कोलकाता की महिला चिकित्सक के साथ हुईं यौन हिंसा एवं हत्या के जघन्य अपराध ने पूरे राष्ट्रीय समाज को शर्मसार कर दिया. उक्त घटना ने इस विचार की पुष्टि ही कि की आधुनिकता एवं सभ्यता के तमाम दावों के बावजूद जंगलीपन का एक अंश अभी भी मानवीय जीन में ना सिर्फ सक्रिय है बल्कि समय-समय पर प्रभावी भी हो जाता है.
उसके बाद चिकित्सक वर्ग में जो आक्रोश दिखा, जैसा उनका आंदोलन और विरोध प्रदर्शन हुआ, वह स्वाभाविक था क्योंकि मानव जीवन सुरक्षा के लिए समर्पित चिकित्सकों के सम्मान एवं जीवन की सुरक्षा राष्ट्र की जिम्मेदारी है. अतः आम जनता भी उनके गम और गुस्से से उपजे आंदोलन की समर्थक ही नहीं बल्कि सहभागी भी थी.
लेकिन इसके बाद यह आंदोलन विरोध से ईतर जिद एवं अहम् का टकराव बन गया. देश के तमाम हिस्सों में डॉक्टर्स एसोसिएशन ने चिकित्सिय सेवा ठप कर कई प्रकार की मांगे रखी जिनमें सुरक्षा और तत्कालीन मांगे तो थीं ही साथ ही कुछ समूह तत्काल दाण्डिक क़ानून बनाने के साथ ही त्वरित न्याय करते हुए आरोपियों को अविलम्ब सजा देने की मांग करने लगे. उधर आंदोलन का तात्कालिक परिणाम ये हुआ कि अस्पतालों में मरीज तड़पते रहें और आंदोलनकारियों के साथ ही मरीज और तिमारदार सभी सड़कों पर थे कोई गम-गुस्से में तो कोई अपने दुःख-पीड़ा में.
ख़ैर इस मामले के कुछ पार्श्व पहलू हैं जिनपर विमर्श आवश्यक है. जैसे कल को किसी महिला पुलिसकर्मी के साथ ऐसी यौन हिंसा और उसकी हत्या हो जाये, उदाहरणस्वरुप अभी कुछ समय पूर्व उत्तर प्रदेश में ही ऐसी घटना हुईं, तब क्या पूरे पुलिस महकमे को ड्यूटी छोड़ हड़ताल पर चले जाना चाहिए था. लेकिन उसके बाद क़ानून व्यवस्था की क्या गति होती? डॉक्टर्स का उच्च शिक्षित वर्ग यह नहीं समझ पाया कि उनके प्रोफेशन की क्या महत्ता समाज के लिए है? वे नगर निगम के कर्मचारी नहीं है कि जिनके कामबन्दी से सड़कें-नाले साफ नहीं होंगे या जन्म प्रमाण पत्र, भूमि के रिकार्ड जैसे कागजात नहीं बनेंगे तो आम नागरिक का जीवन प्रभावित होगा.
आप रेलवे, शिक्षण या DRDO, IGNCA आदि शोध संस्थानों जैसी सेवा का हिस्सा नहीं है जिसका ठप पड़ना कोई त्वरित संकट पैदा करता है. बल्कि आपकी कार्य क्षमता व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती है. आप धरती पर श्रेष्ठ ईश्वरीय विधान के जीवन रक्षक है. आप ही अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ेंगे तो स्वास्थ्य व्यवस्थाएं ध्वस्त हो जायेगी और हुईं भी. चिकित्सक जीवन-मरण को साधने वाली विद्या के प्रतिनिधि हैं, उनका अपने कर्तव्य से विमुख होना मानवीय जीवन के लिए घातक और प्राणान्तक होगा, क्या उन्हें इसका ध्यान नहीं रहा?
अतः स्पष्ट कहें तो ये विशुद्ध भयादोहन (ब्लैकमेलिंग) है जहाँ आम जनता की जान दांव पर लगाकर आप सत्ताओं को झुकाना और समाज को डराकर अपनी प्रभावित साबित करना चाहते हैं. यदि आप अपना कार्य करते हुए विरोध जताते हैं तो समाज में आपके प्रति आदर और समर्थन और बढ़ता.
