कुंभ की शोभा हैं अखाड़े

प्रज्ञा संस्थानअखाड़े कुंभ परंपरा के अभिन्न अंग हैं, जिनके बगैर इस विराट समागम की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अखाड़ा शब्द संस्कृत के अखण्ड शब्द का अपभ्रंश है। इसका तात्पर्य साधुओं  व नागा संन्यासियों के उस संगठित समुदाय से है, जिनकी अपनी विशिष्ट परंपराएं व रीति- रिवाज हैं। अखाड़ों को सनातन धर्म का सुरक्षा बल भी माना गया है। कहा जाता है कि सनातन धर्म व भारतीय संस्कृति पर लगातार हो रहे आक्रमणों से तंग होकर साधु-संतों ने सैन्य संगठन बनाया। उन्हीं में से कुछ ने सर्वस्व त्याग कर नागा (नंगा) रूप धारण कर लिया और जीवनपर्यन्त देश व धर्म की रक्षा करने की शपथ ली। ये लोग जहां सैन्य प्रशिक्षण लेते थे, उसे अखाड़ा कहते थे। यहीं से अखाड़ों का अस्तित्व शुरू हुआ। अखाड़ों के इतिहास की वास्तविक कहानी भगवान आद्य शंकराचार्य से जुड़ी है। आदि शंकर ने सनातन धर्म का पुनरुत्थान करके वैदिक परंपरा और भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण व सुरक्षित बनाए रखने के लिए देश की चारों दिशाओं में चार मठ (पीठ) स्थापित किए।

उन्होंने पूरब में गोवर्धन मठ, पश्चिम में शारदा (द्वारका) मठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ और दक्षिण में श्रृंगेरी मठ स्थापित कर वहां आचार्य नियुक्त किए, जो कालांतर में शंकराचार्य कहलाने लगे। आद्य शंकराचार्य ने दसों दिशाओं के प्रतीक स्वरूप दशनाम संन्यासियों की परंपरा का प्रवर्तन भी किया। साथ ही मठों व आचार्यों के लिए एक संविधान ग्रंथ ‘मठाम्नाय-महानुशासन’ भी लिखा। आदि शंकर ने इन आचार्यों को शास्त्रों के माध्यम से सनातन धर्म बचाने का दायित्व सौंपा। इसी तरह सनातन धर्म एवं वैदिक परंपरा की शस्त्रों से रक्षा के लिए आद्य शंकराचार्य ने अखाड़ों की स्थापना की, जो सुरक्षा कवच बने। प्रारंभ में इन चारों मठों के आचार्य (अब शंकराचार्य) ही अखाड़ों के संन्यासियों को दीक्षा देते रहे। लेकिन, कालांतर में अखाड़े भी जब शस्त्र से शास्त्र की तरफ उन्मुख हुए, तो वहां के विद्वानों ने संन्यास की दीक्षा का कार्य प्रारंभ कर दिया। कुछ समय बाद इन विद्वान संन्यासियों को आचार्य महामंडलेश्वर कहा जाने लगा। वर्तमान में प्रत्येक अखाड़े में एक आचार्य महामंडलेश्वर व कई महामंडलेश्वर होते हैं। अखाड़ों में इन महामंडलेश्वरों की संख्या इस समय सैकड़ों में है।

