संत परंपरा और अखाड़े

प्रज्ञा संस्थानहिंदू धर्म वर्तमानजीवी धर्म है। यह सत्य और ऋत का वह गठबंधन है, जो अतीत से जुड़ने का अर्थ वर्तमान की संभावना के विस्तार से लेता है। इसीलिए, हिंदू जीवन दर्शन अनागत सुख की कल्पना में अपना वर्तमान विस्मृत नहीं करता। यहां वर्तमान केवल अतीत के सनातन शाश्वत जीवन मूल्यों को भविष्यत की यात्रा के पाथेय के रूप में सौंपने वाला एक माध्यम है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हिंदू जीवन दृष्टि मनुष्य और प्रकृति दोनों को विलग देखती है। यहां मनुष्य और देवता में स्पर्धा नहीं है, अपितु सहकार का भाव है। यही भारतीय परंपरा की अविलग सनातन परंपरा का रूप है। ऐसे सनातन विश्वजनीन सत्यों को भारत स्वयं में आत्मसात किए हुए है। यहां पर संस्कृतियों की सहमति की बात शाश्वत सत्य की ऊंचाइयों पर ही संभव है। सत्य यहां पर धर्म है। धर्म वेद, स्मृति, सदाचार और अनुकूलता में समाहित है। अर्थात यहां पर शास्त्र का ज्ञान ठहरा हुआ ज्ञान नहीं है, बल्कि निरंतर बहने वाला अनुभव है। अनुभव धार्मिक संपदा के वाक् अनुभव से उत्पन्न होता है। यह वाक् अनुभव सनातन जीवन भाव के बार-बार उमड़ने का पर्व है।

हिंदू धर्म बहुविध प्रकारों को एकोन्मुख करने वाला सनातन तीर्थ है, सनातन पर्व है। पर्व में जल, जंगल व जीवन सभी समाहित हैं। इसकी अंतर्वस्तु अद्भुत है। इसमें देव हैं। मंदराचल पर्वत है, वासुकि नाग है। यानी सृष्टि में दृष्ट देव और असुर दोनों हैं। मंदराचल भारत देश है और नाग काल की व्याख्या का प्रतीक। देव, असुर व अमृत की इस व्याख्या में संसार को समझने की दिव्य दृष्टि है। यहां पर घट में अमृत है। अमृत के लिए सुर और असुर हैं। मंदराचल पर्वत को मथने की कथा जितनी सनातन है, उतना ही अमृत को तिरोहित करने वाला कुंभ भी है। कुंभ है एक दिव्य दृष्टि को सारगर्भित तरीके से प्राप्त करने का साधन। यह एक जीवित परंपरा है, जिसे समझने के लिए उसके काल को तय करने की जरूरत नहीं है, बल्कि उसे ज्ञान के केंद्र में लाकर अपनी खोई सभ्यता दृष्टि को फिर से प्राप्त किया जा सकता है। इस सभ्यता के केंद्र बिंदु में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की व्यापक अवधारणा है। मोक्ष सनातन जीवन का सबसे प्रबलतम साध्य है, जिसे प्राप्त करने का साधन दैहिक जीवन से संन्यस्त जीवन की ओर जाना है।

भारत में सामाजिक व्यवस्थाओं को जितना राजतंत्र ने नहीं मथा, उससे कहीं ज्यादा भूमिका संन्यासियों की रही है, जिन्होंने अपनी यात्रा के दौरान वनों, पर्वतों को पार किया है। साधकों ने समाज के विस्तार में अपनी जीवंतता प्रमाणित की है और भारत के ऋषियों ने अपनी ज्ञान साधना से पूरे समाज को आलोकित किया है। संतों ने अपनी तपस्या से भारत की धरा को पवित्र रखा है। जहां जाने की साधारण मनुष्यों की गति नहीं है, वहां पर वे गए हैं। सुदूर और दुर्गम स्थानों पर जाकर उन्होंने भारत को देवभूमि बनाए रखा है। भरत भूमि पर चतुर्दिक विचरण करने वाले इन संन्यासियों को संन्यास आश्रम में परिपक्त बना रखने के लिए हमारे प्राचीन ऋषियों ने कुंभ की कल्पना की, जिसमें ज्ञान का सागर उमड़े और भरत खंड में चारों ओर ज्ञान का प्रकाश आलोकित होता रहे। वर्तमान में जब कुंभ अधिक से अधिक संन्यासियों एवं सद्गृहस्थों के एकत्र होने का आयोजन बन रहा है, तब इसके मूल स्वरूप को अच्छी तरह से अंगीकार करने की जरूरत है।

