भारत की शक्ति उसका अध्यात्म है। प्रगाढ़ आध्यात्मिकता के कारण ही भारत की सभ्यता एवं संस्कृति अनेक हमलों के बाद भी नष्ट नहीं हुई। हमारे पूर्वज ऋषियों, मुनियों एवं महापुरुषों ने त्याग, तपस्या, नि:स्वार्थ सेवा, ध्यान, जप आदि के जरिये आत्मोन्नति के सरल साधन निश्चित किये थे और अपनी सारी ऊर्जा सांस्कृतिक उन्नति में लगा दी थी। दुनिया की सबसे बड़ी तम्बुओं की नगरी है अलौकिक कुंभ नगरी, जहां हवन और चूल्हे का धुआं साथ-साथ उठता है तथा मिलकर आसमान में एक अतरंगी सांस्कृतिक-सामाजिक इंद्रधनुष बनाता है। सन 644 ई. में महाराजा हर्षवर्धन ने बौद्ध भिक्षुओं एवं वैदिक संतों को सारा राजकोष वितरण करने की प्रथा चलाई, तभी से कुंभ महोत्सव प्रारंभ हुआ।
अखाड़ा, संन्यासी संप्रदाय, दशनामी परंपरा
श्रीकृष्ण की प्रेरणा से वेदांत दर्शन के संस्थापक महर्षि वेदव्यास के बाद उनके पुत्र शुकदेव ने संन्यासियों की परंपरा शुरू की थी। पहले सभी संन्यासी और वनवासी हिमालय में रहते थे। इसके अलावा उनके सप्तपुरियों में नदी के किनारे आश्रम होते थे, जहां आस-पास जंगल होता था। आक्रमणकारियों और भारत के बिखराव के बाद मध्य काल में शंकराचार्य ने नये प्राण फूंके। उनके बाद क्रमश: गुरु मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्ष नाथ ने शैव परंपरा को नया रूप दिया। उनके कारण नवनाथ की परंपरा का जन्म हुआ। शंकराचार्य ने अपना ध्यान संन्यास आश्रम पर केंद्रित किया। समूचे देश में दशनामी संन्यास परंपरा और अखाड़ों की नींव रखी गई। काशी के महान विद्वान मण्डन मिश्र के साथ शंकराचार्य का शास्त्रार्थ ही संन्यसियों की परंपरा को पुन: स्थापित करने की महत्वपूर्ण कड़ी था। इस शास्त्रार्थ ने उन्हें समूचे देश में धर्मदिग्विजयी के रूप में स्थापित कर दिया था। दक्षिण में शृंगेरी, पूर्व में पुरी, पश्चिम में द्वारका और उत्तर में बद्रीनाथ में मठ स्थापित हुए तथा दशनामियों के दो कार्यक्षेत्र (कर्तव्य) निश्चित किये गए।
पहला, शास्त्र प्रवीण होने से धर्म परंपरा भूले समाज को दिशा मिले और दूसरा शस्त्र है, ताकि विदेशी आक्रमणकारियों से देश की रक्षा हो सके। ऐसा करने से शंकराचार्य जी के सुधारवाद का तत्कालीन समाज में खूब विरोध हुआ और साधु समाज को उग्र व हिंसक सांप्रदायिक विरोध से जूझना पड़ा। फिर वनवासी समाज को दशनामी से जोड़ा गया, जिससे उग्र विरोध का सामना न हो। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई। (वन व अरण्य) नामधारी संन्यासी ओडिशा के जगन्नाथ स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए। मठ, आश्रम व मन्दिरों के साथ अखाड़ा परंपरा भी लगभग इनकी स्थापना के समय से जुड़ी है। पीठों की देश भर में उपपीठ, फिर शाखाएं-प्रशाखाएं बनीं। वहीं धुनि, मदी अखाड़े जैसी व्यवस्थाएं बनीं, जिनके जरिये पोथी, शस्त्र विद्या और आमजन को आत्मरक्षा के लिए सामरिक कलाएं भी सिखाई जाती थीं। अपनी धर्म ध्वजा ऊंची रखने और विधर्मियों से अपने धर्म, धर्मस्थल, धर्मग्रन्थ, धर्म संस्कृति और धार्मिक परंपराओं की रक्षा के लिए ही संतों की सेना का गठन हुआ था, जिसे हम अखाड़ों के रूप में जानते हैं।
अखाड़ा शब्द के मूल में अखंड शब्द
