आसन्न विधानसभा चुनाव में सबसे विकट स्थिति कांग्रेस की है यानी करो या मरो सरीखी। आप के हाथों प्रदेश की सत्ता और परंपरागत वोटबैंक गंवाने के बाद अब उसके सामने अपना वजूद बरकरार रखने की चुनौती आ खड़ी हुई है।अगले महीने होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अपना वजूद बचाने के लिए हर प्रयास करती दिख रही है। आम आदमी पार्टी (आप) के संयोजक एवं पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा विधानसभा चुनाव में तालमेल न करने के ऐलान के बाद कांग्रेस ने भी अपने दम पर मैदान में उतरने की घोषणा कर दी। यही नहीं, आप की तरह बिना चुनाव की तारीख घोषित हुए 70 में से 47 सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए। उसने अरविंद केजरीवाल के मुकाबले नई दिल्ली विधानसभा सीट से पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र एवं पूर्व सांसद संदीप दीक्षित को उम्मीदवार बनाया है। अभी तक यही माना जा रहा है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला आप और भाजपा के बीच होगा। सालों तक दिल्ली पर राज करने वाली कांग्रेस 2013 यानी आप के वजूद में आने के बाद से लगातार हाशिए पर पहुंचती जा रही है। लगातार 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित 2013 का विधानसभा चुनाव न केवल खुद हारीं, बल्कि कांग्रेस को सिर्फ 24.5 फीसद वोट और आठ सीटें मिलीं। 2015 के विधानसभा चुनाव में उसे कोई सीट नहीं मिली और वोट औसत भी घटकर 9.71 फीसद रह गया। वहीं, 2020 के विधानसभा चुनाव में उसे केवल 4.26 फीसद वोट मिले।
अभी 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का आप से सीटों का तालमेल था। सात में से तीन सीटों पर कांग्रेस और चार सीटों पर आप लड़ी, लेकिन भाजपा ने लगातार तीसरी बार सातों सीटें जीत लीं। कांग्रेस को सिर्फ 18.5 फीसद वोट मिले। माना जा रहा है कि कांग्रेस समर्थक वोटों के बलबूते दिल्ली में राज कर रही आप को लग रहा है कि तालमेल करने से कांग्रेस मजबूत हो जाएगी और देर-सबेर आप को नुकसान पहुंचाएगी। वैसे, यह खतरा बरकरार है कि अगर कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़ी तो आप का नुकसान करेगी और भाजपा को फायदा। गौरतलब है कि कांग्रेस ने भाजपा को कमजोर करने के लिए उसके मध्यमवर्गीय वोटरों का समर्थन लेकर तन-मन व धन से जिस आप को सहयोग किया था, उसी ने उसके (कांग्रेस) समर्थक माने जाने वाले कमजोर वर्गों, अल्पसंख्यक एवं पूर्वांचल (पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार व झारखंड आदि के मूल निवासी) के प्रवासियों को अपना स्थायी वोटर बना लिया। 2013 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली के अल्पसंख्यकों ने इस गलतफहमी में कांग्रेस को वोट दिया कि वह भाजपा को हरा रही है। उसके बाद के दोनों चुनावों में इस वर्ग ने आप को वोट दिया। कांग्रेस इस बार इस वर्ग को अपने साथ लाने का प्रयास कर रही है।
कट्टर धार्मिक छवि वाले मंगलोर (उत्तराखंड) के विधायक काजी निजामुद्दीन दिल्ली के प्रभारी, राजस्थान के पूर्व विधायक दानिश अबरार सह प्रभारी और टिकटों की छानबीन समिति में पूर्व सांसद मीनाक्षी नटराजन के साथ सहारनपुर के सांसद इमरान मसूद हैं। दिल्ली में मुस्लिम आबादी अब 12 से बढ़कर 15 फीसद से ज्यादा हो गई है। 70 में से 17 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मतदाता 20 फीसद से ज्यादा हैं। इनमें सीलमपुर, मटिया महल, बल्लीमरान, ओखला, मुस्तफाबाद, किराड़ी, चांदनी चौक, गांधी नगर, करावल नगर, विकास पुरी, ग्रेटर कैलाश, कस्तूरबा नगर, बाबरपुर, मोती नगर, मालवीय नगर, सीमापुरी एवं छत्तरपुर शामिल हैं। इसी तरह अनूसूचित जाति के लिए आरक्षित 12 सीटों पर भी कांग्रेस ने पूरी तैयारी की है। दलितों में कांग्रेस का कुछ असर अब भी बचा है। पूर्वांचल के प्रवासी दिल्ली में सालों तक कांग्रेस का साथ देकर उसे सत्ता दिलाते रहे हैं। 