समुद्र मंथन की कथा की तरह ही कुंभ का आयोजन महत्वपूर्ण है। यह मूल रूप से संन्यासियों का समागम है। भारत के सभी संगठन समाज के अंग हैं। इसलिए संन्यासियों के इस बृहत समागम में गृहस्थों की उपस्थिति भी आवश्यक है। कह सकते हैं कि कुंभ एक तरह से साधना, परंपरा, शास्त्र परंपरा और आम लोगों का संगम है। कुंभ कब से हो रहा है, यह प्रश्न ही बेमानी है। लेकिन सबको अपने अनुशासन में बनाए रखने की एक प्रणाली के तहत उनको किसी एक समय पर एक साथ एकत्र करना आवश्यक रहा होगा, जहां से समाज को किसी नई दिशा का भान दिया जाता रहा है। कुंभ आज भी उस प्रयोजन में खरा उतरता है। प्राचीन परंपराओं में छिद्रान्वेष करें तो हम पाते हैं कि लगभग 7000 से 10,000 साल पूर्व उत्तर प्रदेश के नैमिषारण्य में ऐसा कुंभ होता रहा है, जहां पर ऋषियों, मुनियों एवं संन्यासियों का एकत्रीकरण होता था। लेकिन हमारी मौजूदा परंपरा में जिस कुंभ का आयोजन किया जाता है, उसका श्रेय आदि शंकराचार्य को दिया जाता है। मान्यता है कि संन्यासियों को एक अनुशासन में बांधने के लिए शंकराचार्य ने दशनामी संप्रदाय को आरंभ किया था। आचार्य शंकर हमारे मूल आचार्य हैं।

आदि शंकर ने ही अपनी परंपरा के अनुसार सभी प्रकार के संन्यासियों को दस वर्गों में बांटा था। अपनी-अपनी धारा के अनुसार अनुशासित रहते हुए वे सब कुंभ में मिले। आदि शंकर के बाद के काल में निम्बार्क, रामानुज और बल्लभ संप्रदाय के संन्यासी भी कुंभ में एकत्र होते रहे हैं। इस तरह से कुंभ संन्यासियों का एक बृहत आयोजन हो गया। कुंभ के दौरान संन्यासियों की दो धाराएं देखने को मिलती हैं। कुछ चिंतन-मनन के द्वारा ज्ञानमार्ग की ओर उत्प्रेरित होते हैं, वे ज्ञानमार्गी कहलाते हैं और उनकी मंडली में शास्त्र ज्ञान में अग्रणी संन्यासियों की टोली आगे जाती है। दूसरे वे संन्यासी हैं, जो शास्त्र की जगह तपस्या को प्रधानता देते हैं, वे योग मार्गी कहे जाते हैं। दोनों धाराओं को एक-दूसरे से जोड़े रखने की विधि ही हमारी सभ्यता है। संन्यास आश्रम के सारे अंग मर्यादाओं का अनुपालन सही ढंग से कर रहे हैं, यह देखने का एक अवसर कुंभ के रूप में मिलता है। अखाड़ों का नेतृत्व सही हाथों में है, उन्हें सभी संन्यासियों की स्वीकृति है, इसका निर्धारण कुंभ के दौरान हो जाता है। तप और साधना में अनवरत रत रहने वालों के एकत्र होने में कठिनाई न हो, संभवत: इसीलिए चार स्थानों पर 12-12 साल के अंतराल पर कुंभ की परंपरा विकसित हुई होगी। उत्तर क्षेत्र के लिए हरिद्वार, पश्चिम क्षेत्र के लिए उज्जैन, दक्षिण क्षेत्र के लिए नासिक और पूर्वी भाग के लिए प्रयाग में कुंभ की परिपाटी मानी जा सकती है। ये सभी नगर पुण्यसलिला नदियों के तट पर हैं। आदि शंकर ने अपने काल में इस परंपरा को और विकसित कर दिया।

