हमारे ऋषि गणों ने आधुनिक विश्व के कथित वैज्ञानिक ज्ञान से हजारों वर्ष पूर्व बृहस्पति की गति के आधार पर सुनिश्चित कर अपने ‘अर्जन’ की सामर्थ्य का परिचय दे दिया है। उन्होंने निर्धारित कर दिया है कि जब सूर्य मेष राशि में हो तथा बृहस्पति कुंभ में तो ‘हरिद्वार’, जब सूर्य मकर राशि में हो तथा बृहस्पति वृषभ में तो ‘प्रयागराज’, यदि सूर्य व बृहस्पति दोनों ही वृश्चिक राशि में हों तो ‘उज्जैन’ और सूर्य व बृहस्पति दोनों के सिंह राशि में होने पर ‘नासिक’ में इस ज्ञान घट के अर्जित कुंभ का विसर्जन किया जाए।
भारत में ‘कुंभ’पर्व के आरंभ होने के कारण से संबंधित चर्चित कथा है, ‘देवों और दानवों द्वारा ‘मंदराचल’पर्वत की मथनी और ‘वासुकि नाग’को रस्सी का उपयोग कर ‘संयुक्त रूप’ से ‘समुद्रमंथन’ किया गया। इस मंथन के परिणामस्वरूप 14 रत्न प्राप्त हुए। इनमें लक्ष्मी, सुरा, कौस्तुभ मणि, शार्ग शंख, उच्चैश्रवा (घोड़ा), कामधेनु (गाय), रम्भ (अप्सरा), ऐरावत (हाथी), कल्पवृक्ष, चन्द्रमा व धन्वन्तरि के वितरण में कोई समस्या नहीं आई। लेकिन दो रत्नों- ‘विष’ और ‘अमृत’ के वितरण में समस्या उत्पन्न हो गई।
इन रत्नों में किसी भी पक्ष द्वारा ग्रहण न किये जाने वाले ‘विष’ को भगवान ‘शिव’ ने स्वीकार कर देव-दानव दोनों की इस समस्या का आंशिक समाधान किया गया। लेकिन ‘अमृत’ का वितरण देव-दानवों में पुन: संघर्ष का कारण बन गया।
देवगण अमृत ग्रहण के परिणामस्वरूप मिलने वाला ‘अमरत्व’ दानवों को देना ही नहीं चाहते थे। अत: उन्होंने इसे एक ‘कुंभ’ (घड़ा) में भरकर गति के लिए प्रसिद्ध गरूण के पुत्र ‘जयंत’ को सौंपकर, उसे वहां से भगा दिया। इसकी जानकारी मिलते ही दानवों ने उसे रोकने का प्रयास किया। कथा के अनुसार, भागते जयंत को रोकने के लिए दानवों द्वारा किये प्रयासों के फलस्वरूप छिड़े संघर्ष में ‘अमृतकुंभ’ से छलकी 12 बूदों में से 4 पृथ्वी के जिन स्थलों पर गिरीं। वहां उस अमृतबूंद का लाभ पाने के लिए कुंभ पर्व आयोजित किये जाने लगे। ये स्थल हैं- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन व नासिक।
लेकिन क्या ‘कुंभपर्व’ की हजारों-हजार वर्ष की परंपरा बस इसी कथा के कारण है? क्या इस पर्व का कोई खगोलीय, ज्योतिषीय और आध्यात्मिक आधार नहीं है? क्या यह परंपरा हमारी ‘सांस्कृतिक चेतना’ को सनातनता नहीं देती? और क्या यह परंपरा हमारी ‘आर्थिक गतिविधियो’ को गति नहीं देती? ऐसे ही अनेक प्रश्नों के उत्तर अभी अनुसंधान के लिए प्रतीक्षित हैं।
