अनादि काल से हमारा देश आध्यात्म प्रधान देश है। यहां घटित होने वाली प्रत्येक घटना की स्मृति में जो आध्यात्मिक अनुष्ठान पुन:-पुन: आयोजित किए जाते हैं, उन्हें पर्व कहा जाता है। इन्हीं पर्वों में कुंभ का महापर्व भी सहस्त्रों वर्ष पूर्व घटित घटना की स्मृति में किए जाने वाले विशेष आध्यात्मिक दृष्टि के अनुष्ठानों का योग है। विष्णु पुराण तथा विष्णुयाग ग्रंथों के अनुसार, गोविन्द द्वादशी, गजच्छाया योग, वारूणि पर्व, महावारूणि पर्व, महावारूणि अैर विषुभ व्यतिपात इत्यादि पर्वों जैसा ग्रहों का योग ही कुंभ के नाम से प्रसिद्ध है। वेदों में भी इसके उल्लेख हैं:-
चतुर: कुंभाश्चतुर्धा ददामि क्षीरेण पूर्णान उदकेन दहना।
एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वा:।।
पूर्ण: कुंभोऽधिकाल आहितस्त वै पश्यामो बहुधा नु सन्त:।
स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यकालं तमाहु: परमे त्योमन।।
कुंभ की उत्पत्ति एवं इसके योगों के विषय में मान्यता है कि जब दैवीय व आसुरी प्रवृत्तियों का युद्ध हो रहा था, तब किसी प्रकार दोनों का समन्वय कराने के लिए समुद्र मंथन का आयोजन किया गया। इसी मथित समुद्र में से निकला एक रत्न अमृत कुंभ भी था। ‘विष्णु याग’ नामक ग्रन्थ में उल्लिखित कथा के अनुसार, हिमालय के उत्तर में आज से लाखों वर्ष पहले क्षीरोद नाम के मीठे पानी का समुद्र विद्यमान था। मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को नेति बनाकर देवता तथा दानवों ने क्षीरोद सागर का मंथन शुरू किया। मन्दराचल समुद्र में डूब न जाए, इसलिए भगवान विष्णु ने कूर्मावतार धारण कर लिया। क्षीरोद सागर का मंथन करने पर सबसे पहले ‘हलाहल’ नामक विष उत्पन्न हुआ। इसे भगवान शिव ने पान करके अपने गले में धारण कर लिया। मान्यता है कि इस विष की ज्वालाओं से ग्रसित होकर तीनों लोकों के वासी व्याकुल हो गए थे। भगवान शिव द्वारा विष का पान करने के बाद सब लोग स्वस्थ हुए। तत्पश्चात उनके द्वारा मंथन आरंभ करने पर चौदह प्रकार के अन्यान्य रत्न निकले थे। इन्हीं में एक रत्न ‘अमृत कलश’ था। इसके प्रकट होते ही इन्द्र पुत्र जयन्त कलश को लेकर वहां से भाग गया। तब देवताओं के उस कपट कार्य का विचार करके दैत्यों के पुरोहित शुक्राचार्य ने वासुकि नाग की श्वांस की ज्वालाओं से इसकी सूचना दी। जयन्त बारह दिनों तक दसों दिशाओं में दुखी होकर भागते रहे।
इस प्रकार महर्षि कश्यप पुत्र देवता व दानवों में अमृत के निमित्त झगड़ा होने पर भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण करके उन्हें मोह लिया और अमृत वितरण कर झगड़ा समाप्त कर दिया। देवताओं व असुरों के विवाद में पृथ्वी पर जहां-जहां कलश रखा गया था, उस समय ग्रहों का योग जैसा था, उसे ही ‘कुंभ पर्व’ कहा जाता है। सूर्य, चंद्र व वृहस्पति अमृत कलश की रक्षा करते समय जिन-जिन राशियों में स्थित थे, पुन: वे उन्हीं-उन्हीं राशियों में जब आते हैं, तब उस समय जहां अमृत कलश रखा गया था, वहां कुंभ होता है। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के वर्ष के हिसाब से बारह कुंभ पर्व होते हैं। इन बारह कुंभ पर्वों में से मनुष्य को पापों से मुक्त कराने के लिए चार कुंभ पर्व भारत में होते हैं और आठ कुंभ पर्व लोकान्तरों अर्थात देशान्तरों में होते हैं। स्कन्द पुराण में हरिद्वार माहात्म्य नामक खण्ड में कुंभ की उत्पत्ति का मिलता-जुलता प्रमाण है। इसके अनुसार, समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ चार स्थानों पर गिरा, इसलिए भारत में कुंभ पर्व के चार भेद हो गए। पृथ्वी में कुंभ पर्व के चार भेद कहे जाते हैं। विष्णुद्वार (हरिद्वार), तीर्थराज (प्रयागराज), अवन्ती (उज्जैनी) एवं गोदावरी तट (न्न्यम्बक) में। प्रथम गंगाद्वार (हरिद्वार) में, द्वितीय प्रयाग में, तृतीय धारा (उज्जैन) में और चतुर्थ गोदावरी तट (न्न्यम्बक) में घटने वाले इस योग को भगवान शिव आदि देवता कलश ( कुंभ) योग के नाम से पुकारते हैं। हरिद्वार (गंगाद्वार) आदि चारों तीर्थों में कुंभ पर्व का समय ग्रहों के अनुसार अलग-अलग हो गया है। कुंभ वृहस्पति और मेष में सूर्य होने पर हरिद्वार में, वृष में गुरु और मकर में सूर्य होने पर प्रयाग में, सिंह में गुरु और मेष में सूर्य होने पर उज्जैन में तथा सिंह में गुरु और सिंह में ही सूर्य होने पर न्न्यम्बक में कुंभ पर्व होता है।
स्नान का महत्व
तान्येति य: पुमान योगे सोऽमृतत्वाय कल्पते।
देवा नमन्ति तत्रस्थान यथारडड: धनाधिपान।। (वि.या. 23)
जो मनुष्य कुंभ पर्व के समागम में स्नान करते हैं, वे सांसारिक बंधन से मुक्त होकर अमृत्व को प्राप्त होते हैं। उनके सामने देवता वैसे ही नमन करते हैं, जैसे धनवानों के सामने निर्धन लोग। कार्तिक मास में एक हजार बार, माघ मास में एक सौ बार गंगा स्नान और वैशाख मास में एक करोड़ बार नर्मदा में स्नान करने का जो फल है, वही फल एक बार कुंभ पर्व पर स्नान करने से मिलता है।
अश्वमेध सहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा पृथ्त्या: कुंभ स्नानेन तत्फलम्।। (वि. पु.)
