अपना संविधान बनाने की धुन में डूबे रहने के कारण क्या कांग्रेस नेतृत्व ने भारत विभाजन के खतरे को नहीं समझा? 1935 के ब्रिटिश संविधान के लागू होने के बाद और उसके प्रावधानों के तहत हुए चुनावों से घटनाओं का जो सिलसिला चला उसे इस दृष्टि से देखने पर इसी कटु और पीड़ादायी यथार्थ से आज हमारा सामना होता है। इस ऐतिहासिक भूल की उपेक्षा की गई है। इसे रेखांकित करने का प्रयास कम ही हुआ है। यहां जरूरी हो गया है कि उस इतिहास को पुनः देखें और समझें। ऐसा कर संविधान सभा की बहस को एक नये परिप्रेक्ष्य में समझना आसान होगा। जिसे 1935 का ब्रिटिश संविधान कहते हैं, उसका दूसरा नाम भारत अधिनियम भी है। उसे बनाने में आठ साल लगे। उसके लिए आयोग का गठन 1927 में हो गया था। 4 अगस्त 1935 को ब्रिटिश सरकार ने उस संविधान को स्वीकृति दे दी।
वह स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष का एक पड़ाव था। अंग्रेजों ने जो संविधान बनाया था उसमें दो शक्तियों के संघर्ष का सिद्धांत था। जिसमें शक्ति का नियंत्रण तो अंग्रेजों के हाथ में बना रहे और दिखावे के लिए भारत के लोगों को कुछ दे दिया जाए। जब अंग्रेजों ने उसे लागू किया तो भारत में उसका हर दल, समूह और ज्यादातर नेताओं ने विरोध किया। कांग्रेस ने विरोध की अगुवाई की। कांग्रेस पूर्ण स्वतंत्रता की पक्षधर थी। हालांकि कांग्रेस 1932 से 1934 तक प्रतिबंधित थी फिर भी दिल्ली और कलकत्ता में सम्मेलन कर उसने प्रस्ताव पारित किया कि ‘वर्तमान स्थिति में कोई भी संविधान विचारणीय नहीं है।’ इसे ही 1934 के कांग्रेस अधिवेशन मंे दूसरे शब्दों में दोहराया गया।
जवाहरलाल नेहरू का विरोध तो बढ़ चढ़ कर था। उन्होंने कहा कि इससे नये स्वार्थ उत्पन्न किए जा रहे हैं। जब ब्रिटिश सरकार ने अपने बनाये संविधान को स्वीकार कर लिया तो जवाहरलाल नेहरू ने लिखा कि ‘राजनैतिक परिवर्तनों की दृष्टि से प्रस्तावित संविधान एक बेहूदगी है। सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो यह और भी बुरा है। ब्रिटेन ने शक्ति तो अपने हाथ में रखी है परन्तु उसमें उत्तरदायित्व नहीं है। निरंकुशता की नग्नता को ढकने के लिए कहावत वाले अंजीर का पत्ता भी नहीं है।’ इस पर ब्रिटिश सरकार का रूख नफरत का ज्यादा था। कुछ उसमें भय भी शामिल था। क्योंकि उसे मालूम था कि कांग्रेस का भारत के जनमानस पर जबरदस्त प्रभाव है। इस भय के कारण अंग्रेजों ने एक तरफ बातचीत की लाइन ले रखी थी तो दूसरी तरफ फूट डालो की नीति से काम ले रही है।
इतिहास का यह अनोखा संयोग है कि उस संविधान को ठुकराने में कांग्रेस से मुस्लिम लीग भी सहमत थी। खासकर केंद्र की सरकार के मामले में। यह भी सच है कि मुस्लिम लीग और कांग्रेस की सहमति के कारण अलग-अलग थे। मुस्लिम लीग समझ गई थी कि केंद्रीय विधानसभा में हिंदूओं का बहुमत होगा। मुस्लिम अल्पमत में होंगे। इसलिए मुस्लिम लीग ने केंद्र की शक्तियों को कम करने के लिए तीन मांगे रखी। अनेक इतिहासकारों का मत है कि 1935 का संविधान ब्रिटेन की अदूरदर्शिता और शक्ति के दुरूपयोग का उदाहरण है। चैतरफा विरोध के बावजूद अंग्रेजों ने उसे लागू किया। वह 1 अप्रैल 1937 से लागू हो गया। केंद्र के बारे में योजना स्थगित रखी गई। लेकिन राज्य का जो हिस्सा था उसे लागू कर दिया गया।
