कुंभ का माहात्म्य एवं उसका मूलाधार

प्रज्ञा संस्थानपूर्ण: कुंभोऽधि काल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्त:।

स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यड्कालं तमाहु: परमे व्योमन॥ (अथर्ववेद से)

विश्व ब्रह्माण्ड भरा हुआ कुंभ, काल के ऊपर स्थापित है। संत-ज्ञानीजन उस काल को (दिवस-रात्रि आदि) विभिन्न रूपों में देखते हैं। वह काल इन दृश्यमान प्राणियों के सामने प्रकट होकर उन्हें अपने में समाहित कर लेता है। मनीषीगण उस काल को विकारों से रहित आकाश के समान (निर्लेप) बताते हैं। इसी प्रकार अथर्ववेद में प्रजापति ब्रह्मा अपनी अमृतमयी वाणी से संबोधित करते हुए कहते हैं- ‘चतुर: कुंभांश्चतुर्धा ददामि’ अर्थात हे मनुष्यो! मैं तुम्हें लौकिक और पारलौकिक सुखों को प्रदान करने वाले चार कुंभ पर्वों का निर्माण कर चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक) पर पहुंच कर देवोपम अमृत को पाकर अमरत्व का पावन संदेश देता हूं। 

साधारणत: कुंभ का अर्थ घड़े से ही माना जाता है, किन्तु गहनतापूर्वक अवलोकन-अवगाहन करने पर ‘यत्पिंडे तत्ब्रह्माण्डे’ की ओर भी संकेत करता है। मनुष्य के भीतर भी तो परमात्मा ने विराट ब्रह्माण्ड की रचना कर रखी है, जिसे कौशल्या, काकभुसुण्डि, यशोदा और अर्जुन देखकर आश्चर्यचकित हो उठे थे। द्रोपदी के घट-घटवासी को पुकारने और अपनी लाज बचाने के पीछे एक ही रहस्य उजागर होता है कि परमात्मा अन्यत्र कहीं नहीं, अपितु अपने भीतर समाविष्ट आत्मतत्व में ही विराजमान है, जिसका अनुभव होने पर मनुष्य मृत्यु से अमरत्व की ओर अग्रसर होता है। अमृत तत्व भी इसी को कहते हैं। रावण की नाभि में अमृत का होना एक ही संकेत करता है कि बिना उसे निकाले मौत नहीं आ सकती थी। साधना मार्ग में यह स्थान मणिपुर चक्र का है। वैज्ञानिकों की दृष्टि से इसी को ‘सोलर प्लेक्सस’ के नाम से जाना जाता है। अर्थात सविता का दिव्य प्रकाश इसी में आलोकित होता है।

अमरत्व प्राप्ति 

अमृत घट की स्थापना का तात्पर्य अमरता को प्राप्त करना भी कहा जा सकता है। मृत्यु ही तो जीव के लिए सबसे बड़ा भय है। आत्मबोध होना भी एक प्रकार से अमृत तत्व की प्राप्ति ही कहा जा सकता है। देवगण पयस्विनी  का पयपान करके ही तो अमर हो गये। हमारा सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ गीता भी तो यही कहती है कि शरीर मरता है, आत्मा नहीं। फिर भी शरीर के साथ मोह-ममता बनाये रखना व्यक्ति की अज्ञानता ही कही जायेगी। शास्त्रकारों ने देवताओं को अमर बताया है। ‘अमरा निर्जरा देवा:’ का उल्लेख भी है, किन्तु देवगण भी पूर्णतया अमर नहीं हैं। हम मृत्युलोकवासियों की अपेक्षा अधिक दीर्घायुुष्य को प्राप्त अवश्य होते हैं। उनका एक अहोरात्र मनुष्य के एक वर्ष के समान होता है। छह मास का दिन और छह मास की रात्रि होती है। कहने का तात्पर्य है कि सूर्य भगवान जितने समय तक उत्तरायण रहते हैं, उतने ही काल तक देवताओं का दिन रहता है और दक्षिणायन की अवधि में रात्रि। इस काल गणना के अनुसार उनकी आयु भी सौ वर्ष तक मानी गयी है। मनुष्य की तुलना में छत्तीस हजार वर्षों से कुछ अधिक ही मानी जाती है। हमारी दृष्टि में वे अजर-अमर ही प्रतीत होते हैं, क्योंकि इतनी लम्बी अवधि में मानव की सहस्रों पीढ़ियाँ मिट चुकी होती हैं। उदाहरण के लिए मच्छर और पतंगों की दृष्टि में मनुष्य भी एक तरह से अमर ही दिखायी पड़ता है, क्योंकि मनुष्य के जीवनकाल में उनकी भी हजारों की संख्या में पीढ़ियां समाप्त हो चुकी होती हैं। इसलिए देवताओं को भी पूर्णतया अमर कहना कोई तर्कसंगत नहीं है और न शास्त्र सम्मत है। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है कि स्वर्गलोक के भोगों को भोगने और पुण्य क्षीण होने के पश्चात जीव पुन: मृत्युलोक में आता है। इस तरह की मान्यता अमृत के बारे में भी सही-सटीक बैठती है। समुद्र मंथन के समय अमृत कलश को लेकर असुर भागे, तो भगवान ने अपने मोहिनी रूप से मोहित करके किसी भी तरह पृथ्वी के भार को कम किया। भगवती श्रुति में भी ऐसा संकेत है- ‘अपाम सोमममृता अभूम’ अर्थात हमने सोमपान करके अमरता प्राप्त कर ली। गीता में सोमपान से इन्द्रलोक की प्राप्ति का उल्लेख है। वस्तुत: इस तरह के प्रसंग कहीं भी देखने को मिलें उन्हें सापेक्षिक अमरत्व की ही संज्ञा दी जा सकती है, जबकि जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होने का अर्थ कुछ और ही निकलता है। 