पंचायती राज व्यवस्था का अनोखा प्रयोग

अखाड़ों में लोकतंत्र एवं पंचायती राज व्यवस्था का अनोखा प्रयोग देखने को मिलता है। दुनिया में शायद ही इतना प्राचीन लोकतंत्र कहीं और हो! अखाड़ों में रमता पंच व शंभू पंच नामक दो प्रमुख पंचायतें (सदन) होती हैं। इनका अपना शासन तंत्र भी होता है। रमता पंच के संचालन के लिए श्री महंत, अष्ट कौशल महंत, पुजारी, कोतवाल व कोठारी होते हैं, जबकि सभापति, सचिव व थानापति शंभू पंच (इसे बूढ़ा पंच भी कहा जाता है) का संचालन करते हैं। दोनों पंचायतों के पदाधिकारियों का चुनाव क्रमश: हर तीसरे व छठे वर्ष कुंभ के अवसर पर हो जाता है। इनका निर्वाचन व चयन लोकतंत्रीय व्यवस्था के तहत होता है। गुरु-शिष्य परंपरा के पर्याय ये अखाड़े इस प्राचीन व्यवस्था को बखूबी निभा रहे हैं। इस परंपरा में शिष्यों के चयन की भी एक प्रक्रिया है, जिसे पूरा किये बगैर कोई अखाड़े में प्रवेश नहीं कर सकता। अखाड़ों की लोकतंत्रीय व्यवस्था का स्वरूप कुंभ पर्व पर भी परिलक्षित होता है। जिस तरह गणतंत्र दिवस पर देश की सैन्य शक्ति का प्रदर्शन किया जाता है, उसी तरह संन्यासी अखाड़े भी कुंभ पर्व पर अपने पराक्रम का भरपूर प्रदर्शन करते हैं, जिनका अवलोकन पेशवाई, शाही स्नान व इनकी छावनी की गतिविधियों में दिखाई पड़ता है। इसलिए कुंभ व अर्धकुंभ को ये अपना महापर्व कहते हैं।

कुंभ पर्व के बाद भी अखाड़ों की होने वाली गतिविधियां कम रोचक नहीं हैं। इनका रमता पंच एक कुंभ समाप्त होने के बाद अगले कुंभ के लिए रवाना हो जाता है। उदाहरण के तौर पर, 2016 में उज्जैन कुंभ करने के बाद अखाड़ों का रमता पंच देशाटन के लिए निकल पड़ा और उसने भ्रमण करते हुए प्रयाग अर्धकुंभ 2019, जिसे प्रदेश सरकार ने पूर्ण कुंभ की संज्ञा दी थी, के शुरू होने के कुछ समय पहले लाव-लश्कर के साथ प्रयागराज नगर में प्रवेश किया। दूसरी तरफ शंभू पंच के संन्यासी इस दौरान धर्म का प्रचार और सामाजिक कार्य करते हैं। ये शैक्षणिक संस्थान भी संचालित करते हैं। प्राकृतिक आपदा के समय ये संन्यासी जनसेवा का कार्य करते हैं। अखाड़ों को मुख्यत: चार भागों में बांटा जा सकता है, जिनमें प्रथम शैव संप्रदाय के सात अखाड़े हैं- आवाहन, जूना, अग्नि, निरंजनी, महानिर्वाणी, अटल व आनन्द। इन अखाड़ों के संन्यासी शिवभक्त होते हैं। दूसरे वैष्णव अखाड़े हैं, जो विष्णु, राम व कृष्ण के पुजारी हैं। इनमें श्री पंचायती दिगम्बर अनी, श्री पंच निर्वाणी अनी व निर्मोही अनी श्री पंच आदि। तीसरी श्रेणी में उदासीन अखाड़े आते हैं, जिनमें श्री पंचायती बड़ा उदासीन व श्री पंचायती नया उदासीन अखाड़ा है। इन अखाड़ों के संत भी राम, कृष्ण व विष्णु को अपना आराध्य मानते हैं। चौथे प्रकार में श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा आता है। इस तरह वर्तमान में कुल तेरह अखाड़े हैं।

