महाकुंभ पर्व न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, अपितु सारी सृष्टि व जीवन के संरक्षण एवं संवर्धन के वे आदर्श प्रतिमान हैं, जो अपने शुद्ध सात्विक रूप में बड़े ही लोकोपकारी हैं और सर्वजनहिताय-सर्वजनसुखाय की भावना को जागृत करने वाले हैं।
भारतीय संस्कृति सृष्टि व जीवन के ज्योतिर्मय स्वरूप को समृद्धि के साथ जीने की कला से हमारा परिचय कराकर हमें पूर्णभाव में प्रतिष्ठित होने का अवसर प्रदान करती है। जीवन को ज्योतिर्मय बनाकर जीने का विधान इस महान संस्कृति के मूल आधार वेद, पुराण आदि शास्त्रों में बड़े विस्तार के साथ वर्णित हुआ है। इसके अनुसार मनुष्य का जीवन केवल इस पृथ्वी लोक तक ही सीमित न होकर इसके आगे भी देवलोक की विशाल परिधि के साथ जुड़ा हुआ है और व्यवहृत होता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन की इस ज्योतिर्मय समग्र सत्ता से परिचय कराते हुए उपदेश दिया है कि मनुष्य अपने बुद्धिबल के वैभव के कारण सृष्टि के समस्त प्राणियों में सर्वोच्च जीव के रूप में प्रतिष्ठित है। अत: उसका यह दायित्व बनता है कि वह शास्त्रों में विहित उपायों के माध्यम से देवलोक तक अपने व्यवहार का विस्तार करते हुए अपने तथा अन्य सभी प्राणियों के संरक्षण व संवर्धन का मार्ग प्रशस्त करे और बाधक तत्वों का विनाश करे। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि सृष्टिकर्ता प्रजापति ने मनुष्य आदि की सृष्टि के साथ यज्ञ, दान, तप आदि दिव्य उपायों की भी सृष्टि की और कहा कि मनुष्य इन उपायों के द्वारा अपने में सद्गुणों का विकास करे और सुख समृद्धि को प्राप्त करे।
यथा- देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।।
‘गीता 3 11’
शास्त्रों में अपने कर्तव्यरूप कर्म को पूर्ण निष्ठा के साथ सम्पन्न करने की प्रवृत्ति को सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ के रूप में परिभाषित किया गया है। इसके साथ अन्य प्रकार के यज्ञ, जप, विहित हुआ हैं। उपर्युक्त यज्ञादि उपाय दो प्रकार के हैं, पहला व्यक्तिगत तथा दूसरा सामूहिक। ये दोनों प्रकार के उपाय देश काल तथा पात्र की शुभ युति ‘योग’ के साथ जब सम्पन्न किए जाते हैं, तब ये विशेष रूप से देव तत्व की सृष्टि करते है। यहां देश से तात्पर्य है तीर्थ आदि पवित्र स्थान, काल से तात्पर्य है अमावस्या, पूर्णिमा आदि पर्व के शुभ मुहूर्त्त तथा पात्र से तात्पर्य है शरीर व मन आदि की अन्त: बाह्य रूप शुचिता। जीवन में देशकाल पात्र का यह त्रित्व ही सफल जीवन की कुन्जी माना गया है।
