जहां की रज के कण-कण को स्वयं देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त है, जहां गंगा-यमुना एवं सरस्वती की पवित्र त्रिवेणी हर किसी के लिए मोक्ष का माध्यम बनती है, उस धरती यानी प्रयाग को देश और दुनिया तीर्थराज के नाम से जानती है।सनातन संस्कृति को विश्व की सबसे प्राचीन जीवंत संस्कृति के रूप में जाना जाता है। इसके प्राचीनतम नगरों में तीर्थराज प्रयागराज का स्थान सर्वोपरि है। सप्तपुरियों को इनकी रानी माना गया है। प्रयागराज को तीर्थराज मानने का प्रमुख कारण यहां पवित्रतम मां गंगा, यमुना एवं सरस्वती आदि नदियों का संगम होना और स्वयं सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का प्रथम यज्ञ करना माना जाता है। इस प्राकृष्ट यज्ञ के कारण ही त्रिवेणी संगम का यह क्षेत्र प्रयाग के नाम से जाना जाता है।
प्रथम दशाश्वमेध यज्ञ
प्रयागराज का वर्णन सनातन संस्कृति के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में चंद्रवंशी राजा इला की राजधानी के रूप में मिलता है। प्रयाग क्षेत्र की महिमा का गान रामायण व महाभारत से लेकर पद्म पुराण, स्कंद पुराण, मत्स्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण एवं कई महान शासकों की गाथाओं में मिलता है। पद्म पुराण की कथा के अनुसार, भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के बाद गंगा तट पर सृष्टि का प्रथम यज्ञ किया था। सृष्टि की प्रथम यज्ञस्थली होने के कारण गंगा का यह पुण्य क्षेत्र प्रयाग कहलाया। पौराणिक कथा के अनुसार, ब्रह्मा जी ने गंगा तट पर दस अश्वमेध यज्ञ किए थे, इसलिए गंगा जी का यह घाट दशाश्वमेध घाट के नाम से जाना जाता है। इस तट पर स्वयं ब्रह्म जी ने ब्रह्मेश्वर शिवलिंग की स्थापना की थी। पद्म पुराण की कथा के अनुसार, ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना के बाद गंगा तट पर ऋत्विज के तौर वैदिक मंत्रों से दस अश्वमेध यज्ञ किए, जिसमें स्वयं भगवान विष्णु यजमान थे और यज्ञ की हवि भगवान शिव को अर्पित की जा रही थी। यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान विष्णु के माधव रूप से बारह माधव उत्पन्न हुए, जो पूरे यज्ञ क्षेत्र के चारों ओर द्वादशमाधव के रूप में स्थापित हैं। सृष्टि के इस प्रथम, प्राकृष्ट यज्ञ के कारण ही यह क्षेत्र प्रयाग के नाम से जाना गया। सनातन आस्था का प्रथम तीर्थ होने के कारण ही प्रयागराज को तीर्थराज कहा गया।
ब्रह्मेश्वर महादेव
गंगा जी के इसी तट पर ब्रह्मा जी ने ब्रह्मेश्वर शिवलिंग की स्थापना कर उसकी पूजा-अर्चना की थी। पौराणिक मान्यता के अनुसार, इस शिवलिंग के दर्शन-पूजन से तात्कालिक फल की प्राप्ति होती है। यह शिवलिंग आज भी प्रयागराज के दारागंज में दशाश्वमेध मंदिर में स्थापित है। दशाश्वमेध मंदिर के पुजारी विमल गिरी ने बताया कि यह देश का एकमात्र ऐसा शिव मंदिर है, जहां एक साथ दो शिवलिंगों का पूजन होता है। उन्होंने बताया कि मुगल आक्रान्ता औरंगजेब ने इस मंदिर को नष्ट करने का प्रयास किया था। जनश्रुति के अनुसार, उसकी तलवार के प्रहार से शिवलिंग से एक साथ दूध और रक्त की धार निकलने लगी थी, जिसे देखकर वह हतप्रभ रह गया और मंदिर को किसी तरह का नुकसान पहुंचाए बिना वापस लौट गया। शिवलिंग के खंडित हो जाने के कारण मंदिर में दशाश्वेवर शिवलिंग की भी स्थापना की गई। लेकिन, ब्रह्मा जी द्वारा स्वयं स्थापित किए जाने की मान्यता और ब्रह्मेश्वर शिवलिंग की चमत्कारिक शक्ति के कारण उन्हें मंदिर से हटाया नहीं गया। तबसे दशाश्वमेध मंदिर में एक साथ दो शिवलिंगों का पूजन होता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, ब्रह्मेश्वर शिवलिंग के पूजन से तत्क्षण फल की प्राप्ति होती है। सृष्टि की प्रथम यज्ञस्थली होने के कारण यहां किए गए यज्ञ और तप भी शीघ्र फलदायी होते हैं। गिरी ने बताया कि मार्कण्डेय ऋषि के कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने भी यहां दस अश्वमेध यज्ञ किए थे और महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त की थी।
ब्रह्मलोक की प्राप्ति
लोक चर्चा के अनुसार, प्राचीन काल में दशाश्वमेध घाट पर ब्रह्मकुण्ड भी था, जो समय के साथ-साथ विलुप्त हो गया है। मान्यता है कि इस कुण्ड का निर्माण भी ब्रह्मा जी ने किया था, जिसके जल से शिव जी का अभिषेक करने से व्यक्ति त्रिविधिक तापों से मुक्त हो जाता था। प्रयाग क्षेत्र में मुण्डन और केशदान करना पुण्य फलदायी माना जाता है। मान्यता है कि प्रयाग में गंगा स्नान के बाद ब्रह्मेश्वर शिवलिंग के पूजन से मृत्यु के बाद ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
( युगवार्ता से साभार )