विचित्र बात यह है कि सभी राजनीतिक दलों ने उसका विरोध किया लेकिन जब प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव की बात आई तो वे चुनाव में शामिल होने के लिए तैयार हो गए। कांग्रेस तो बढ़ चढ़कर चुनाव लड़ने में लग गई। उसमें अपना इरादा बदला। अब आजकह सकते हैं कि कांग्रेस का विरोध सिर्फ दिखावा था। वास्तविकता से आडम्बर ज्यादा था। जब वह संविधान लागू हुआ उसी समय दूसरे विश्व युद्ध की काली छाया मंडरा रही थी। माना जाता है कि अगर दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटेन उलझा न होता तो वह उस संविधान में जैसी मांग कांग्रेस समेत दूसरे दलों ने की उसपर वह ज्यादा ध्यान देता। उन्हीं दिनों लिन लिथिगो भारत के वाइसराय बने। यह बात 1936 की है।
नये वाइसराय ने राजनैतिक दलों को फुसलाना शुरू किया। उनका मकसद था कि वे दल संविधान को मंजूर कर ले। वायसराय को अपनी चाल पर भरोसा था। वे समझते थे कि उनकी अपील का प्रभाव पड़ेगा। राजनैतिक दल उनकी योजना को स्वीकार कर लंेगे। इसके विपरीत कांग्रेस ने खुलेआम विरोध का रूख अपनाया था। उसपर दृढ़ थी। लेकिन कांग्रेस ने अपने रूख में परिवर्तन किया। यह निश्चय किया कि प्रांतीय विधानसभा के चुनाव में वह उम्मीदवार खड़े करेंगी। इसे उचित ठहराते हुए और वाइसराय की अपील का उत्तर देते हुए कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि ‘हम विधानसभाओं में ब्रिटिश साम्राज्य के तंत्र से सहयोग करने नहीं जा रहे हैं। हम तो संविधान के विरूद्ध संघर्ष करने और उसे समाप्त कराने तथा भारतीय जनता पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पकड़ मजबूत करने की कोशिशों और शोषण का विरोध करने जा रहे हैं। हम वहां संविधान के मार्ग पर चलने के लिए या थोथे सुधार की भावना से प्रेरित होकर नहीं जा रहे हैं।’
जवाहरलाल नेहरू ने फैजपुर कांग्रेस में अध्यक्षीय भाषण करते हुए 27 दिसंबर 1936 को कहा कि ‘यह ऐसा मामला है जिसका हमारे स्वतंत्रता संग्राम और हमारे भविष्य पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए कांग्रेस ने जो नीति अपनाई है उसमें हम पद ग्रहण नहीं करेंगे। मंत्रिमंडल से हमारा कोई संबंध नहीं होगा।’ इस नीति पर अमल के लिए कांग्रेस कार्यसमिति ने एक चुनाव प्रचार समिति बनाई। एक घोषणा पत्र बनाया। उसमें स्पष्ट उल्लेख था कि 1935 के अवांछनीय संविधान को अस्वीकार करना है। चुनाव ने कांग्रेस को एक अवसर दिया। जिससे वह लोगों के बीच में जाकर अपनी बात उन्हें समझा सके। उस समय सीमित मताधिकार था। आबादी के 11 फीसद लोग ही वोट डाल सकते थे। ऐसे मतदाताओं की संख्या साढ़े तीन करोड़ थी। इसे कांग्रेस ने इस लक्ष्य से देखा कि वह विधानसभाओं में अधिक से अधिक स्थान प्राप्त कर सके। गांधीजी के रचनात्मक संस्थाओं जैसे अखिल भारतीय दिनकर संघ ने भी चुनाव में कांग्रेस की मदद की।