संन्यासियों का अखाड़ा

आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए संन्यासियों के सात अखाड़ों की स्थापना की। अन्य संप्रदाय के अखाड़ों को मिलाकर यह संख्या अब 13 हो गई है। इनमें सबसे प्राचीन श्री पंचदशनाम आह्वान अखाड़ा है। कुंभ या अर्धकुंभ में साधु-संतों के इन्हीं 13 अखाड़ों द्वारा भाग लिया जाता है। वैसे अखाड़ों को शैव, वैष्णव और उदासीन आदि तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है। शैव अखाड़े के इष्ट भगवान शिव हैं। इन अखाड़ों के संन्यासी शिव के विभिन्न स्वरूपों की आराधना अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर करते हैं। वैष्णव अखाड़ों के इष्ट भगवान विष्णु हैं, जबकि उदासीन अखाड़ा का प्रवर्तक सिख संप्रदाय के आदि गुरु श्री नानकदेव के पुत्र श्री चंद्रदेव जी को माना जाता है। इस पंथ के अनुयाई मुख्यत: प्रणव अथवा ओउम की उपासना करते हैं। संख्या के हिसाब से सबसे बड़ा जूना अखाड़ा है। इसके बाद निरंजनी और तत्पश्चात महानिर्वाणी अखाड़ा है। इनके अध्यक्ष श्री महंत तथा अखाड़ों के प्रमुख आचार्य महामंडलेश्वर माने जाते हैं। आचार्य महामंडलेश्वर ही अखाड़े में आने वाले साधुओं को गुरु मंत्र भी देते हैं। पेशवाई या शाही स्नान के समय निकलने वाले जुलूस में आचार्य महामंडलेश्वर और श्रीमहंत रथों पर आरूढ़ होते हैं। उनके सचिव हाथी पर, घुड़सवार नागा अपने घोड़ों पर तथा अन्य साधु पैदल आगे रहते हैं। अखाड़ों में आपसी सामंजस्य बनाने एवं आंतरिक विवादों को सुलझाने के लिए अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् है।

दण्डी बाड़ा

हाथ में दण्ड जिसे बह्मदण्ड कहते हैं, धारण करने वाले संन्यासी को दण्डी संन्यासी कहा जाता है। दण्डी संन्यासियों का संगठन दण्डी बाड़ा के नाम से जाना जाता है। दण्ड संन्यास संप्रदाय नहीं, अपितु आश्रम परंपरा है। इस परंपरा के अंतर्गत दण्ड संन्यास लेने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मण को है। प्रथम दण्डी संन्यासी के रूप में भगवान नारायण ने ही दण्ड धारण किया है।