कुंभ पर्व पर कौन अखाड़ा पहले स्नान करे, इसे लेकर पूर्व काल में कई बार रक्तपातपूर्ण लड़ाइयां हो जाती थीं। बाद में ब्रिटिश सरकार ने एक नियम बनाया, फिर निर्धारित क्रम से हर अखाड़े के संत-संन्यासी स्नान करने लगे। अखाड़ों के नागा संन्यासियों द्वारा देश व सनातन धर्म की रक्षा के लिए अनेक बार भयंकर युद्ध करने की घटनाएं प्रसिद्ध हैं। संन्यासियों ने संकट के समय अनेक राजाओं की अपने सैन्य बल से सहायता भी की। यदुनाथ सरकार एवं कर्नल टाड जैसे प्रसिद्ध इतिहासकारों ने नागा संन्यासियों द्वारा किए गए युद्धों का विस्तार से वर्णन किया है। गुप्त काल में तो जगह-जगह नागा संन्यासियों के दलपति परिव्राजक राजा के नाम से प्रसिद्ध हुए। सिकंदर के आक्रमण के समय नागा संन्यासियों के युद्ध का उल्लेख मिलता है। इतिहास साक्षी है कि मुगल शासकों को अफगानों से बचाने में नागा संन्यासियों ने सहायता की। प्रसिद्ध साहित्यकार बंकिम चंद्र चटर्जी ने अपनी पुस्तक ‘आनन्द मठ’ में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध इन्हीं संन्यासियों के विद्रोह का उल्लेख किया है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में इन्हीं संन्यासियों ने झांसी की रानी और तात्या टोपे के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना को धूल चटाई थी। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि एवं महामंत्री महंत हरि गिरि का कहना है कि आजादी के बाद अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया।  

दशनामी संन्यासी

भारतीय संस्कृति में संन्यास की परंपरा सनातन काल से चली आ रही है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास मानव जीवन के चार आश्रम कहे गए हैं। संन्यास परंपरा की शुरुआत सबसे पहले महर्षि वेदव्यास ने की थी। शुकदेव एवं अन्य ऋषियों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। इसके बाद आद्य शंकराचार्य ने देश की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित कर दशनामी संप्रदाय का बाकायदा गठन किया। इतिहासकार यदुनाथ सरकार तो भारत में नागा संन्यासियों की परंपरा को प्रागैतिहासिक काल का बताते हैं। उन्होंने लिखा है कि मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिली मुद्रा पर पशुओं द्वारा पूजित एवं दिगंबर रूप में विराजमान पशुपति का चित्र इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। माना जाता है कि भगवान शिव इन जटाधारी दिगंबर तपस्वियों के आराध्य देव हैं। आद्य शंकराचार्य ने दशनामी संन्यासियों का नामकरण अरण्य, आश्रम, भारती, गिरि, पर्वत, पुरी, सरस्वती, सागर, तीर्थ और वन के रूप में किया। इनमें गिरि, पर्वत व सागर को भृगु ऋषि का वंशज बताया गया है, जबकि पुरी, भारती एवं सरस्वती ऋषि शांडिल्य, वन एवं अरण्य ऋषि कश्यप और तीर्थ एवं आश्रम ऋषि अवगत की वंशावली के हैं। आवाहन अखाड़ा के श्रीमहंत कैलाश पुरी, श्रीमहंत सत्य गिरि, श्रीमहंत ऋषिराज पुरी एवं श्रीमहंत सोम गिरि बताते हैं कि दशनामी संन्यासियों की 52 मढ़ियां हैं, जिनमें से 27 गिरियों, 16 पुरियों, चार भारतीयों, चार वनों और एक लामा की कही जाती है। श्रीमहंत कैलाश पुरी का कहना है कि कुंभ क्षेत्र में अखाड़े का जो धर्म ध्वज फहराया जाता है, उसकी ऊंचाई 52 हाथ होती है, जो इन्हीं 52 मढ़ियों की द्योतक है। वह कहते हैं कि इस धर्म ध्वज में 52 बंद (जनेऊ) भी लगाए जाते हैं। इसके अलावा ध्वज में लगी चार रस्सियां चार वेद, चार पीठ और संन्यासियों के चार संप्रदाय को दर्शाती हैं।