यहां एक अन्य प्रश्न है। क्या कुंभ पर्व की यह प्रचलित कथा मात्र कुंभ की कथा है? क्या यह हमारे-आपके जीवन-चक्र की भी कथा नहीं? सृष्टि पर जन्म लेते ही ‘शिशु’ की प्रथम आवश्यकता अपने जीवनचक्र को बचाए रखने के लिए उपयोगी तत्वों के ‘अर्जन’ तथा अनावश्यक या कहें उपभोग के पश्चात अनुपयोगी बने तत्वों के ‘विसर्जन’ की ही होती है। बालपन में तो उसकी दोनों अनिवार्यताओं की पूर्ति उसके अभिभावकों द्वारा कर दी जाती है। लेकिन उसके ‘सांसारिक कर्मक्षेत्र’ में प्रवेश करते ही उसे अपना ‘यात्रापथ’ स्वयं निर्मित करना होता है।
अपनी इस जीवन यात्रा में व्यक्ति की अच्छाइयों का ‘दैवपक्ष’ और बुराइयों का ‘दानवपक्ष’ दोनों ही मिलकर उसकी ‘ इच्छा व आकांक्षाओं’ के गहन सागर में ‘दृढ़ता’ के मंदराचल की मथनी बना, ‘दुस्साहसपूर्ण साहस’ के वासुकि की रस्सी से ‘संभावनाओं’ के गहरे समुद्र का मंथन करता है। इस मंथन से जो रत्न पाते हैं, उनमें धन की प्राप्ति (लक्ष्मी), धन प्राप्ति के उपरान्त आने वाले कुटैव और मद (सुरा), प्राप्त संपदा (कौस्तुभ मणि) के स्वामी (धनाढ्य) के रूप में होने वाला सामाजिक प्रचार (शार्ग शंख), धन के बल पर संसार जीतने की कामना व विलासिता की वस्तुओं के संग्रहण की प्रवृत्ति का ‘उच्चैश्रवा’, दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया गया प्रबंधन (कामधेनु) आदि का समुचित प्रबंध कर लेने के बाद कामनाएं विकारों की ‘रम्भाओं’ की ओर ही भागती हैं।
इन सब उपलब्धियों के बावजूद अतृप्त कामनाएं जब इच्छित व अभीप्सित की प्राप्ति में असफल रहती हैं तो व्यक्ति मनोविकार से लेकर शारीरिक व्याधियों तक का शिकार होने लगता है। यहां भी वह प्रथम अपनी कामनाओं के ‘कल्पवृक्ष’ से ही चंद्र की शीतलता पाने के लिए प्रयास करता है। लेकिन असफल होकर अंतत: उसे किसी धन्वन्तरि की शरण में जाना पड़ता है। सामान्य व्यक्ति का जीवन संसार के इन्हीं ‘विष’ और ‘अमृत’ के मध्य खपता, अपने जीवन की लीलाओं को चिरविश्राम दे पुन: अनंत में समा जाता है।
कुछ भाग्यशाली ऐसे भी होते हैं, जो 14 में से 12 रत्नों की प्राप्ति के बाद भी आगे बढ़ना जारी रखते हैं। इन्हें भी इस मंथन से प्राप्त दो रत्नों का उपयोग करने के लिए उचित मार्ग की आवश्यकता होती है। इन रत्नों में प्रथम ‘अमृत रूपी सफलताओं’ का है तो दूसरा ‘विष’ प्रतीत होने वाली असफलताओं का। व्यक्ति को सदैव ‘अमृत’ के रक्षण की लालसा रहती है, जबकि ‘विष’ को परिस्थितियों, प्रारब्ध, भाग्य या ऐसे ही किसी ‘पार्थिव शिव’ के गले मढ़ने की। परिणामस्वरूप वह अपनी सफलताओं, अपनी उपलब्धियों के ‘अमृतकुंभ’, अपने अर्जन के प्रतिफल का मुक्त हस्त लाभ पाने के लिए अपने जीवन पर्यन्त ‘जयंत’ के समान ‘अमृतकुंभ’ के रक्षण के लिए भागता फिरता है। उसके स्वभाव का ‘दैवपक्ष’ उसे इस अमृत के सुप्रयोग का परामर्श देता है, जबकि ‘दानवपक्ष’ उन्मुक्त भोग का। बेचारे को जीवन भर खपना पड़ता है, दोनों के संघर्षों में। इस मध्य भरपूर प्रयास करने के बावजूद अमृत की कुछ बूंदें छलक ही जाती हैं, समुचित उपयोग के अभाव में।