यहां पर यह विशेष रूप से ध्यान देने की बात है कि अमावस्या, पूर्णिमा तथा अन्य शुभ दिन, तिथि आदि के मुहूर्त को पर्व इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये सारी तिथियां व दिन संवत्सर रूप पूर्णकाल के अवयव ‘खण्ड’ है। और इन खण्डों की संधि ‘जोड़’ उन दरवाजों की तरह है, जहां से ईश्वरीय दिव्य शक्ति का विशेष रूप से संचार पृथ्वी आदि स्थानों पर होता है। सारांश में ‘पर्व’ शक्त संस्कृत के पृपालनपूरणयो: धातु से निष्पन्न होने के कारण ‘ईश्वरीय शक्ति के संचार का द्वार खण्ड’ अर्थ वाला है। कुंभ सामूहिक रूप से देवतत्व को आत्मसात कराने का एक अति विशिष्ट महाअनुष्ठान है। इसका सम्बन्ध उपर्युक्त देशकाल, पात्र, नायक त्रित्व के अन्तिम अंश ‘पात्र’ के साथ मुख्य रूप से विनियुक्त हुआ है। वस्तुत: ‘कुंभ’ शब्द का मूल अर्थ है ग्रह पात्र। अर्थात अमृत रूप देवतत्व को ग्रहण ‘धारण’ करने की क्षमता सम्पन्न घट ‘वर्तन’ या कलश।
कुंभ पर्व का यह विशेष विधान पृथ्वी लोक के देश काल पात्रगत त्रित्व की शुभ युति के समान ही देवलोक में चन्द्र सूर्य व वृहस्पति ग्रहों के दुर्लभ योग के बनने पर ही सम्भव हो पाता है। यह दुर्लभ योग अपने पूर्ण देवत्व भाव के साथ सामान्यतया प्रत्येक बारह वर्ष के अन्तराल पर घटित होता है। इस क्रम में वृहस्पति जब वृष राशि तथा सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में संचरण करते हैं, तब तीर्थराज प्रयाग में महाकुंभ होता है। जब वृहस्पति कुंभ राशि और सूर्य, चन्द्र मेष राशि में हो तो हरिद्वार में, वृहस्पति वृश्चिक राशि और सूर्य, चन्द्र मेष राशि में हों तो उज्जैन में तथा वृहस्पति, सूर्य और चन्द्रमा की सिंह राशि में स्थिति होने पर नासिक में, यह महापर्व सम्पन्न होता है। इसी प्रकार से वृहस्पति के उपर्युक्त राशियों के समीपस्थ होने पर अर्धकुंभ का योग प्रत्येक छह वर्ष के अन्तराल पर उन तीर्थों में सम्पन्न होता है।
कुंभ का अधिदैविक रहस्य पृथ्वी मंथन
भौतिक जगत के लोक व्यवहार में कुंभ या महाकुंभ के अवसर पर जो धार्मिक अनुष्ठान प्रयाग आदि तीर्थ में जाकर यज्ञ, तप, दान व पवित्र नदी में स्नान आदि के रूप में सम्पन्न वैज्ञानिक एवं मानवोचित व्यवहार की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रकार से देवलोक में देवत्व की प्रतिष्ठा और इसके अधिकाधिक रूप में संवर्धन के उद्देश्य से निरूपित हुआ है, उसी प्रकार से पृथ्वी मन्थन का सांकेतिक आख्यान मनुष्य लोक ‘पृथ्वी लोक’ में मनुष्यत्व ‘मानवता’ के उदात्त गुणों की प्रतिष्ठा और इसके अधिकाधिक संवर्धन के उद्देश्य से विहित हुआ है।
यह आख्यान श्रीमद्भागवतमहापुराण के चतुर्थ स्कन्ध में निम्नलिखित रूप में वर्णित हुआ है। यथा- सृष्टिकर्ता प्रजापति द्वारा प्रवर्तित कल्प, कल्पान्तर की सृष्टि परम्परा में राजा पृथु एक महाप्रतापी भूशासक के रूप में प्रतिष्ठित थे। उनके सत्यनिष्ठ आचरण के तेजोबल से देवलोक तक उनका यशोगान फैला था। उनके इस सुशासन के बाद भी पृथ्वी से उन्हें तथा प्रजा को अनुकूल उजार्युक्त अन्न आदि की उपज प्राप्त नहीं हो रही थी। इस पर उन्होंने क्रोध करते हुए पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी पर, दण्ड देने हेतु, दिव्य बाण का सन्धान कर दिया। पृथ्वी देवी डरते हुए उनके सामने आई और