सद्गुण ही अमृत

देवगणों की अपेक्षा मनुष्य योनि को श्रेष्ठतम मानने के पीछे एक ही रहस्य छुपा है अमृत तत्व की प्राप्ति का, जिसे पा लेने के पश्चात सदा-सर्वदा के लिए यम की यातनाएँ मिटती और जीवन की सच्चाई सामने आ खड़ी होती है। स्कन्द पुराण में लिखा है- ‘कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन’ यानी कुल उसी का पवित्र माना जाता है, उसी की माता कृतार्थ है और पृथ्वी भी उसी के कारण पुण्यवती कहकर पुकारी जाती है, जो अपने परम ध्येय रूपी अमृत तत्व को प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं, शास्त्रकारों ने इस अमृत स्वरूप घट को पाने के कई उपाय भी सुझाये हैं। आयुर्वेद शास्त्र में आर्युवर्धक होने के कारण घृत को आयुरूप (जीवन रूप) ही बताया है और ‘आयुर्वै घृतम’ कहा गया है। उसी तरह मानवी पुण्य-प्रयोजनों की प्राप्ति हेतु कोई भी किसी तरह का पावन प्रयास अमृतोपम ही कहा जायेगा। कैवल्योपनिषद् में कहा है- ‘न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशु:’ अर्थात न सकाम कर्मों से, न संतति से और न सम्पत्ति से अमृत की प्राप्ति होती है। मात्र त्याग ही काम आता है। कहने का तात्पर्य मानवी सद्गुण ही अमृत की श्रेणी में गिने जाते हैं। 

कठोपनिषद् में निष्काम भाव से किये गये सभी कार्य अमृत की ही तुलना में आते हैं। परमात्म-विषयक ज्ञान की तुलना भी अमृत से की गयी है, क्योंकि परमात्म तत्व को जान लेने के पश्चात व्यक्ति अमर हो जाता है। ईश्वर का नाम भी अमृत सदृश है। भगवान विष्णु का चरणोदक पीने से करोड़ों जन्मों के पापों का क्षय होता है, सो वह भी एक तरह से अमृत ही है। गंगाजल का सेवन भी ऐसा ही है। संस्कृत में प्रसाद शब्द के कई अर्थ निकलते हैं। ईश्वर और महापुरुषों की अनुकम्पा, अनुग्रह और आशीर्वाद भी एक तरह का प्रसाद है। अन्त:करण की पवित्रता और प्रसन्नता को भी प्रसाद के अन्तर्गत गिना जाता है। गीता में कहा भी है-‘प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते’ अर्थात परमात्मा का अनुग्रह रूपी प्रसाद पाकर जीवन के सभी दु:ख दूर होते हैं। नारद भक्ति सूत्र में कहा गया है कि भगवान का अवशिष्ट भाग भी अमृत के समान होता है।

यज्ञीय जीवन 

मनुष्य का यज्ञीय जीवन भी अमृत तुल्य ही माना जाता है। मानव मात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने तथा उज्ज्वल भविष्य की संरचना हेतु कुंभ पर्वों का आयोजन समय-समय पर होता आया है। पौराणिक आख्याओं में कुंभ पर्व की संख्या बारह बतायी गयी है, जिनमें से चार मृत्युलोक और भारत की पुण्य प्रक्षालित भूमि में ये आयोजन समय-समय पर सम्पन्न होते ही रहते हैं। कालगणना की दृष्टि से ऐसे ग्रहयोग बारह वर्ष बाद ही आते हैं। गंगातट हरिद्वार, त्रिवेणी घाट प्रयाग, शिप्रा किनारे उज्जैन और गोदावरी की पावन गोद में नासिक का यह पावन पर्व बारह वर्ष बाद मनाने का विधि-विधान शास्त्र सम्मत भी है और विज्ञान सम्मत भी।

कुंभ का मूलाधार

स्मरण रहे कोई भी धर्मानुुष्ठान नियत अवधि और स्थान विशेष पर करना ही अधिक पुण्यप्रद भी होता है और फलप्रद भी। कालचक्र में सूर्य, चन्द्र और देवगुरु बृहस्पति की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। तीनों का योग ही कुंभ पर्व का मूल आधार है, क्योंकि इस स्थिति में सभी ग्रह मित्रतापूर्ण और श्रेष्ठ माने जाते हैं। उसी तरह जब मानव जीवन में सज्जनों की संगति का योग बैठता है, तभी सद्चिन्तन का प्राकट्य होने लगता है। अखिल विश्व गायत्री परिवार के जनक, युग निर्माण योजना के सूत्र संचालक, संस्थापक वेदमूर्ति तपोनिष्ठ युगद्रष्टा पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने तो प्रज्ञोपनिषद में संसार की मूलभूत समस्याओं का मुख्य कारण अचिन्त्य-चिन्तन ही बताया है। उनके द्वारा संचालित विचार क्रान्ति अभियान का एक ही एक लक्ष्य है कि जनजीवन में सद्चिन्तन और सत्कर्म का विकास-विस्तार हो। इसी को गायत्री-यज्ञ के स्वरूप में देखा जाता है। देव संस्कृति के यही दो आधार हैं। युग परिवर्तन की इस पावन वेला में जन-जन को इस युग्म का अमृतपान कराना ही महाकाल के अभियान का शुभारंभ होगा, जो गंगा, यमुना-सरस्वती के प्रयागराज स्थित पवित्र त्रिवेणी संगम से ही प्रारम्भ होता प्रतीत हो रहा है। 

 (युगवार्ता से साभार)

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