नारायणं पद्य भवं वशिष्ठं, शक्तिं च तत्पुत्र पाराशरं च,

व्यासं शुकं गौड़ पदं महन्तं गोविन्द योगिन्द्रमथास्य शिष्यं।

श्री शंकराचार्यमथास्य पद्य पादं हस्तामलकं च शिष्यं,

तं त्रोटकं वार्तिककार मनमानस्य गुरु सततं मानतोऽस्मि।।

आचार्य बाड़ा

आचार्य बाड़ा रामानुज संप्रदाय नाम से भी जाना जाता है। इस संप्रदाय के पहले आचार्य शठकोप हुए, जो सूप बेचा करते थे। शूर्पं विक्रीय विचार शठकोप योगी। उनके शिष्य मुनिवाहन हुए। तीसरे आचार्य यामनाचार्य हुए। चौथे आचार्य रामानुज हुए। उन्होंने कई ग्रंथ बनाकर अपने संप्रदाय का प्रचार किया, तभी से इसका नाम श्री रामानुज संप्रदाय हो गया। इसके अनुयायी नारायण की आराधना करते हैं और लक्ष्मी को अपनी देवी मानते हैं। कावेरी नदी को अपना तीर्थ मानते हैं और त्रिदंड धारण करते हैं। आचार्य बाड़ा संप्रदाय में ब्रह्मचारी दीक्षा आठ वर्ष से अधिक आयु के बालकों को दी जाती है। इसके बाद उन्हें वेद अध्ययन कराया जाता है। सामवेद को वे अपना वेद मानते हैं। आराधना के कई चरणों की परीक्षा के बाद ही उन्हें संन्यास दिया जाता है। उन्हें इस बात की स्वतंत्रता है कि पढ़ाई पूरी होने पर वे चाहें तो गृहस्थ हो सकते हैं, परंतु संन्यासी होने के बाद परिवार से नाता छूट जाता है। संन्यासियों को पंच संस्कार की दीक्षा दी जाती है, जिनमें शंख चक्र गरम करके हाथ के मूल में स्पर्श कराया जाता है। माथे पर चंदन का त्रिपुंड टीका धारण कराया जाता है। संतों का भगवान के नाम पर नामकरण किया जाता है। तत्पश्चात उन्हें गुरु मंत्र दिया जाता है एवं यज्ञ संस्कार के बाद उन्हें संप्रदाय की परंपरा से जोड़ा जाता है।

महिला अखाड़ा

प्रयाग में संपन्न हुए 2013 के कुंभ के दौरान पहली बार महिला नागा संन्यासियों के स्नान और अखाड़े बनाने के लिए अलग से जगह दी गई थी। कुंभ में ही पहली बार पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े ने साध्वी देव्या गिरी को महामंडलेश्वर की उपाधि दी थी। कुंभ में इन महिला संन्यासियों की अलग दुनिया होती है। इनके शिविर में कोई भी आम व्यक्ति बिना इनकी इजाजत के प्रवेश नहीं कर सकता है। इन संन्यासियों की ईष्टदेवी भगवान दत्तात्रेय की मां अनुसुइया हैं और उन्हीं को ईष्ट मानकर ये आराधना करती हैं। नागा महिला संन्यासियों के शिविर का नियंत्रण अखाड़ों के अधीन होता है।

प्रयागवाल

इतिहास में प्रसिद्ध तीर्थराज प्रयाग की प्राचीनता के साथ-साथ प्रयाग वालों का भी निकट का संबंध है। प्रयागराज के अति प्राचीन निवासी होने के कारण इनका नाम प्रयागवाल पड़ा। कुंभ व माघ मेला में आने वाले तीर्थ यात्री प्रयागवाल द्वारा बसाये जाते रहे हैं और वे ही इनका धार्मिक कार्य संपन्न कराते हैं, जिसका विषद् वर्णन मत्स्य पुराण एवं प्रयाग माहात्म्य में है। प्रयागराज आने वाले प्रत्येक तीर्थयात्री का एक विशेष तीर्थ पुरोहित होता है। तीर्थयात्री और पुरोहित का संबंध गुरु-शिष्य परंपरा का द्योतक है। तीर्थयात्री के धार्मिक गुरु रूप माने जाने वाले इन प्रयाग वालों को ही त्रिवेणी क्षेत्र में दान लेने का एकमात्र अधिकार है। 

आदि शंकर ने ही अपनी परंपरा के अनुसार सभी प्रकार के संन्यासियों को दस वर्गों में बांटा था। अपनी-अपनी धारा के अनुसार अनुशासित रहते हुए वे सब कुंभ में मिले। आदि शंकर के बाद के काल में निम्बार्क, रामानुज और बल्लभ संप्रदाय के संन्यासी भी कुंभ में एकत्र होते रहे हैं। 

(युगवार्ता से साभार )

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