लेकिन अंत में! व्यक्ति द्वारा अपना सम्पूर्ण जीवन अपनी उपलब्धियों के ‘अमृत’ के रक्षण में व्यतीत कर देने के प्रयास भी उसे ‘अमरत्व’ नहीं देते। यथाशक्ति प्रयासों के बाद भी उसे लौटना ही होता है। अपने समस्त ‘अर्जन’ का ‘विसर्जन’ कर उस अनंत की ओर, जो उसकी इस सांसारिक यात्रा का आरंभिक बिंदु भी था।
‘शून्य से ‘शून्य’ तक की इस यात्रा के मध्य हमारे ‘अर्जन’ को ‘अमरत्व’ में बदलने के अनेक अवसर भी आते हैं, लेकिन ‘मोहान्ध मन’ न तो उन अवसरों का उपयोग करने को तैयार होता है, न ‘उस मार्ग’ से अमरत्व पाने के प्रयासों को ही करता है। ऐसे में उसे आवश्यकता होती है, मोह-माया के सांसारिक जीवन का त्याग कर चुके ऋषि, मुनि, आचार्य, संन्यासियों की। जो अपनी साधना से अर्जित ज्ञान का विसर्जन करने इन पर्वों पर उपस्थित रहते हैं। ये ‘व्यक्ति’ नामक इकाई को बताने में समर्थ हैं कि इस सृष्टि में सात (अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम/ एक अन्य मान्यतानुसार मार्केण्डेय सहित आठ) के अतिरिक्त ‘अमरत्व’ तो भगवान राम व योगेश्वर कृष्ण जैसे ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ अंशों को भी नहीं मिला है। ऐसे में पुराणोक्त अमरत्व प्राप्ति का सही मर्म क्या है और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है?
यह ज्ञानसत्र न तो नियमित होना संभव है, न उचित। इसलिए ऋषि गणों ने आधुनिक विश्व के कथित वैज्ञानिक ज्ञान से हजारों वर्ष पूर्व बृहस्पति की गति (बृहस्पति का 12 राशियों में विभाजित खगोल जगत का एक राशि से चलकर पुन: उसी राशि में लौटने का परिक्रमा चक्र 12 वर्ष में पूर्ण होता है) के आधार पर सुनिश्चित कर अपने ‘अर्जन’ की सामर्थ्य का परिचय तो दिया ही है, स्थायी रूप से निर्धारित कर दिया है कि जब सूर्य मेष राशि में हो तथा बृहस्पति कुंभ में तो ‘हरिद्वार’, जब सूर्य मकर राशि में हो तथा बृहस्पति वृषभ में तो ‘प्रयागराज’, यदि सूर्य व बृहस्पति दोनों ही वृश्चिक राशि में हों तो ‘उज्जैन’ तथा सूर्य व बृहस्पति दोनों के सिंह राशि में होने पर ‘नासिक’ में इस ज्ञानघट के अर्जित कुंभ का विसर्जन किया जाए। अब यह आपकी श्रद्धा है कि ऋषियों, संन्यासियों द्वारा विसर्जित की जा रही इन ‘अमृत-बूंदों से कितना पुण्यलाभ’ लेकर अपने अर्जन के ‘अमृत’ का समुचित व धर्ममय पान कर वास्तविक ‘अमरत्व’ को पा सकें।
सृष्टि पर जन्म लेते ही ‘शिशु’ की प्रथम आवश्यकता अपने जीवन चक्र को बचाए रखने के लिए उपयोगी तत्वों के ‘अर्जन’ तथा अनावश्यक या कहें उपभोग के पश्चात अनुपयोगी बने तत्वों के ‘विसर्जन’ की ही होती है।
(युगवार्ता से साभार)