रही अपराध की बात तो मानव सभ्यता के शुरुआत के साथ ही यह रहा है और ज़ब तक पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व है, यह रहेगा. जैसे अर्थशास्त्रीय भाषा में पूर्ण रोजगार की आदर्श स्थिति असंभव है वैसे ही सम्पूर्ण अपराध मुक्त समाज की संकल्पना एक यूटोपिया सरिखा विचार है. लेकिन यहाँ विचारणीय प्रश्न है अपराधों की त्वरा और वीभत्सता के शमन की, उनके रोकथाम की. यदि अपराध हो चुका है तो उसके विरुद्ध उचित एवं त्वरित दाण्डिक कार्यवाही की. उपरोक्त मामले में पुलिस-प्रशासन की कार्यवाही दोषपूर्ण रही है जो अब न्यायालयी एवं विशेष जाँच एजेंसियों की सक्रियता के बाद अपनी उचित दिशा में है.
दूसरे, हड़ताल के मारे वो मरीज जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं, उनके लिये तो निजी नर्सिंगहोम का विकल्प हैं. लेकिन जो गरीब, वंचित वर्ग है, वो क्या करें? धरती के भगवान तो उन्हें मरने के लिए छोड़ गये हैं. इधर पिछले दस दिनों में निजी अस्पतालों की पौ-बारह रही. ऐसे हड़ताल तो उनके लिए नोट छापने के माकूल मौके होते हैं. उन्हें ऐसी अराजकता में भी मानो अवसर मिल गया हो. प्राइवेट प्रैक्टिसर्न्स तो इसे लम्बा खींचते देख ख़ुश ही होंगे. वो किसी शायर ने ठीक ही कहा,
‘सहमी हुईं है झोपड़ी बारिश के खौफ से,
और महलों की आरजू है कि बरसात तेज हो!’
यानि सवाल वही है. आखिर एक व्यक्ति के कुकृत्य का दंड सम्पूर्ण समाज क्यों भुगते जबकि वह स्वयं आपके संघर्ष का सहयोगी तथा पक्षधर है, तब तो यह अनुचित भी है. साथ ही किसी भी दंड विधान में यह न्याय नहीं माना गया है कि किसी अन्य व्यक्ति के अपराध का दंड किसी और को दिया जाये. देश आपकी मौलिक मांग सुन और स्वीकार रहा है. उसका समर्थन कर रहा है लेकिन क्या आप आम जनता के शारीरिक व्याधियों से उपजी पीड़ा की दर्दनाक आवाजें सुन रहें हैं?
और कैसा त्वरित न्याय चाहिए आपको? इस देश में कोई भी इस दुष्कृत्य को जायज नहीं ठहरा रहा है लेकिन आधुनिक जम्हुरियत में न्यायिक प्रक्रिया का औचित्य एवं न्याय प्रणाली के सम्मान का अर्थ समझना होगा. देश में न्यायपालिका है. वह अपना काम करेगी, फ़ास्ट ट्रैक अदालतें हैं, परिष्कृत दंड संहिता, महिला अपराध विरोधी कड़े क़ानून हैं. इसके बावजूद त्वरित न्याय की मांग का तो अब तो एक ही मतलब बचा है कि तत्क्षण शरई अदालत लगाकर बीच चौराहे अपराधियों का सर काट दिया जाये, अंग-भंग हो या उन्हें गोली मारी जाये. हालांकि उनका अपराध इतना जघन्य है कि ये सजाएं भी बहुत छोटी है. लेकिन न्याय के ऐसे बर्बर तरीके अपनाकर क्या आप अपनी लोकतान्त्रिक प्रगति को पश्चगामी दिशा में नहीं धकेलेंगे? क्या आप मध्ययुगीन जीवनशैली में लौटने को उतारू है?
बात केवल इस अकेले मसले की ही नहीं है बल्कि देश में आये दिन होने वाले विभिन्न लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए आयोजित होने वाले आंदोलन और मनमाने अराजकता के बीच का अंतर इन तथाकथित आंदोलनकारियों ही नहीं बल्कि आम जनमानस को भी समझना जरुरी है. मानव गरिमा ही नहीं नागरिक अधिकारों के विरुद्ध किसी भी अनुचित आपराधिक कृत्य ही नहीं बल्कि अवैधानिक प्रशासनिक गतिविधि के खिलाफ आवाज उठाना, आंदोलन करना व्यक्ति का मूलभूत अधिकार है. लेकिन यह समझना भी अत्यावश्यक है कि अधिकार और कर्तव्य का समायोजन ही समाज का संतुलन स्थिर रखता है. अधिकार की त्वरा में इतने व्यग्र ना हो जाइये कि सही-गलत का भेद ही ना समझ पाये.