कठिन है नागा संन्यासी बनना

अर्धकुंभ और कुंभ के दौरान नागा संन्यासी आम जनता के लिए कौतूहल के विषय होते हैं।  लेकिन, यदि उनकी दिनचर्या को नजदीक से देखें तो पता चलता है कि उन्हें बड़ी कठिन तपस्या का जीवन व्यतीत करना पड़ता है। नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया भी बड़ी जटिल है। दीक्षा लेने से पहले उन्हें खुद का पिंडदान और श्राद्ध तर्पण तक करना पड़ता है। कोई व्यक्ति जब संन्यासी बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो सबसे पहले उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की गहनता से जांच होती है। इसके बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। इसमें छह महीने से 12 साल तक का समय लग सकता है। इस दौरान अखाड़ा जब संतुष्ट हो जाता है कि वह व्यक्ति अब दीक्षा देने लायक हो चुका है तो उसे अगली प्रक्रिया से गुजारा जाता है। ब्रह्मचर्य की परीक्षा में सफल हुए व्यक्ति को महापुरुष की संज्ञा दी जाती है। इस दौरान उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं। फिर उसे भस्म, भगवा, रुद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं, जो नागा संन्यासियों के प्रतीक और आभूषण कहलाते हैं। दूसरी प्रक्रिया में उसे अवधूत बनाया जाता है। इसमें उसे अपना मुंडन कराकर सबसे पहले स्वयं का पिंडदान करना पड़ता है। इसका मतलब यह कि वह स्वयं को परिवार और समाज के लिए मृत मान लेता है। इसके बाद अखाड़े के गुरु उसे नया नाम और नई पहचान देते हैं। इस प्रक्रिया में अवधूत को लगातार 24 घंटे अखाड़े के ध्वज के नीचे बिना कुछ खाये-पिये खड़ा होना पड़ता है। इसके बाद अखाड़े के साधु द्वारा उसके लिंग को वैदिक मंत्रों के साथ झटके देकर निष्क्रिय किया जाता है। यह कार्य भी अखाड़े के ध्वज के नीचे किया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह अवधूत नागा संन्यासी बन जाता है। अर्धकुंभ और कुंभ के दौरान अखाड़ों में नये नागा संन्यासी बनाने की परंपरा है। आवाहन अखाड़ा के श्रीमहंत कैलाश पुरी बताते हैं कि इस बार प्रयाग कुंभ के दौरान उनके अखाड़े में करीब दस हजार नागा संन्यासी बनाए जाएंगे।

गुरु-शिष्य परंपरा के पर्याय ये अखाड़े इस प्राचीन व्यवस्था को बखूबी निभा रहे हैं। इस परंपरा में शिष्यों के चयन की भी एक प्रक्रिया है, जिसे पूरा किये बगैर कोई अखाड़े में प्रवेश नहीं कर सकता। अखाड़ों की लोकतंत्रीय व्यवस्था का स्वरूप कुंभ पर्व पर भी परिलक्षित होता है।

देश के प्रमुख तेरह अखाड़े

श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा।

पहले इसका नाम भैरव अखाड़ा था। पहले इष्टदेव भैरव ही थे। अब इस अखाड़े के इष्टदेव दत्तात्रेय हैं, जो रूद्रावतार माने जाते हैं। इसकी स्थापना विक्रम संवत 1202 में उत्तराखंड के कर्णप्रयाग में हुई। मुख्यालय वाराणसी। जूना का अर्थ पुराना होता है। इसलिए इसे सबसे पुराना अखाड़ा माना जाता है। वर्तमान में सबसे ज्यादा महामंडलेश्वर इसी अखाड़े के हैं।

श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा।

स्थापना सन 547 में, केंद्र दशाश्वमेध घाट काशी (वाराणसी)। इष्टदेव श्री गणेश एवं दत्तात्रेय जी हैं। इस अखाड़े में महिला साध्वियों की कोई परंपरा नहीं है।

श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी।

स्थापना सन 749 में, इष्टदेव कपिल जी। मुख्यालय दारागंज, प्रयागराज। इस अखाड़े के नागा संन्यासी बड़े शूरवीर होते थे। इस अखाड़े ने 1857 में पेशवा नाना साहब व महारानी लक्ष्मीबाई को सहयोग प्रदान कर अपने पराक्रम का परिचय दिया था।