याचना करते हुए बोली कि ऊर्जा से भरपूर अन्न आदि न देने में उसका कोई अपराध नहीं है। इसके पीछे कारण है लोगों का मनमाने ढंग से पृथ्वी का दोहन करना और इसके बदले में पुष्टि के लिए आवश्यक उपाय न करना, जिससे वह शुष्क ऊर्जाशक्ति रहित सी हो गई है। इस गम्भीर समस्या के समाधान के लिए समुचित उपाय किए जाएं और फिर वृहस्पति ‘बुद्धि विवेक’ को वत्स ‘बछड़ा’ बनाकर गौरूपी पृथ्वी का अनुकूल मात्रा में दुग्ध रूप अन्नादि का दोहन किया जाए, तो राजा पृथु ने इसके औचित्व को महत्व देते हुए पृथ्वी की उत्पादन क्षमता विकसित व पुष्ट करने हेतु लौकिक व दैवीय दोनों प्रकार के विधान किए और सभी को इसको अनुपालन हेतु विशेष रूप से प्रेरित भी किया।
इस विधि विधान के सम्पन्न होने पर हृष्ट-पुष्ट पृथ्वी अपनी अमृतमयी ऊर्जा पुन: प्रदान करने में समर्थ हुई और सभी को कुंभ विधि से मन्थन करते हुए इसे प्राप्त करने का सुयोग प्रदान किया। कुंभ विधि शरीर, इन्द्रिय, मन आदि की शुचिता की विधि है। यह शुचिता ही ज्योतिर्मय जीवन की आधार शिला है। इसका सीधा संबंध सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा सम्पादित कर्तव्यरूप कर्म की निष्ठा से तथा विशेषरूप से यज्ञ, दान, तप आदि के विविध सम्पादन से जुड़ा हुआ है। इस ईश्वरीय संविधान से अनुशासन से प्रतिबद्ध व्यक्ति जगत व जीवन के उदात्त संरक्षण एवं संवर्धन को स्वत: प्रशस्त करता रहता है। इसी क्रम में विशेष रूप से उपर्युक्त शुभ ग्रहों की युति होने पर विहित तीर्थों में महाअनुष्ठान (पृथ्वी मन्थन) सम्पन्न करने हेतु व्यक्तियों की सामूहिक उपस्थिति महाकुंभ आदि के स्वरूप को मूर्तिमान कर देती है। इसमें एक ओर जहां ऋषि, मुनि, साधक, सन्त और सामान्य जन मिलकर कल्पवास, योग, जप, दान, तप आदि के कठोर व्रत से शुचिता को धनीभूत करते हुए स्वयं को शुचितापूर्ण पात्र (कुंभ) के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं, वहीं दूसरी ओर पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी अन्य देवगणों के अमृतमय देवत्व के साथ इस सचेतन कुंभ को, आगे बढ़कर, दिव्य ऊर्जा से परिपूर्ण कर देती है। पृथ्वी मन्थन रूप इस महाअनुष्ठान में सभी अभीष्ट फल के भागी बनते हैं। (भागवत पुराण.4.18)
इस प्रकार से हम देखते हैं कि महाकुंभ आदि पर्व न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान के स्वरूप हैं, अपितु सारी सृष्टि व जीवन के संरक्षण एवं संवर्धन के वे आदर्श प्रतिमान हैं, जो अपने शुद्ध सात्विक रूप में बड़े ही लोकोपकारी हैं और सर्वजनहिताय-सर्वजनसुखाय की भावना को जागृत रखने के ज्योतिर्मय सोपान हैं।
कुंभ विधि , शरीर इन्द्रिय, मन आदि की शुचिता की विधि है। यह शुचिता ही ज्योतिर्मय जीवन की आधार शिला है। इसका सीधा संबंध सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा सम्पादित यज्ञ, दान, तप आदि के विविध सम्पादन से जुड़ा हुआ है।
(युगवार्ता से साभार)