इसके अतिरिक्त नए आपराधिक कानून का निर्धारण तथा इसे त्वरित लागू करना जैसे मांग तात्कालिक भावुक दावे तो हो सकते है लेकिन यह संवैधानिक गरिमा नहीं है. सड़कें क़ानून बनाने की जगह नहीं है. इसके लिए देश में संसद और विधानमण्डल हैं. अधिकार के नाम पर अराजकता को गौरवान्वित एवं संविधानिक न्याय का विकृतिकरण स्वीकार नहीं किया जा सकता.
इसी परिपेक्ष्य में बताते चलें कि, बिहार में छात्र आंदोलन के तीव्र होने के दौरान उस समय के महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाजसेवी एवं पूर्व आईसीएस अधिकारी, पाटिल, जिनका महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में अपने कार्यों के कारण काफी सम्मान था, ने 4 अक्टूबर, 1974 को जेपी को लिखे पत्र में लिखा, ‘ इंदिरा गांधी सरकार की खामियों से पूरी तरह वाकिफ है, लेकिन वह इस बारे में अभी तक आश्वस्त नहीं है कि क्या गलियों-मोहल्लों की बहस से चलने वाली सरकार संसदीय बहसों द्वारा बने कानून के तहत चल रही सरकार से बेहतर हो पाएगी? उन्होंने चेताते हुए कहा था, “आज आप अच्छाई के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन इतिहास गवाह है कि भीड़ द्वारा चलाया जाने वाला आंदोलन रॉब्सपियर भी पैदा कर सकता है.”
निकट ही बांग्लादेश का उदाहरण देखिये कि एक लोकतान्त्रिक आंदोलन कैसे हिन्दू एवं भारत विरोधी तथा अपने ही देश के स्वतंत्रता आंदोलन के विरुद्ध हो गया है. राष्ट्रीय नायक शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमाएं तोड़ी एवं अभद्र तरीके से अपमानित की गईं. हिन्दुओं के घर, उपासना स्थल, दुकानें लूटी गईं, उनकी हत्या और औरतों का बलात्कार हुआ, वो इसलिए क्योंकि आंदोलन में ज़ब ध्येय की नैतिकता पतित होती हैं जो वो अराजकतापूर्ण एवं विघटनकारी हो जाता है.
और अराजकता को प्रश्रय देना राष्ट्रीय समाज के लिए आत्मघाती निर्णय होता है. डॉक्टर बेटी की हत्या और बलात्कार देश के लिए एक शर्मनाक घटना है और पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया के पालन के साथ अपराधियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही राष्ट्रीय नैतिकता का वास्तविक तकाजा है. लेकिन उसकी दोषसिद्धि आम भारतीयों के विरुद्ध होना भी अनैतिकता का प्रतिमान है. देश चिकित्सक वर्ग के आक्रोश के साथ पूरी संवेदना के साथ खड़ा है तो फिर डॉक्टर्स आम लोगों के प्रति कैसे संवेदनहीन हो सकते हैं?
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय की अपील और उसके ‘सकारात्मक निर्देशों’ के बाद अखिल भारतीय चिकित्सक संघ महासंघ (एफएआईएमए) ने अपनी ग्यारह दिनों की हड़ताल को समाप्त करने का निर्णय किया है लेकिन इस दौरान आम लोगों के प्रति डॉक्टर्स एसोसिएशन के संवेदनहीन एवं शुष्क व्यवहार ने भी आहत किया है.
किसी भी अन्याय का प्रतिकार व्यक्ति का अधिकार है. और इस रूप में अपने सहकर्मी महिला चिकित्सक के विरुद्ध हुए पाशविक अपराध के विरुद्ध आंदोलन एवं विरोध प्रदर्शन चिकित्सक समूह का अधिकार है लेकिन यह अधिकार तभी अर्थपूर्ण होता है ज़ब यह कर्तव्य का साथ समन्वित हो. कर्तव्य के प्रति सम्मान व्यक्ति को उच्छृंखल होने से बचाता है. कर्तव्य के प्रति सम्मान अधिकारों की मर्यादा का मान रखना है. राष्ट्र-रूप में हमें प्राप्त हमारे अधिकार हमारे पूरे पूर्ण किये हुए कर्तव्यों का ही प्रतिरुप हैं. यदि नागरिक समाज से कर्तव्य पालन हो चूक होती है तो उससे राष्ट्र का जीवन स्तर पतित होता है. यह भी संभव है कि अधिकारों के प्रति संकुचित-स्वार्थी मानसिकता राष्ट्र की नैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था में अराजकता पैदा कर दें. उम्मीद है ‘धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि’ ऐसी स्थिति नहीं आने देना चाहेंगे और अपने कर्तव्य पालन के प्रति दृष्टिकोण उन्नत रखेंगे.