्ते पर जाने वाला है। मैंने इस शब्द का प्रयोग किया था कि दुकान, मकान, बैंक-बैलेंस वाला नागरिक व आप। दोनों में कुछ अंतर है ऐसा मैं मानता हूं। उसके सामने कोई ध्येय नहीं है। वह तो इतना ही चाहता है कि मेरा बैंक-बैलेंस रहे, बीवी-बच्चों का काम चलता रहे, लड़कियों की शादी हो जाए, लड़के अच्छे ओहदे पर पहुंच जाएं, मैं आराम से अपना बुढ़ापा काट सकूं, बस उसके जीवन की इतिश्री यही है। और उसको कुछ नहीं चाहिए।
इसमें अगर बाधा किसी कारण आती है तो वह बाधा बरदाश्त नहीं करेगा इस समय वह संघ-वालों को कहेगा कि क्यों भई तुम्हारे लट्ठ क्या कर रहे हैं? यहां तो हवा में डंडा घुमाते हो, वहां क्या कर रहे हो? ये सब उसी के लिए है कि बैंक-बैलेंस को तकलीफ न हो जाए। अब उसका सोचने का ढंग हम समझ सकते हैं। आप उस श्रेणी के नहीं। उसमें और आपमें अंतर है। वह भारत के भाग्य के लिए जिम्मेदार नहीं हैं उसके सामने कोई ध्येय नहीं है। परम वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम् यह जिम्मेदारी आपकी है उसकी नहीं है। उसकी जिम्मेदारी तो इतनी है कि लड़कियों की शादी होनी चाहिए, लड़के बड़े ओहदे पर पहुंचना चाहिए, बुढ़ापा आराम से कटना चाहिए, इतनी उसकी जिम्मेदारी है।
परम वैभवं की जिम्मेदारी उसके लिए नहीं, आपकी है। एक इसके कारण आगे का सोचना उसकी जिम्मेदारी नहीं, आपकी है। और मैं आपको बताता हूं कि कुछ लोग कहते हैं कि हम जरा सबको समझा सकें और ये समझ कैसे सकेंगे? उसको समझाने की इच्छा भी नहीं है। आप जरा बातें करके देखिए, आप बहुत गहराई में जाकर उसको समझाएंगे कि भई ऐसा है, वैसा है।
वह कहता है कि सारा मत समझाओ, एक बात बताओ, मामला समाप्त होगा कि नहीं? जिससे हमें परेशानी हो रही है बाकी झंझट मत बताओ। क्योंकि उसको किसी बात में दिलचस्पी नहीं है। आपकी तो दिलचस्पी इसमें है कि राष्ट्र कैसे आगे बढ़ेगा। उसका सीमित लक्ष्य है, इसलिए आप उसको लंबी-चौड़ी बात कहेंगे तो वह सुनेगा ही नहीं, आप बक-बक करते रहें। वह अपनी दूसरी बात का विचार करेगा। आप उसे क्या समझा सकते हैं। वह ग्रहण नहीं करेगा तो वहां आप डाल कैसे सकते हैं। आपका स्तर दूसरा है, आपको सब चीजों को समझ देना चाहिए। उसमें एक यह भी समझना चाहिए, एक सर्वसाधारण आदमी की समझदारी का स्तर और जिन्हें नेतृत्व करना है उनकी समझदारी के स्रत में अंतर होना चाहिए।
1990 के संघ के सम्मेलन में दत्तोपंत ठेंगड़ी के भाषण का अंश