एक बार अश्वमेध, एक सौ बार वाजपेय यज्ञ तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा का जो फल है, वही फल कुंभ पर्व पर स्नान करने से मिलता है। जब तक पृथ्वी को पर्वत, नाग अथवा दिग्गज तथा समुद्र धारण करते रहेंगे, तब तक गंगा जी में कुंभ से उत्पन्न अमृत विद्यमान रहेगा।
कुंभ पर्व का विकास
धार्मिक आस्था व सनातन आध्यात्म की समरसता प्रयाग के कुंभ पर्व में देखने को मिलती है। अद्युनातन कुंभ पर्व आधुनिकता की इस चकाचैंध से परिपूर्ण समाज को धर्म व आस्था के संगम में पूर्णत: समाहित कर देता है। हमारे धर्म व आस्था का अद्भुत समागम प्रयागराज के हर कुंभ में देखने को मिलता है। बात जहां तक कुंभ के विकास की है, तो इतिहास साक्षी रहा है। गुप्त साम्राज्य (320-600 ई.) के दौरान पुराण आदि साहित्य के आधार पर कुंभ पर्वों के स्थान व काल स्थायी रूप से निर्णीत होकर वर्तमान में विकसित हुए हैं। विभिन्न मतानुयायियों का यह भी मत है कि सम्राट हर्षवर्धन ‘शीलादित्य’ द्वारा (612-647 ई.) में कुंभ मेले का सूत्रपात हुआ। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण से यह विदित होता है कि हर्षवर्धन स्वयं बौद्ध होते हुए भी अपनी परधर्म सहिष्णुता एवं उदारता के कारण प्रत्येक पांचवें व छठे वर्ष प्रयाग में त्रिवेणी तट पर बौद्धिक सनातनधर्मी एवं बौद्ध विद्वानों का विशाल सम्मेलन बुलाकर धर्मालोचन की व्यवस्था करते थे। वहां स्वयं उपस्थित होकर वह शास्त्र चर्चा सुनते थे और उसके उपलक्ष्य में सर्वस्व दान कर देते थे।
कुछ विद्वानों का कहना है कि प्रयागराज के कुंभ मेले का वर्तमान रूप में विकास आद्य शंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित है, जिसके लिए वे अनेक तथ्य प्रस्तुत करते हैं। झांसी गजेटियर के अनुसार, 1751 ई. में अहमद खां बंगश ने दिल्ली के वजीर अवध के नवाब सफदरजंग को परास्त करते हुए इलाहाबाद का किला घेर लिया था। वह नगर पर कब्जा करने ही वाला था, तभी प्रयागराज कुंभ आ गया, जिसमें देश-विदेश से विभिन्न धमार्नुरागियों का अद्भुत समागम हुआ। नागा संन्यासियों का एक विशाल समूह भी राजेंद्र गिरि के नेतृत्व में आया था। उन्होंने पहले कुंभ पर्व में किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान पूरे किए। उसके बाद शस्त्र धारण कर अहमद खां बंगश की सेना के साथ युद्ध करके प्रयाग की रक्षा की। वर्तमान में भी कुंभ मेलों में इन्हीं संन्यासियों की अध्यक्षता में धर्म व आस्था की समरसता का विहंगम प्रवाह देखने को मिलता है। कुंभ में धर्म शास्त्रों का जनश्रवण एवं दर्शन के प्रश्नों पर विचार-विमर्श होता है। जनता प्रयाग में स्नान एवं पुण्य लाभ करने के लिए कल्पवास करती है। भाव प्रवणता एवं धार्मिक समरसता का जन प्रवाह कुंभ में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, जो तीर्थराज प्रयाग की गौरवमयी आध्यात्मिक परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखता है। सार्वभौम सत्य है कि आद्य शंकराचार्य ने वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा के बाद अपने अनुयायियों के साथ कुंभ पर्व के धार्मिक सम्मेलनों को विशेष महत्व प्रदान किया। वर्तमान में भी उनके अनुयायी दशनाम संन्यासी प्रयाग के कुंभ मेले में विशेष अधिकार रखते हैं और इस पर्व की कालगणना में विवाद हो जाने पर उनका पक्ष महत्वपूर्ण माना जाता है।
( युगवार्ता से साभार )