42 सीटों पर पूरबियों (पूर्वांचल के प्रवासी) का वोट 20 फीसद से ज्यादा है। ये तीनों और दिल्ली के गांव का एक वर्ग अगर कांग्रेस से जुड़ जाए तो उसके पुराने दिन लौट आएंगे। कांग्रेस के पास आज की तारीख में कोई बड़ा पूरबिया नेता न होने से उसकी फिर से इस वर्ग में पैठ होने में कठिनाई हो रही है। जो गलती 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने की, उसे वह दोहराना नहीं चाहती। तब उम्मीदवार कमजोर नहीं थे, लेकिन जय प्रकाश अग्रवाल के अलावा दोनों नेता पार्टी में नए थे। इसके चलते विद्रोह हो गया था। कांग्रेस के नेता चतर सिंह कहते हैं कि जो पद पाने के लिए दूसरे दलों में गए, उनमें कई को निराशा हाथ लगी है और बाकियों की भी वही गति होनी है।
2006 के परिसीमन में पूर्वी दिल्ली सीट दो हिस्सों में (पूर्वी दिल्ली और दिल्ली उत्तर पूर्व) बंटी। उससे पहले पूर्वी दिल्ली सीट से पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित सांसद थे, जो परिसीमन के बाद 2009 में उसकी एक सीट से सांसद बने और 2014 में पराजित हुए। 2019 में पूर्वी दिल्ली की दूसरी सीट दिल्ली उत्तर पूर्व से उनकी मां शीला दीक्षित चुनाव लड़ीं और पराजित हुईं। शीला दीक्षित ने 2019 में आप से समझौते का विरोध किया तो उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के साथ जबरन लोकसभा चुनाव लड़ाया गया। सत्ता सुख भोगने की आदत पड़ जाने के चलते एक चुनाव की हार ने कांग्रेस को संकट में ला दिया। अपनी चिंता में लगे नेताओं ने पार्टी को हाशिए पर ला खड़ा किया। 2013 के विधानसभा चुनाव की हार के बाद पार्टी बिखरती चली गई। 2015 के चुनाव के समय प्रदेश अध्यक्ष थे अरविंद सिंह लवली और मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया गया अजय माकन को, जिससे नाराज लवली ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। उसके बाद प्रदेश अध्यक्ष बने अजय माकन ने 2019 के लोकसभा चुनाव में आप से तालमेल की मुहिम चलाई। बताते हैं कि कांग्रेस का एक वर्ग सात में से दो सीटों पर भी समझौता करने को तैयार हो गया था। जिस पार्टी ने कांग्रेस को हाशिए पर पहुंचाया, उससे समझौता करने का शीला दीक्षित ने भारी विरोध किया। समझौता न होने पर भारी मन से अजय माकन नई दिल्ली सीट से चुनाव लड़कर हारे। और, बिना प्रदेश अध्यक्ष तय हुए उन्होंने बीमारी के बहाने प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ दी।
2020 के विधानसभा चुनाव के लिए पहले बिहार मूल के नेता कीर्ति आजाद को प्रदेश अध्यक्ष बनाना तय किया गया। वह पहले भाजपा के दिल्ली से विधायक एवं बिहार से सांसद थे। अचानक वरिष्ठ नेता सुभाष चोपड़ा को अध्यक्ष और आजाद को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। गुटबाजी में आजाद अलग-थलग हो गए, उन्हें दिल्ली कांग्रेस दफ्तर में नियमित बैठने के लिए कमरा तक नहीं दिया गया। चुनाव नतीजों के बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और तृणमूल कांग्रेस में शामिल होकर लोकसभा के सदस्य बन गए। कुछ समय बाद कांग्रेस के पूर्वांचल के सबसे लोकप्रिय चेहरा रहे पूर्व सांसद महाबल मिश्र भी पार्टी छोड़कर आप में शामिल हो गए। इस बार आप ने उन्हें पश्चिमी दिल्ली से लोकसभा उम्मीदवार बनाया था। उनके पुत्र विनय मिश्र पहले से ही आप में शामिल होकर विधायक एवं दिल्ली जल बोर्ड के उपाध्यक्ष बने हुए हैं। इस बार भी विधानसभा चुनाव में आप ने विनय मिश्रा को उम्मीदवार बनाया है। जुलाई 2019 में शीला दीक्षित के निधन के बाद चौधरी अनिल कुमार प्रदेश अध्यक्ष बने। लवली थोड़े ही समय भाजपा में रहकर फिर कांग्रेस में लौट आए और 2019 का लोकसभा चुनाव पूर्वी दिल्ली सीट से मजबूती से लड़े। उन्हें 2023 में अनिल कुमार के इस्तीफा देने पर दोबारा अध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में टिकटों के बंटवारे में अपनी भूमिका न होने से नाराज होकर उन्होंने फिर कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। उसी दौरान कांग्रेस के कई नेता भाजपा में शामिल हुए।