श्री पंच अटल अखाड़ा।

स्थापना सन 647, इष्टदेव श्री गणेश। केंद्र काशी, वाराणसी। समाज को दीक्षित करना, शास्त्रों व वेदों का ज्ञान देना, सभ्यता, संस्कार और समता का भाव फैलाना इस अखाड़े के संन्यासियों का मुख्य उद्देश्य है।

तपोनिधि श्री आनंद अखाड़ा पंचायती।

स्थापना सन 856, इष्टदेव-सूर्य नारायण। प्रधान कार्यालय नासिक, महाराष्ट्र। रूढ़िवादिता, आडंबर, धार्मिक समरसता को नुकसान पहुंचाने वाली प्रथाओं और छुआछूत जैसी कुरीतियों पर प्रहार करने के लिए इस अखाड़े का उद्भव हुआ है।

 श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी।

स्थापना सन 904, इष्टदेव कार्तिकेय। मुख्यालय दारागंज, प्रयागराज। इस अखाड़े के अधिकतर संन्यासी उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। इनमें डॉक्टर, लॉ एक्सपर्ट, प्रोफेसर, संस्कृत के विद्वान एवं आचार्य शामिल हैं। इस अखाड़े के कई संतों के व्याख्यान आईआईटी और आईआईएम में भी होते हैं।

 श्री पंचदशनाम पंचअग्नि अखाड़ा।

स्थापना सन 1136, इष्टदेव गायत्री माता व अग्नि। मुख्यालय जूनागढ़, गुजरात। इस अखाड़े में सिर्फ ब्राह्मणों को दीक्षा दी जाती है। ब्राह्मण के साथ उनका ब्रह्मचारी होना भी आवश्यक है।

 श्री दिगम्बर अनी अखाड़ा।

स्थापना अयोध्या में 15वीं सदी में हुई, मुख्यालय गुजरात में है। वैष्णव संप्रदाय के अखाड़ों में इसे राजा कहा जाता है। इस अखाड़े में सबसे ज्यादा करीब 500 खालसा हैं।

श्री निर्मोही अनी अखाड़ा।

स्थापना 18वीं शताब्दी, मुख्यालय वृंदावन। इसी अखाड़े ने 1959 में अयोध्या की विवादित भूमि पर अपना मालिकाना हक जताते हुए मुकदमा दायर किया था, तभी से यह चर्चा में है। पुराने समय में इस अखाड़े के साधुओं को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा दिलाई जाती थी।

श्री निर्वाणी अनी अखाड़ा।

स्थापना 15वीं सदी, इष्टदेव हनुमान जी, मुख्यालय अयोध्या। कुश्ती इस अखाड़े के जीवन का एक हिस्सा है। इस अखाड़े के कई संत प्रसिद्ध पहलवान भी रह चुके हैं।

श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा।

स्थापना सं. 1025, इष्टदेव श्री चंद्रदेव, पंचदेव। उपासना पद्धति में लक्ष्मी, गणेश, विष्णु, सूर्य व अन्नपूर्णा की आराधना। मुख्यालय कीडगंज, प्रयागराज। इस अखाड़े का उद्देश्य सेवा करना है। इसमें चार महंत होते हैं, जो कभी सेवानिवृत्त नहीं होते।

 श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन।

स्थापना सन 1846 इष्टदेव श्री चंद्रदेव, पंचदेव। आराधना की भी परंपरा है। मुख्यालय हरिद्वार। बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ साधुओं ने विभक्त होकर इसे स्थापित किया था। इस अखाड़े में उन्हीं को नागा बनाया जाता है, जो आठ से 12 साल की उम्र के होते हैं।

 श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा।

स्थापना सन 1826 इष्टदेव श्री गुरू ग्रंथ साहिब, मुख्यालय हरिद्वार। इस अखाड़े में धूम्रपान पर पूरी तरह पाबंदी है।

नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया भी बड़ी जटिल है। दीक्षा लेने से पहले उन्हें खुद का पिंडदान और श्राद्ध तर्पण तक करना पड़ता है। कोई व्यक्ति जब संन्यासी बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो सबसे पहले उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की गहनता से जांच होती है। 

 (युगवार्ता से साभार)

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