कांग्रेस की समस्या थी कि वह मुस्लिम मतदाता को कैसे अपने पक्ष में खड़ा करे। मुस्लिम मतदाताओं के लिए संविधान के प्रावधान में अलग क्षेत्र बनाये गये थे। कांग्रेस ने इसके लिए एक चाल चली। उसने अपने मुस्लिम नेताआंे को लीग की ओर से चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग में कोई औपचारिक समझौता नहीं हुआ। लेकिन उम्मीद थी कि जब मंत्रिमंडल बनाने का मौका आयेगा तो निर्णय करने में कोई अड़चन नहीं आयेगी। शुरू में कांग्रेस और मुस्लिम लीग में चुनाव अभियान के दौरान सद्भावना दिखती थी। कांग्रेस के उम्मीदवार उन दलों के विरूद्ध लड़ रहे थे जो नये संविधान को अच्छा समझते थे और ब्रिटिश सरकार से सहयोग करना चाहते थे। परिणाम जो आया वह कांग्रेस की उम्मीदों से कहीं अधिक था। उसे आठ सौ आठ स्थान में से सात सौ ग्यारह सामान्य सीटें प्राप्त हुई। मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्रों में भी कांग्रेस को सफलता मिली थी। 482 सीटों में से उसने 58 उम्मीदवार खड़े किये थे और उसके 26 लोग चुन कर आये। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के लिए 64 स्थान निर्धारित थे। जिसमें मुस्लिम लीग को 27 सीटें मिली।
उस चुनाव परिणाम से प्रमाणित हुआ कि जनता कांग्रेस के साथ है, न कि अंगे्रेजों के साथ। जो सफलता मिली थी वह अप्रत्याशित थी। इसलिए कांग्रेस ने अपना पुराना निर्णय बदला और मंत्रिमंडल बनाने की दिशा में प्रयास शुरू कर दिए। निर्वाचित सदस्यों के सम्मेलन में पुनः यह प्रस्ताव पारित हुआ कि ‘संविधान को नामंजूर करने, नये संविधान के निर्माण के लिए संविधान सभा बुलाने’ के लिए कांग्रेस मंत्रिमंडल बनायेगी। मंत्रिमंडल बनाने की नीतिगत अड़चन को कांग्रेस ने अपने पुराने फैसले को बदलकर दूर कर लिया, लेकिन उसके सामने बड़ी राजनैतिक कठिनाई आई। संविधान के अनुसार मंत्रियों को नियुक्त करने का अधिकार गर्वनर के पास था। उसे संविधान के एक प्रावधान का पालन करना था। वह यह था कि गवर्नर अल्प संख्यक के हितों की रक्षा करेगा। प्रश्न पैदा हुआ कि अल्प संख्यक किसको कहेंगे। इस प्रश्न ने उत्तर प्रदेश में जटिल परिस्थिति पैदा कर दी।
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग का नेतृत्व शौकत अली जैसे खिलाफती और खलीकुज्जमा जैसे पुराने कांग्रेसी सदस्यों के हाथ में थी। तब जिन्ना कहते थे कि ‘मुस्लिम लीग और कांग्रेस के आदर्शों में कोई मतभेद नहीं है। दोनों ही भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं।’ चुनाव परिणाम के बाद खलीकुज्जमा ने बातचीत शुरू की। वे 12 मई 1937 को जवाहरलाल नेहरू से इलाहाबाद में मिले। परंतु कोई समझौता नहीं हो सका। अंततः बातचीत टूट गई। क्यों टूटी? क्या कारण थे? इस बारे में कांग्रेस के नेताओं के अलग-अलग बयान हैं। मौलाना अबुल कलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू, श्रीप्रकाश और अन्य नेताओं के अपने अपने कथन हैं।
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