आप ने भले ही 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से समझौता किया, लेकिन आज भी वह उसे गंभीरता से नहीं ले रही थी, जबकि अब हालात दूसरे हैं। कट्टर ईमानदार होने का मूलमंत्र जपने वाले अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी शराब घोटाले में फंसी हुई है। उनके लोगों पर कई और भ्रष्टाचार के आरोप लगे और कई नेताओं को जेल जाना पड़ा। दिल्ली में 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ समाजसेवी अण्णा हजारे के आंदोलन में शामिल अनेक लोगों ने 26 अक्टूबर 2012 को आम आदमी पार्टी के नाम से राजनीतिक दल बनाकर 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव को लड़ना तय किया। अण्णा हजारे ने राजनीतिक पार्टी बनाने का विरोध किया था। पहले ही चुनाव में ही फ्री बिजली-पानी का मुद्दा कारगर हुआ। आप को 70 सदस्यों वाली विधानसभा में करीब 30 फीसद वोट और 28 सीटें मिलीं। भाजपा करीब 34 फीसद वोट के साथ 32 सीटें जीती। दिल्ली में 15 साल तक शासन करने वाली कांग्रेस को 24.5 फीसद वोटों के साथ केवल आठ सीटें मिलीं।
भाजपा के मना करने पर आप ने कांग्रेस से बिना मांगे समर्थन से सरकार बनाई, लेकिन नियम का पालन किए बिना लोकपाल विधेयक विधानसभा में पेश करने से रोके जाने के खिलाफ 49 दिनों पुरानी इस सरकार ने इस्तीफा दे दिया। तब कांग्रेस को लगा कि आप बिखर जाएगी, लेकिन उसे दिल्ली में पैर जमाने का अवसर उसके बाद कांग्रेस से ज्यादा भाजपा ने दिया। आप सरकार गिरने के करीब नौ महीने (15 फरवरी 2014 को केजरीवाल सरकार ने इस्तीफा दिया और तीन नवंबर 2014 को राष्ट्रपति शासन लगा।) बाद दिल्ली में पहली बार राष्ट्रपति शासन लगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में आप ने देश भर में चुनाव लड़ना तय किया। खुद केजरीवाल नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने बनारस पहुंच गए। आप के ज्यादातर प्रमुख नेता लोकसभा चुनाव लड़े और पराजित हुए। केवल पंजाब में चार सीटें आप जीत पाई। बाद में उनमें से दो सांसद आप से अलग हो गए और 2019 के लोकसभा चुनाव में केवल भगवंत मान चुनाव जीते, वह 2022 में आप की जीत के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री बने।
कांग्रेस की कमजोरी, भाजपा की अधूरी तैयारी और फ्री बिजली-पानी के वादे ने आप को 2015 के चुनाव में रिकॉर्ड 54 फीसद वोटों के साथ 67 सीटों पर जीत दिला दी। उस चुनाव ने कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया, उसे कोई सीट नहीं मिली और वोट औसत भी घटकर 9.7 पर आ गया। 2020 के विधानसभा चुनाव में आप को 70 में से 62 सीटें मिलीं। फिर तो आप ने पंजाब में भी विधानसभा चुनाव जीतकर अपनी सरकार बना ली और अखिल भारतीय पार्टी का दर्जा हासिल कर लिया। यही नहीं, वह जगह-जगह कांग्रेस का विकल्प बनने की कोशिश करने लगी। इसी बीच में भाजपा के खिलाफ विपक्षी गठबंधन बना, जिसमें शामिल होकर आप ने 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ कुछ स्थानों पर समझौता कर लिया। यह गठबंधन पहले हरियाणा चुनाव में टूटा और अब दिल्ली में। इस विधानसभा चुनाव में आप शराब घोटाले में खुद को पाक-साफ होने का दावा करेगी, भाजपा उसे भ्रष्ट साबित करने में जुटेगी, वहीं कांग्रेस दिल्ली में अपनी खोई जगह पाने के लिए भाजपा और आप के खिलाफ मजबूती से चुनाव लड़कर अपना वजूद बचाने का प्रयास करेगी। कांग्रेस अल्पसंख्यक एवं दलित मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए जी-जान से लगी है। उसके तीसरे मूल वोटर पूर्वांचल के प्रवासी हैं, जिनमें उसका समर्थन सबसे कम दिखता है। कांग्रेस के पास आप और भाजपा के मुकाबले कोई बड़ा पूर्वांचली नेता नहीं है। कांग्रेस हर स्तर पर हाथ-पांव मारती नजर आ रही है। देखना यह है कि वह कितना कामयाब हो पाती है। अगर इस चुनाव में उसे कोई सीट न मिली या वोट औसत न बढ़ा, तो उसका दिल्ली में भी वही हाल होगा, जैसा उन राज्यों में हुआ है, जहां किसी तीसरी पार्टी ने मजबूत होकर कांग्रेस का स्थान ले लिया है।
(युगवार्ता से साभार )