अखाड़ा शब्द के मूल में अखंड शब्द है। कालांतर में अखंड का देशज रूप अखाड़ा हुआ और इनकी शुरुआत 14वीं सदी से मानी जाती है। वर्ष 1310 के महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णव के बीच हुए झगड़े ने खूनी संघर्ष का रूप ले लिया था। वर्ष 1398 के अर्धकुंभ में तैमूर लंग के आक्रमण से कई जानें गईं। इसी प्रकार वर्ष 1760 और 1796 में भी आपस में लड़ाइयां हुईं।
अखाड़ा परिषद का गठन
1954 में मची भगदड़ के बाद विभिन्न धार्मिक समागमों और खासकर, कुंभ मेलों के अवसर पर साधु-संतों के झगड़ों और टकरावों से बचने के लिए इसकी स्थापना की गई। यह सरकार से मान्यता प्राप्त है। कुंभ के इस अलौकिक पर्व पर बड़ी संख्या में जनता एकत्र होती है और सभी संप्रदाय के संत चिंतन करते हैं। इस महोत्सव में धर्मनीति, राजनीति, अर्थनीति का वृहद समग्र सांस्कृतिक विकास होता है, जैसे 2013 के कुंभ मेले के दौरान साढ़े छह लाख रोजगारों का सृजन होना, 12 हजार करोड़ रुपये की आय और 10 करोड़ से ज्यादा लोगों का मेले में पहुंचना आदि। पूंजी के विकेन्द्रीकरण की दृष्टि से भी आयोजन निर्माण में कुंभ की संस्कृति हमारी एकता को मजबूत बनाती है। यह विभिन्न भाषा-भाषी लोगों को जोड़ती है। विभिन्न रीति-रिवाजों और विभिन्न रहन-सहन वालों का मिलाप कराती है। गंगा भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं आध्यात्मिकता का गतिमान इतिहास भी है। अखाड़े, इस पर्व पर देश के कोने-कोने से आए साधु-संतों एवं संन्यासियों का आपस में मिलना, तदोपरांत विभिन्न धर्मों, जातियों एवं संप्रदायों का साथ रहना आदि एकता के सूत्र में बांधने का कार्य करते हैं। कुंभ दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला है। 2013 के प्रयागराज कुंभ में श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा की महिला विंग, जो माईबाड़ा कहलाती थी, उसका नाम बदल कर संन्यासिनी जूना अखाड़ा रखा गया, जिसमें मुख्य भूमिका लखनऊ के मनकामेश्वर मठ मन्दिर की थी। ऐसे सैकड़ों कार्य हर महाकुंभ में किये जाते हैं, जो समाज की आधी आबादी के सशक्तिकरण का कारण बनते हैं।
तरीके सिखाते हैं धार्मिक केंद्र
साधु-संतों के अखाड़ों और मठों को वर्तमान संदर्भ में आध्यात्मिक संसद इसलिए कहा गया है, क्योंकि भारत के कोने-कोने में स्थापित मन्दिर कहीं न कहीं किसी अखाड़े से संबद्ध होते हैं और उनका कुंभ क्षेत्र में प्रतिभाग आवश्यक होता है। वहीं से मनुष्य जीवन के आवश्यक तत्व और भाव-विचार के लिए संविधान बनाए जाते हैं। विधि पूर्वक जीने के तौर-तरीकों को चतुर्दिक विस्तार देने के लिए इन मठों व धार्मिक केन्द्रों की आवश्यकता है। सामूहिक पूजा-पाठ की विधि इसलिए बनाई गई। विविध पर्वों पर समाज में समरसता के लिए सामूहिक स्नान और भोज आहूत होते हैं। असक्षम को मदद के लिए दान आदि का विधान भी इसलिए बनाया गया। मनुष्य का शरीर भी कुंभ (घर) जैसा है। इस शरीर में अरबों-खरबों जीवाणु हैं, जिनमें कुछ लाभप्रद होते हैं और कुछ नुकसानदेह। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ रखने के लिए मनुष्य यत्न करता है, उसी प्रकार इस तरह के धार्मिक आयोजन देश को स्वस्थ एवं समृद्ध बनाने में महती भूमिका अदा कर राष्ट्रीय एकता को मजबूत करते हैं।
श्रीकृष्ण की प्रेरणा से वेदांत दर्शन के संस्थापक महर्षि वेदव्यास के बाद उनके पुत्र शुकदेव ने संन्यासियों की परंपरा शुरू की थी। पहले सभी संन्यासी और वनवासी हिमालय में रहते थे। इसके अलावा उनके सप्तपुरियों में नदी के किनारे आश्रम होते थे, जहां आस-पास जंगल होता था।
(युगवार्ता से साभार )